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अनुवाद, ‘एकांत’ और किस्सा इमामुद्दीन

प्रसिद्ध कवि, प्रतिलिपि.इन के संपादक गिरिराज किराड़ू का एक दुर्लभ गद्य, जिसमें संस्मरण के बहाने उन्होंने बहुत सारे ऐसे प्रसंग उठाये हैं जिसमें साहित्य है, शहरों-कस्बों का परिवेश है उनमें भटकता जीवन है- जानकी पुल.



प्रताप नगर, जयपुर 
हनीफ़ कुरैशी का संसार एकदम अलग है. उसका लेखन भी. मैं उस अजूबा दिन को याद करता हूँ जब मैंने इस किताब का अनुवाद करने की हाँ की थी. वह एक अच्छा, खूबसूरत दिन था. मैं उस दिन के खिलाफ़ कुछ भी ढूँढ के नहीं ला सकता. उसके खिलाफ झूठ गढ़ना तो एकदम मामूली किस्म की टुच्चई होगी. अजूबा दिन नहीं, किताब थी. जिस किताब से आप डूबकर इश्क़ न कर पायें, जो आपको एकदम दीवाना न करे उसका अनुवाद दूसरों को करने देना चाहिए – खुद के लिए किसी दूसरी किताब का इंतज़ार करना चाहिए. 
अपनी निजी पसंदनापसंद को किनारे कर सकूं तो अच्छी किताब है, शायदजरूरीभी. पर यही सबसे मुश्किल काम है. अपनी पसंद-नापसंद को किनारे करना. मैं नज़र घुमाकर रविकांतजी की ‘घरगिरस्ती’ की तरफ अपना ध्यान बंटाता हूँ. इस अकेले रहने वाले आदमी के पास सामान कम है, किताबें ज़्यादा. मैं कई लेखकों को जानता हूँ जो किताब खरीदते ही नहीं हैं, रविकांत लेखक नहीं हैं और उनके पास किताबों के अलावा कुछ और मानो है ही नहीं. बाकी सामान जहाँ इंसानी जरूरतभर का है, किताबें किसी छोटी लाईब्रेरी की जरूरतों से मुकाबिला करती हुई हैं.
तो यहाँ इस दरवेश के घर अनुवाद होगा कि नहीं? अनुवाद से ज्यादा मेरी उनके मेहमानों के हैरतअंगेज़ किस्सों में दिलचस्पी होने लगी है. हर शाम उनके यहाँ लोग आते हैं, मिलकर खाना बनाते-खाते हैं, कुछ लोग पीते हैं. बिना शोर शराबे के, जिंदगी की सबसे पेचीदा मुश्किलों पर खूब तनाव, खूब बहस. चुपचाप.
शाम के किसी मायावी मरहले पर लगता है पंचायत लगी है. मैं अकेला आउटसाईडर हूँ. मुझे यहाँ नहीं होना चाहिये. अनुवाद मुझे गायब रखने में थोड़ी बहुत मदद करता है. हनीफ़ कुरैशी के उपन्यास की कहानी यूँ शुरू होती है कि एक लम्बी शादी के बाद पुरूष की आख़िरी रात है घर में, उसे अपने को तैयार करना है चीज़ों को छोड़ने के लिये, अपनी पत्नी से यह कहने के लिये कि वह जा रहा है. एकदम धीमी अंतहीन शाम की डिटेल्स और लेखक-पुरुष की भटकती हुई कैफ़ियतों से उकताने लगता हूँ. पाँचवीं शाम पता चलता है यह ‘मेरा’ रिस्पाँस नहीं, किताब का प्रभाव है – किताब अपने पाठक को जानबूझकर इस गैरमामूल उकताहट से गुजारना चाहती है. अचानक मुझ पर उस फरिश्ताई शख़्स को फोन करके शुक्रिया करने का ख़याल तारी होता है जिसने यह किताब मुझसे अनुवाद करवाने का तसव्वुर किया था.
पर जिस फोन ने दरवेश रविकांत के डेरे से मुझे निकाला वो किसी फरिश्ते का नहीं, ‘डेविल’ का था. चंद्रप्रकाश देवल! मेरी मातृभाषा में अकेला मित्र जिससे गुफ़्तगू होती है. अकेला कवि-मित्र जिसका दिल दुखाने का दिल करता है. जिसका दिल दुखा के उसे सज़्दा करने का दिल करता है.
डेविल की पुकार को अनसुना नहीं किया जा सकता.
जोधपुर
यह हमारा हनीमून-शहर है.
कुल छह दिन की छुट्टी मिली थी शादी के लिये. वे दिनभर काम करने और थोड़ा-सा पैसा घर लाने के दिन थे. मेहनत और थकान के दिन. अपमान और आवारागर्दी के दिन. अपमान और आवारागर्दी का आपसी रिश्ता उन्हीं दिनों पता चला था. जितना अपमान होता काम पे, उतनी ही आवारागर्दी शाम को. ये साथ रहने की शुरूआत के दिन थे. ये जिंदगी को दिन और रात के दो अलहदा शहरों में तक़्सीम करके सहने लायक बनाने के दिन थे. ‘दिन का जोधपुर’ अलग था, ‘रात का जोधपुर’ अलग. शाम आठ बजे हम सीमा पार करके दूसरे शहर में होते.
चार साल बाद अपने हनीमून-शहर में, अकेले. अनुवाद-कार्यशाला में. हनीफ़ कुरैशी के मुकाबले सत्यप्रकास जोसी, डेविल आत्मीय लगते हैं, लेकिन पहली-दूसरी पढ़त में ही. भीतर उतरने पर वे मेरे लिये हनीफ़ से कहीं ज़्यादा अजनबी हैं.
अपनी मातृभाषा से मेरी अजनबियत जानलेवा है. मातृभाषा में ‘कपूत’, हिन्दी में शरणार्थी, और तीसरी कोई ज़बान हमें आती नहीं….
थरंगमबाड़ी/ट्रांकेबार
हिन्दी लेखक होना, बॉय डिफॉल्ट, एक आध्यात्मिक काम है.
“मेटीरियल गेन” के आसार इतने कम हैं कि आपके पास रूहानी होने के अलावा विकल्प ही क्या है. हिन्दी के सबसे बड़े प्रकाशक की पत्रिका में दस कविताएँ छपने पर डेढ़ सौ रूपये का चेक मिले बहुत अरसा नहीं हुआ. 15 रूपये प्रति कविता की रफ़्तार से रूहानी और सिनिकल दोनों होने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगता. ऐसे में 14 दिन सिर्फ़ लिखने के लिये बुलाया जाना, आने-जाने रहने-खाने के ख़र्चे की फ़िक्र किये बगैर, एकबारगी अविश्वसनीय ही नहीं, अश्लील भी लगता है. किसी जमाने में डेनिश लोगों ने पहले यहाँ व्यापार करने और बाद में, जैसा होता था और होता है, हुकूमत करने की कोशिश की थी. पर उसी दौरान यहाँ भारत की पहली प्रिंटिंग प्रेस भी लगाई थी. उस अहम घटना की तीन सौवीं सालगिरह को सेलिब्रेट करने चार डेनिश और पाँच हिन्दुस्तानी लेखक एक साथ थे थरंगमबाड़ी में जिसे अब ज्यादातर स्थानीय लोग भी उसके अंग्रेज़ी नाम ट्रांकेबार से पुकारने लगे हैं. इस जगह कोलोनियल हैंगओवर हरकदम महसूस होता है. डेनिश स्थापत्य वाली ‘किंग्स स्ट्रीट’ से मछुआरों की बस्ती एक-डेढ़ किलोमीटर से ज़्यादा दूर नहीं; वो टूरिस्ट मेकअप के पीछे का मूल’ संसार है. सूनामी के कहर की छाप पहले से गरीब रहे इस इलाके के लोगों और घरों पर बहुत गहरी है. डेनिश उपन्यासकार बेन क्यू. होम को जब एक स्थानीय स्कूल ने अपने ‘स्वाधीनता दिवस समारोह’ का मुख्य अतिथि बना लिया तो कोलोनियल पेचीदगियाँ एक अजीब विडंबना में भी बदल गईं. झण्डारोहण करते हुए बेन का वीडियों औपनिवेशिक स्मृतियों के विमर्शकारों के लिये दिलचस्प अध्ययन सामग्री हो सकती है.
यहाँ अनुवाद सीधे-सीधे नहीं था लेकिन मेरे ही सुझाव पर हर शाम होने वाली रीडींग्स में हम सब एक दूसरे के काम को केवल अनुवाद में ही समझ सकते थे. अनुवाद, बावज़ूद तमाम गलतबयानियों और जुल्म के जो उसके मार्फ़त और खुद उसके द्वारा औपनिवेशिक जमाने में किये गये, मेरे लिये इस दुनिया के होने का इश्तेआरा बनता जा रहा है. और इश्तेहार भी.
रोज शाम की रीडींग्स के अलावा एक और अनुष्ठान मेरे सुझाव पर शुरू हुआ. द मिडनाईट लव स्टोरीज क्लब. दो-तीन मित्रों को छोड़कर सभी उसमें शामिल होते गये. हम सब को हैरानी होती थी कि हम इतना बोलना चाहते थे अपनी प्रेम कहानियों के बारे में.
हर महफिल में हमें अपनी संगत मिल ही जाती है. रूबेन ट्रांकेबार में मेरी संगत थे. सत्तावन बरस के इस चिली मूल के लेखक को डेनमार्क आये तीस बरस हो गये लेकिन अब भी उसे इमिग्रेंट राईटर ही माना जाता है और उससे अपेक्षा की जाती है वह टिपिकल इमीग्रेंट किस्म का लिखे, बोले. जबकि वह अपने देश से ज्यादा डेनमार्क के करीब है. वे चाहते हैं मैं शिकायती लेखन करूं, इमिग्रेंट होना मेरे लिये दुख का नहीं उम्मीद का बायस था. मुझे डेनमार्क ने स्वीकारा था एक राजनैतिक शरणार्थी के रूप में, मुझे यहाँ हर चीज़ अपने देश से ज्यादा मिली.
गुजराती मूल के तमिल लेखक दिलीप कुमार और रूबेन के जिंदगीनामों में कई चीज़ें एक-जैसी हैं. दोनों ने हर तरह का काम किया है. रूबेन ने जहाज पर लदाई का काम किया है, दिलीप कपड़ों की दुकान में काम करते थे. दोनों की औपचारिक शिक्षा मामूली है और दोनों को इसका अफ़सोस नहीं. दिलीप तनिक शर्माते हुए कहते हैं, “एक बार हुआ था जब मुझे बर्कले बुलाया गया और वे मुझसे इतने प्रभावित थे कि मुझे वहाँ अपने तमिल प्रोग्राम के लिये रखना चाहते थे. पर मेरे पास डिग्री नहीं थी.”  
दोनों अपने ‘देश’ से दूर रहे लेकिन दोनों ने परदेस को ज्यादा अपना पाया. पर दोनों के बीच समानताएँ यहीं ख़त्म! रूबेन का स्त्रियों से संबंध का एक लंबा सिलसिला है, दिलीप की शादी इश्तेहार के जरिये हुई थी और तब से आज तक कायम है. रूबेन के अतीत में ड्रग, बॉक्सिंग, फुटबाल, शतरंज के कई लेयर्स हैं. मैं अपनी आख़िरी किताब स्पेनिश में लिखना चाहता हूँ अपने किशोर दिनों के बारे में जब हम बावले थे और जीने के तौरतरीकों को लेकर हमने सुंदर, खतरनाक, दीवाने, मौलिक प्रयोग किये थे.
एक रात रूबेन मुझे और बेन क्यू. होम को अपना नया, अप्रकाशित उपन्यास लगभग पूरा सुनाता है एक त्वरित अनुवाद में.  रात के किसी मायावी मरहले पर हम एक दूसरे को ऐसे देखते हैं अब हम जानते हैं हमें बाकी उम्र दोस्त रहना है .
चेन्नई
लगातार सात दिन इंटरनेट और टीवी से दूर!  हम हिन्दू पढ़कर कुछ अंदाजा लगाते थे दिल्ली में क्या चल रहा है. अन्ना को टीवी पर देखने की नयी बन रही आदत में कैसे मज़ा आने लगा था यह लौटते वक़्त चेन्नई एयरपोर्ट पर टीवी देखते हुए पता चला. चेन्नई के रास्ते में एक जगह सोनिया और मनमोहन का विकराल, संयुक्त कट-आऊट देखकर अर्शिया (सत्तार) से कहा अब लग रहा है उसी जानेपहचाने देश में हैं. जितना सोचा था उससे ज़्यादा तेजी से 14 दिन बीत गये. पहले सप्ताह के उत्साह के बाद दूसरे में मैं वहाँ अनमना हो गया था. जितना पैसा ऐसे आयोजन में लगा है उतने में कितनी किताबें छप सकती हैं?
मैंने वहाँ कुछ लिखा, कुछ काम भी किया लेकिन कुछ मिस कर रहा था. रोज़मर्रा के झंझटों और सम्पादन-अनुवाद-प्रकाशन की व्यस्तताओं के बीच लिखने की आदत है. कभी लगा नहीं कि ‘लिखने के लिये एकांत’ आदि की जरूरत होती है, ऐसी चीज़ों की हंसी ही तो उड़ाते आये आजतक.
थरंगमबाड़ी की सीखः मुझे ‘लिखने के लिये एकांत’  जैसी साहित्य की कुछ सबसे पुरानी और प्यारी स्नॉबरीज़ का सम्मान करना सीखना होगा. और शायद कुछ लोगों को सचमुच एकांत की जरूरत होती होगी, ऐसा मानना भी.
कोटा
कोटा में मेरी एक कहानी के किरदार रहते थे, मेरे एक करीबी रिश्तेदार का बहुत पीड़ादायक समय बीता है कोटा में, न जाने कितने परिचित लड़के-लड़कियाँ कोटा गये इंजीनियर बनने, प्यारे कवि अम्बिका दत्त रहते हैं कोटा में, चम्बल भी बहती है कोटा में पर इस सितंबर से पहले मैं कभी नहीं गया था कोटा.
कोटा में लिटरेचर फेस्टीवल! सुनने में काफ़ी अजीब लगा. फिर पता चला नमिता गोखले इनवाल्व हैं तो बात साफ़ हुई. पर आयोजन ओपन यूनिवर्सिटी का था और लगातार बारिश के बावज़ूद बहुत लोग शामिल हुए. फेस्टीवल और वर्कशॉप का मिला-जुला ढाँचा था. ख़राब सड़कों के कारण कोटा की यात्रा  लम्बी, थकाऊ थी लेकिन असहनीय होती अगर हेतु भारद्वाज न होते. वे साहित्य की दुनिया के मंजे हुए, पुराने, परिपक्व योद्धा हैं लेकिन बेहद ख़ुशमिज़ाज हमसफ़र भी हैं. और ख़ुद पर हंसने का माद्दा बहुत है उनमें. बोले हम तो इमामुद्दीन हैं. यह मेरे इस सवाल का जवाब था कि क्या अब इस नयी कांग्रेसी हुकूमत में भी उनके राजस्थान साहित्य अकादमी का सदर बनने का कोई चांस नहीं है? नमाज़ के बाद गैबी आवाज़ हुई इमामुद्दीन तेरी नमाज़ कुबूल नहीं हुई. बाकी लोगो ने आँखें मूंदे इमामुद्दीन से कहा भई तेरी नमाज़ तो कुबूल नहीं हुई. इमामुद्दीन ने हंसकर कहा लेकिन इतना तो पता चला खुदा मेरा नाम जानता है!  तो भई अशोक गहलोत मेरा नाम जानते हैं इतना एक कार्यक्रम में मुझे भी पता चला. बाकी अपन इमामुद्दीन हैं, नमाज़ थोड़े कुबूल होगी!
आमीन!

रविकांतजी और पुरूषोत्तम अग्रवाल के लिये 
 
      

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12 comments

  1. रोचक और बांध कर रखने वाला गद्य. विरल अनुभव, इससे गुज़रना. बधाई.

  2. लाजवाब

  3. जिस किताब से आप डूबकर इश्क़ न कर पायें, जो आपको एकदम दीवाना न करे उसका अनुवाद दूसरों को करने देना चाहिए – खुद के लिए किसी दूसरी किताब का इंतज़ार करना चाहिए.

    पर फ़र्क़ इससे भी पड़ता है कि जिस किताब से आपको इश्क़ हो जाए, क्या आपमें उसका अनुवाद करने की योग्यता है भी क्या नहीं। मुझमें तो नहीं होती।

    और अगर वो किताब आपकी भाषा में ही हो तो फिर अनुवाद करने की ज़रूरत ही क्या है? ज़रूरत शायद हो सकती है, अगर उस किताब को आप किसी दूसरे ज़ुबान वाले और बड़ी तादाद वाले लोगों के सामने लाना चाहते हों। पर ज़रा सोचें, ऐसा काम तो उन लोगों के ही ज़िम्मे है, अपने नहीं।

  4. shukriya sab mitron ka.

  5. achha laga… aatmiy aur alag.

  6. गिरिराज के गद्य में एक अलग तरह का स्वाद है जो जीभ पर चिपका रह जाता है.

  7. गिरिराज,

    तमाम भौतिक और वैचारिक दूरियों से हटकर यूं कभी तुम्हारा ’पीछे छूटा गद्य’ पढ़ते हुए तुम बहुत-बहुत क़रीब नज़र आते हो. और कभी पढ़ते हुए लगता है कि क्यों मैं अपना ’घर’ छोड़े यहां बेमुरव्वत राजधानी में पड़ा हूँ. बेकार ही सारा ताम-झाम.. पता नहीं पीछे ’छूटा’ घर बचा कि नहीं, लेकिन तुम्हारे गद्य में रह-रहकर उससे मुलाकात हो जाती है.

  8. बहुत अच्छे! भोगे हुए यथार्थ का असरदार चित्रण। अच्छा होता अगर संपादित न करके थोड़ा और खुलकर अच्छी तरह उन बातों को भी सामने लाया जाता तो कुछ और छुपे सच सामने आ सकते थे

  9. मैंने सोचा गिरिराजजी हिंदी में कोई अनुवाद कर रहे हैं तो कुछ ख़ास ही होगा। वर्ना अंग्रेज़ी "में" अनुवाद करने के काम को मैं मुश्किल और ग़लत मानता हूँ।

    hanif kureishi site:www.harpercollins.co.in

    मैंने गूगल पर ये भरा तो कुछ नहीं मिला। क्या ये अनुवाद अब तक छपकर आया ही नहीं है? गिरिराजजी के ब्लॉग वग़ैरा पर भी कोई ज़िक्र नहीं है। इसकी ये वाली समीक्षा पढ़ी थी। किसी दुकान पर मुझे फेबर-फेबर से छपी असली वाली किताब दिख गई, जुलाई की बात है, मैंने वही ले ली।

    अगर बात यह है कि किताब छप चुकी है, और हार्पर वाले अपने वेबसाइट पर उसका कोई नाम तक नहीं दे रहे, तो मेरे ख़याल से, उसे प्रतिलिपि प्रकाशन से ही छपना चाहिए था।

  10. Wakai durlabh..!

  11. ऐसी लिखावटों के लिए मैं 'अजीब संजोग' जैसे शब्द का इस्तेमाल करना चाहूंगा। आज जाते हैं, ठहरते हैं कहीं, यादों को मन में जमा करते हैं और कतरनों में एक प्लेटनुमा लेख तैयार कर देते हैं। यह प्लेट हर किसी के मन में तुरंत जगह बना लेती है। और मन वाह-वाह करने लगता है। शुक्रिया जानकीपुल, बेहतरीन कतरनों को सजाकर यहां रखने के लिए। दिन सुंदर कर दिया आपने।

  12. कभी लगा नहीं कि ‘लिखने के लिये एकांत’ आदि की जरूरत होती है, ऐसी चीज़ों की हंसी ही तो उड़ाते आये आजतक.

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