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उर्दू शायरी को आज़ाद करने वाले राशिद

उर्दू के विद्रोही शायर नून मीम राशिद की जन्मशताब्दी चुपचाप गुज़र गई. उनकी शायरी और शख्सियत पर प्रेमचंद गाँधी का यह लेख- जानकी पुल.



उर्दू शायरी पर बरसों से क्‍या सदियों से यह आरोप लगता रहा है कि वह अपने शिल्‍प और अंतर्वस्‍तु दोनों में बेहद जकड़ी हुई है और जब तक इन जकड़बंदियों से उर्दू शायरी को निजात नहीं मिलेगी, तब तक इसमें नए खयालों को व्‍यक्‍त करने की ताकत और सामर्थ्‍य नहीं आएगी। बीसवीं सदी में जाकर नून मीम राशिद जैसा एक महान शायर पैदा होता है जो उर्दू शायरी को आज़ाद करता है और नई राह दिखाता है। यूं उनसे पहले भी ग़ज़ल को आज़ाद करने की कोशिशें हुई हैं, लेकिन नून मीम राशिद ने उर्दू शायरी को छंद और बहर के पारंपरिक बंधनों से आज़ाद करने का जितना बड़ा काम किया उतना किसी ने नहीं किया। राशिद ने सिर्फ शिल्‍प की दृष्टि से ही उर्दू कविता को आज़ाद नहीं किया बल्कि राशिद ने उर्दू काव्‍य में उन भावों और संवेदनाओं को भी दाखिला दिलाया, जो इससे पहले असंभव माना जाता था।
01 अगस्‍त, 1910 को पंजाब में गुजरांवाला के कोटभागा गांव में उनका जन्‍म हुआ। उनका पूरा नाम राजा नज़र मुहम्‍मद जंजुआ था। उनके दादाजी और पिताजी भी उूर्द अदब में खासा दखल रखते थे। उनकी आरंभिक शिक्षा गुजरांवाला में हुई। उनके पिता राजा फ़ैजल इलाही चिश्‍ती ने हाफिज, सादी ग़ालिब और इकबाल की शायरी से उनका परिचय करवाया। बाद में वे लाहौर आ गए, जहां गवर्नमेंट कॉलेज से इकोनॉमिक्‍स में एम.ए. करने के बाद उन्‍होंने स्‍वतंत्र रूप से शायरी और चित्रकला की ओर रुख किया। कॉलेज में उन्‍हें छात्रों की पत्रिका ‘रावी’ के उर्दू सेक्‍शन का एडिटर बनाया गया था। राशिद ने कुछ वक्‍त तक ताजवर नजीबाबादी की उर्दू पत्रिका ‘शाहकार’ का संपादन किया। एक वक्‍त वे मुल्‍तान के कमिश्‍नर ऑफिस में भी कारकुन रहे। यहीं उन्‍होंने अपनी पहली मुक्‍त छंद की कविता ‘जुर्रते परवाज़’ लिखी। 1939 में वे ऑल इंडिया रेडियो के समाचार संपादक बन गए और आगे चलकर प्रोग्राम डाइरेक्‍टर हुए। कुछ समय के लिए उन्‍होंने सेना में भी काम किया। 1940 में उनका पहला काव्‍य संग्रह ‘मावरा’ प्रकाशित हुआ। विभाजन के बाद वे पाकिस्‍तान रेडियो के रीजनल डाइरेक्‍टर हुए। उसके बाद उन्‍हें संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ में काम करने का अवसर मिला और वे न्‍यूयॉर्क चले गए। उन्‍होंने संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ के लिए कई देशों में नौकरी की और 1973 में इंग्‍लैंड में सेवानिवृत हुए और वहीं रह गए।
हालांकि राशिद आरंभ में पारंपरिक किस्‍म की शायरी करते रहे, लेकिन जल्‍द ही वे आधुनिक विचारों के हामी और पैरोकार हो गए और तमाम रिवायतों को तोड़ आगे निकल लिए। पारंपरिक धर्म, धार्मिक विचार और दर्शन से दूर वे नई राहों के अन्‍वेषी थे। जबर्दस्‍त पढाकू राशिद युवावस्‍था में ही महान यूरोपियन और पाश्‍चात्‍य कवियों, लेखकों और दर्शनशास्त्रियों को वे पढ़कर अपनी राह तय कर चुके थे। उनके उस्‍ताद पतरस बुखारी ने उनकी जन्‍मजात प्रतिभा को निखारने और फलने-फूलने का पूरा मौका दिया। उर्दू शायरी में जहां बहर, छंद और रदीफ-काफिए के बिना शायरी की कल्‍पना भी नहीं की जा सकती, वहां नून मीम राशिद ने मुक्‍त छंद में शायरी का आग़ाज़ किया।
वे उर्दू अदब के पहले शायर थे जिन्‍होंने शब्‍दों को उनके रिवायती मानी से और भाषा को पारंपरिक सोच से मुक्‍त कर उस रचनात्‍मकता को मुख्‍य स्‍वर दिया जो किसी भी सर्जनात्‍मक कला का मुख्‍य ध्‍येय होता है। इस लिहाज से देखा जाए तो नून मीम राशिद और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ अपने युग के दो ऐसे उर्दू शायर हैं जिन्‍होंने उूर्द शायरी को पुरानी सोच से आज़ाद किया। यह संयोग ही है कि फ़ैज़ और राशिद के पहले संग्रह तकरीबन साथ-साथ प्रकाशित हुए और दोनों ने उर्दू शायरी का सदियों पुराना मिजाज़ बदल दिया। राशिद की पहली किताब ‘मावरा’ 1940 में और फ़ैज़ की ‘नक्‍श फरियादी’ 1941 में प्रकाशित हुई। जहां फ़ैज़ ने पारंपरिक महबूबा को वतन से वाबस्‍ता कर ग़ज़ल का सदियों पुराना मिजाज और सोचने-समझने का ढंग बदल दिया, वहीं नून मीम राशिद ने आधुनिक इंसान के नए जज्‍बात और निजी अंर्तमन की हलचलों को उर्दू शायरी में दाखिला दिलाया और इसके लिए उन्‍होंने पुरानी तमाम रिवायतों को खारिज कर दिया। बावजूद इसके उन्‍होंने उर्दू शायरी की लयात्‍मकता को अपनी आधुनिक शायरी में ख़त्‍म ना होने दिया और उस लयात्‍मकता को भी एक नया रंग दिया। इसलिए उनकी शायरी पढ़ने-सुनने वालों को एक ऐसी ताज़गी का अहसास हुआ, जिसकी उर्दू वालों ने कभी कल्‍पना भी नहीं की थी। जिस उर्दू शायरी को इश्‍क़, महबूब, कासिद, विसाल, रकीब, ख़ुदा, सनम वगैरह के बिना मानीखेज नहीं माना जाता था, वहां इन लफ्जों के बिना नून मीम राशिद ने नई और आधुनिक शायरी को संभव किया। यही वजह है कि वो फ़ैज़ की तरह अपने पहले संग्रह के प्रकाशन से पहले ही खासे लोकप्रिय हो गए थे।
उनकी लोकप्रियता अपनी जगह कायम थी, लेकिन सच्‍चाई तो ये है कि उनकी आधुनिकता और गहरी संवेदनाओं से ओतप्रोत शायरी को उर्दू अदब के पारंपरिक पैरोकारों ने कोई तरजीह नहीं दी। बारहा कोशिशें की गईं कि नून मीम राशिद को ना तो पढ़ा जाए और ना ही सुना जाए। एक अघोषित किस्‍म का प्रतिबंध राशिद की शायरी पर हमेशा लगा रहा और खुद नून मीम राशिद ने इसकी कभी परवाह नहीं की। वो अपनी आधुनिक शायरी में इस पीड़ा को भी कई रूपों में व्‍यक्‍त करते रहे और आम इंसान की तकलीफों को भी, जिसमें ख़ुद जि़ंदगी ही इंसान के ना जी सकने का सबब बन जाती है। मिसाल के तौर पर उनकी मशहूर नज्‍़म ‘रक्‍़स’ को लिया जा सकता है। इसमें राशिद कहते हैं-
ऐ मेरी हमरक्स मुझको थाम ले
जिंदगी से भाग कर आया हूँ मैं
डर से लरजाँ हूँ कहीं ऐसा न हो
रक्सगाह के चोर दरवाज़े से आकर जिंदगी
ढूंढ ले मुझको निशाँ पा ले मेरा
और जुर्मेऐश करते देख ले
दुनिया में एक इंसान के पास अपना निजी सुकून कहां है, कहां है वो एक अकेला कोना जिसमें एक संवेदनशील इंसान बैठकर जुर्मे ऐश कर सके। तमाम किस्‍म के समाजी, सियासी और दुनियावी बंधनों के बीच जकड़ा हुआ हमारा आज का इंसान जि़ंदगी से भागता हुआ अपनी आत्‍मा के साथ गुफ्तगू करना चाहता है, इसे ही नून मीम राशिद हम-रक्‍स के साथ जुर्मे ऐश करना कहते हैं। जिस उर्दू में मुहब्‍बत और आशिक-माशूक को ही जिंदगी का पर्याय कहा जाता रहा है, वहां नून मीम राशिद कहते हैं कि ‘जिंदगी मेरे लिए ख़ूनी भेडि़ये से कम नहीं’, यह लहजा और विचार राशिद से पहले किसी के यहां नहीं रहा। मानव मन की अतल गहराइयों से निकल कर आई ऐसी कविता को पारंपरिक उर्दू अदब की समझ रखने वाले कैसे तो समझेंगे और कैसे स्‍वीकार करेंगे। इसीलिए नून मीम राशिद उर्दू के सबसे जटिल शायर भी हैं और सबसे अलग भी। वो एक ऐसे शायर थे जो इंसान और इंसानियत को सबसे ज्‍यादा अहमियत देते थे और इंसान की आज़ादी उनके लिए बहुत मायने रखती थी। वो इंसान पर किसी भी किस्‍म की पाबंदियां नहीं चाहते थे और एक किस्‍म के पूर्ण स्‍वायत्‍त और स्‍वतंत्र इंसान के पैरोकार थे।
खुद नून मीम राशिद भी बेहद आज़ाद खयाल थे और उनकी तरबियत भी सबसे अलहदा थी, उनके एक दोस्‍त जि़या मुहिउद्दीन के मुताबिक जब सारे नौजवान अंग्रेजी सीखने की धुन में लगे हुए थे, उन दिनों राशिद पर चित्रकला का नशा छाया हुआ था। लेखन के शुरुआती दौर में वे उस दौर के मशहूर पाश्‍चात्‍य कवियों में जॉन कीट्स, मैथ्‍यू आर्नोल्‍ड और रॉबर्ट ब्राउनिंग से खासे प्रभावित थे। आरंभ में राशिद ने उनकी तर्ज पर लिखने की कोशिशें भी कीं। लेकिन जल्‍द ही उन्‍हें समझ में आ गया कि पश्चिम की राह पर चलने के बजाय अपनी राह बनानी चाहिए और वो अपने सफर पर अकेले चल निकले। इसीलिए उनकी शायरी में जदीदियत और उर्दू की मिठास का अद्भुत संगम है, जो पाठक को ताज़गी भी देता है और नई तरह से सोचने का सलीका भी। उनकी एक शानदार नज्‍़म है ‘अंधा कबाड़ी’, जिसमें राशिद कहते हैं-
शहर के गोशों में हैं बिखरे हुए
पा शिकस्‍ता सर बुरीदा ख्‍वाब
जिनसे शहर वाले बेख़बर !
घूमता हूं शहर के गोशों में रोज़-ओ-शब
कि इनको जमा कर लूं
दिल की भट्टी में तपाउं
जिससे छंट जाए पुराना मैल
उनके दस्‍त-ओ-पा फिर उभर आएं
चमक उठें लब-ओ-रुख्‍सार-ओ-गर्दन
जैसे नौ अरास्‍ता दूल्‍हों के दिल की हसरतें
फिर से इन ख्‍वाबों को सिम्‍त-ए-राह मिले !
शहर भर में घूम-घूम के ख्‍वाब बेचने वाले को लोग नाबीना यानी अंधा समझते हैं और वो ‘ख्‍़वाबों के पुलंदे सिर पर रखकर मुंह बिसूरे घर लौटता है’, और वो फिर रात भर आवाज़ लगाता रहता है ख्‍वाब ले लो ख्‍वाब, पर कोई उसकी सदा नहीं सुनता। दरअसल नून मीम राशिद जिस आम आदमी के तौर पर कबाड़ी को स्‍वप्‍न बांटने वाला कह रहे हैं, उसे उर्दू अदब में कभी दाखिला ही नहीं मिला। वो आम आदमी है, जिसके पास ख्‍वाबों की ताबीर है, उसे पता है ख्‍वाब शहर के गोशों में कहां गुम हैं, भले ही वो ‘पा शिकस्‍ता सर बुरीदा’ ही क्‍यों ना हो, उसके पास दिल की भट्टी में तपाकर ख्‍वाबों को चमकाने का हुनर और हौसला है। जिस दुनिया में ख्‍वाब को हकीकत में तब्‍दील करने के लिए किसी ईश्‍वरीय चमत्‍कार या सियासी लीडर की जरूरत महसूस होती है वहां नून मीम राशिद एक आम इंसान को उसके बरक्‍स खड़ा करते हैं। इसीलिए उनकी शायरी उर्दू की सच्‍ची प्रगतिशील शायरी है।
उस दौर में जब पाकिस्‍तान के उर्दू अदीब अपनी अपनी जड़ों की तलाश करते हुए मध्‍यपूर्व के फारसी साहित्‍य में अपना अतीत खोजने और खालिस पाकिस्‍तानी साहित्‍य की एक हद तक मुस्लिम परंपरा के निर्माण में जुटे थे और यह साबित करने में लगे थे कि कैसे पाकिस्‍तानी साहित्‍य का अपना इतिहास बनाया जाए, नून मीम राशिद ने ‘ज़दीद फा़रसी शायरी’ जैसी ऐतिहासिक किताब लिखी, जिसमें ईरान के पचास आधुनिक फारसी कवियों की कविताओं का खुद के द्वारा किया गया अनुवाद था। इस किताब का आमुख उर्दू के महान शायर अहमद नदीम कासमी ने लिखा था। इसमें सबसे महत्‍वपूर्ण है नून मीम राशिद की 50 पेज की भूमिका, जो बताती है कि जिस फारसी में पाकिस्‍तानी अदीब अपनी परंपरा की खोज कर रहे हैं, वो खुद ही कितनी आगे निकल गई है और इसलिए उसमें अपनी परंपरा खोजने के बजाय पाकिस्‍तानी अदीबों को आधुनिकता की ओर ध्‍यान देना चाहिए, जमाने का तकाजा यही कहता है। ईरान में रहते हुए लिखी इस किताब का 1987 में प्रकाशन हुआ, जिसे मज्लिस ए तरक्‍की ए अदब, लाहौर ने प्रकाशित किया। मरणोपरांत उनके लेख आदि गद्य का संकलन ‘मकालाते राशिद’ प्रकाशित हुआ। उनकी शायरी की अन्‍य किताबों में ‘ईरान में अजनबी’, ‘ला मुसवी इंसान’ और ‘गुमां का मुम्किन’ उनके जीवन काल में प्रकाशित हुई।
नून मीम राशिद के विचार इस कदर क्रांतिकारी थे कि वो अपनी वसीयत में लिख गए थे कि मरने के बाद उन्‍हें दफनाया ना जाए बल्कि उनकी देह का दाह संस्‍कार किया जाए। अनकी इच्‍छा के अनुसार लंदन में उनका अंतिम संस्‍कार किया गया। उनके भीतर का शायर अपने वतन की गुलामी के लिए जिम्‍मेदार कौम से किस तरह बदला लेता है, उसका अंदाज उनकी ‘इंतेकाम’ नज्‍़म से लिया जा सकता है, जिसमें उनके गुस्‍से का काव्‍यात्‍मक रूप भी देख सकते हैं-
उसका चेहरा, उसके ख़द ओ ख़ाल याद आते नहीं
इक शबिस्‍तां याद है     
इक बरहना जिस्‍म आतिशदान के पास
फर्श पर क़ालीन, क़ालीनों पर सजे
धातु और पत्‍थर के बुत
गोशा ए दीवार में हंसते हुए !
और आतिशदान में अंगारों का शोर
उन बुतों की बेहिसी पर ख़श्‍मगीन
उजली उजली ऊंची दीवारों पे अक्‍स
उन फिरंगी हाकिमों की यादगार
जिनकी तलवारों ने रखा था यहां
संग-ए-बुनियाद-ए-फिरंग !
उसका चेहरा, उसके खद ओ खाल याद आते नहीं
इक बरहना जिस्‍म अब तक याद है
अजनबी औरत का जिस्‍म,
मेरे होंठों ने लिया था रात भर
जिससे अरबाब-ए-वतन की बेबसी का इंतेकाम
वो बरहना जिस्‍म अब तक याद है !
 
      

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7 comments

  1. shaayar ke baare men jaankar behad achcha laga . premchad ji badhayi ke paatra hain .

  2. नून.मीम.राशिद को सलाम करते हुए ,प्रभात रंजन जी इस परिचय के लिए आपका धन्यवाद !

  3. ek nai shakhsiyat se taruff karvane ka shukriya. maine noon meem ko pahle nahi padha tha. shukriya

  4. informative lekh .

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