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देहयात्रा ही बन गई गेहयात्रा

प्रेमचंद गाँधी मूलतः कवि हैं. एक कविता संग्रह ‘इस सिंफनी में’ और एक निबंध संग्रह ‘संस्‍कृति का समकाल’ प्रकाशित। समसामयिक और कला, संस्‍कृति के सवालों पर निरंतर लेखन। कई नियमित स्‍तंभ लिखे। सभी पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित। कविता के लिए लक्ष्‍मण प्रसाद मण्‍डलोई और राजेंद्र बोहरा सम्‍मान। अनुवाद, सिनेमा और सभी कलाओं में गहरी रूचि। विभिन्‍न सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी। कुछ नाटक भी लिखे। टीवी और सिनेमा के लिए भी काम किया। दो बार पाकिस्‍तान की सांस्‍कृतिक यात्रा।


देह विमर्श
एक
परिचय सिर्फ इतना कि नाम-पता मालूम
मिलना शायद ही कभी हुआ
बात करना तो दूर का सपना
फिर भी बंध जाते दो प्राणी
एक पवित्र बंधन में
आनंद-उत्‍साह और ठिठोली भरे
कुछ रस्‍मी खेल-तमाशे
थोड़ी-थोड़ी खोलते
अपरिचय की गांठ
अंगुलियों के पोर
दूध भरे बर्तन में
जल्‍दी-जल्‍दी खोजते
कोई सिक्‍का या अंगूठी
हल्‍के-फुल्‍के स्‍पर्श
और मस्‍ती भरी चुहल से बनता एक पुल
जिस पर टहलने निकल पड़ते दो प्राणी
भय और आशंकाओं के साथ
एक लंबी यात्रा पर
गेह बसाने के लिए
मिली थी एक देह
ऐसा बंधा उससे नेह कि
देहयात्रा ही बन गई गेहयात्रा।

दो
कैसे तो कांपते थे हमारे अंग-प्रत्‍यंग
शुरु-शुरु में
एक दूसरे से छू जाने पर
एक बिजली-सी दौड़ जाती थी
जैसे आकाश से धरती के ओर-छोर तक
उन स्‍पर्शों का आदी हुआ
पहले यह शरीर
फिर इस देह की समूची चेतना
हम बेफिक्र हुए
एक दूसरे के आवागमन से
किंचित पराई देह भी
धीरे-धीरे लगने लगी
बिल्‍कुल अपनी जैसी
आंख फड़कना
खुजली चलना
और ऐसे ही ना जाने कितने संकेत
समझने लगी एक देह
पराई देह को लेकर।

 

तीन
नहीं उस देह में बसे प्राण से
कभी नहीं रहा कोई संबंध कोई नाता
फिर भी हमने गुजार दी
तमाम उम्र उसी के साथ
गोया दो दरख्‍त हों जंगल में
जिन्‍हें कुदरत ने उगा दिया हो साथ-साथ
और इतने पास कि
दूर होना सोचा भी ना जा सके।
फर्क
फर्क आंख का नहीं
फकत देखने का है
मछली की आंख से देखो
सारी दुनिया पानीदार है।

रंगों की कविता
इतना तो हरा कि
एक कैनवस भरा
नीली शस्‍य-श्‍यामला धरती जैसा
ठिठक जाती है नजर
रंगों के पारभासी संसार को देखते हुए
यह सफेद में से निकलता हुआ श्‍यामल है कि
श्‍याम से नमूदार होता उजला सफेद
जैसे जीवन में प्रेम
यह कच्‍चा हरा नई कोंपल-सा
फिर धीरे-धीरे पकता ठोस हरा-भरा
यह आदिम हरा है काई-सा
इस हरियल सतह के
कोमल खुरदुरेपन को छूकर देखो
वनस्‍पति की शिराओं-धमनियों में बहता
एक विरल-तरल संसार है यहां।

पक्षीगान
भोर में सुनता हूं
सांझ की गोधूलि बेला में सुनता हूं
परिंदों का संगीतमय गुंजनगान
सुबह उनकी आवाज में
नहीं होती प्रार्थना जैसी कोई लय
लगता है जैसे समवेत स्‍वर में गा रहे हों
चलो चलो काम पर चलो
संध्‍या समय उनके कलरव में
नहीं होता दिन भर का रोना-धोना
न आने वाले कल की चिंता
सूरज के डूबने से उगने तक
इतने मौन रहते हैं परिंदे
जैसे सूरज को जगाने और सुलाने का
जिम्‍मा उन्‍हीं के पास है।

 

सच और झूठ
सत की करणी
झूठ का हथौड़ा
चलते साथ थोड़ा-थोड़ा
झूठ की धमक से
हिलती सत की काया
डगमगाकर गिरती
कर्मों के मसाले में
झूठ का वेगवान अंधड़
तहस-नहस कर देता
सारे संतुलनों को
और कहीं सत्‍य पर प्रहार करते
झूठ का हथौड़ा जा गिरता
अनंत अंधकार की देग में
सत की करणी
फिर भी टिकी रहती
एक कारीगर के इंतजार में।
जामुन को देखकर
जामुन को देख खयाल आता है
जामुनी रंग से लबालब लोगों का
क्‍या उन्‍होंने कभी सोचा होगा
कितना जामुनी है उनका रंग
क्‍या जामुन को भी खयाल आता है
अपने जैसे रंग वाले शख्‍स को देखकर कि
अरे यह तो ठीक मेरे जैसा…
जामुन जैसा खास तिक्‍त स्‍वाद
और कहां है सृष्टि में
मेरे जेहन में कौंध जाते हैं
वो खूब गहरे गुलाबी होंठ
और याद आता है उनका जामुनी होना।
वोट
शुरुआती सालों में
मुझे लगता रहा कि
मेरे पास यही
सबसे शक्तिशाली चीज है
मैं चाहूं तो बदल सकता हूं
इस वोट से देश का भविष्‍य
धीरे-धीरे कागज के इस टुकड़े की
कीमत घटने लगी
जैसे घटती है करेंसी नोट की
और फिर मेरे लिए वोट रह गया
महज रद्दी कागज का पुरजा
बाद के बरसों में वह
हल्‍की लंबी बीप में बदलता चला गया
जैसे मैं इस महान गणतंत्र का
साधारण नागरिक
टेक्‍नोलोजी में चीख रहा हूं
ओह मैंने क्‍या किया
अपनी पूरी ताकत लगाकर चीखा भी तो
वह महज बीप निकली
आह जैसे
लोकतंत्र की चीख निकली।

 
      

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13 comments

  1. पहली, दूसरी और आखिरी कविता बेहतर…शुक्रिया…

  2. Prem Chand Gandhi vo saahityakar hai jinhe bhai kahta hu to mujhe khud sahitya bodh ho jata hai. deh se jo bat shuru hui vo parichay parinay, se hokar yatharth ki yatraa karte hue aankh ke pani aur jeevan ke ujaas tak le jaati hai. pakshiyo ki nishfikra jindgi, sach aur khooth kee vivehana karte hue jaamuni rang pe phida hokar vote ki taakat par prashn chinha lagaati hai. Prem bhai ko padhna kavita ke sanskaaro se saakshaat hone jaisa hai

  3. प्रेम भाई मेरे लिए उन चुनिंदा लोगों में से एक हैं जिन्होंने मुझे कविता की बुनियादी समझ दी है, कुछ संस्कार दिए हैं, ये कविताएं भी मेरी समझ और संस्कारों को व्यापक कर रही हैं.. आभार जानकीपुल!

  4. …….यह सफ़ेद से निकलता हुआ श्यामल है कि…….श्याम से नमूदार होता उजाला सफ़ेद…….जैसे जीवन में प्रेम….. …..बधाई….सुंदर कवितायें…..जैसे पानीदार हो जग…..सारा का सारा…..अद्भुत है……कि मौन रहते हैं परिंदे जैसे सूरज को जगाने …….और सुलाने का ज़िम्मा …..उन्हीं के पास है…….seema vijay

  5. प्रेम भाई की कविताएं अपनी सहजता में बहुत कुछ कहती हुई गंभीर कविताए हैं.. जहां प्रेम से लेकर वोट तक लगभग एक पूरी दुनिया समाहित है. कविता में जिस सहजता और इमानदारी का मैं कायल लहा हूं, लह प्रेम भाई की कविताओं में दिखता है.. अतएव उनको मेरी विशेष बधाईयां….

  6. bahut achchi lagi kavitayen ek hi jhalak main….badhai

  7. apane samay or samaj ki gati ko jivantata ke sath vyakta karati hui kavitayen….. aapaki kavitaon main badalne ki kriya badi rochak hai
    देहयात्रा ka गेहयात्रा main , cheekh ka beep main , गहरे गुलाबी होंठ का जामुनी होना… फर्क आंख का नहीं
    फकत देखने का है bahut gahari bat hai……kul milakar achhi kavitayen hain….uljhav nahni hai.

  8. देह-विमर्श से आरंभ हुई काव्‍यमय गेहयात्रा में प्रेमचंद गांधी ने जीवन के कई चटख रंग और सरोकार समाहित करने का संजीदा प्रयास किया है। मानवीय रिश्‍तों की इस अन्‍तरंग बुनावट किस तरह इन्‍सान अपने मन और जीवन की सार्थकता खोज लेता है, ये कविताएं उसकी बेबाक सच्‍चाई बयान करती हैं। प्रकृति की अपनी लीला और सम-सामयिक जीवन यथार्थ पर भी प्रेमजी ने अच्‍छी कविताएं रची हैं, इन कविताओं के माध्‍यम से वे अपने जीवन सरोकारों को निरन्‍तर विस्‍तार देने का प्रयत्‍न करते दीखते हैं, यही बात उनकी कविता को प्रासंगिक और प्रभावी बनाती है।

  9. फर्क
    फर्क आंख का नहीं
    फकत देखने का है
    मछली की आंख से देखो
    सारी दुनिया पानीदार है।

    क्या बात है प्रेमचंद भाई…इन कविताओं के सहारे आपने स्त्री-पुरुष संबंधों का एक परिपक्व खाका खींचा है. किसी दलदल में गिरे बगैर…किसी विमर्श के शोर से दूर रहकर…बधाई.

  10. बहुत प्रभावी कवितायेँ.
    मछली की आंख से देखो
    सारी दुनिया पानीदार है।
    वाह.
    कविता में देह होकर भी देहातीत कविताओं के लिए बधाई.

  11. फर्क आंख का नहीं
    फकत देखने का है
    मछली की आंख से देखो
    सारी दुनिया पानीदार है। अचछी कविताएँ.मन को विस्तार देतीं…स्त्री-पुरुष के संबंधों को देखतीं कविताएँ…

  12. ''गोया दो दरख्‍त हों जंगल में
    जिन्‍हें कुदरत ने उगा दिया हो साथ-साथ
    और इतने पास कि
    दूर होना सोचा भी ना जा सके''
    ……………………..!!!

  13. नहीं उस देह में बसे प्राण से
    कभी नहीं रहा कोई संबंध कोई नाता
    फिर भी हमने गुजार दी
    तमाम उम्र उसी के साथ
    गोया दो दरख्‍त हों जंगल में
    जिन्‍हें कुदरत ने उगा दिया हो साथ-साथ
    और इतने पास कि
    दूर होना सोचा भी ना जा सके।

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