आज पेश है युवा कवि उस्मान ख़ान की कविताएँ। उस्मान को आप कल (22 सितम्बर 2011) इंडिया हैबिटैट सेंटर, नई दिल्ली में आयोजित ‘कवि के साथ’ कार्यक्रम में भी कविता पाठ करते हुए सुन सकते हैं। जानकीपुल पर उस्मान की कविताएँ पहली बार प्रकाशित करते हुए बेहद ख़ुशी हो रही है – त्रिपुरारि कुमार शर्मा
प्रतिबिम्ब
मेरा नाम पुकारा जाता है
अदालतों में
और मेरे हिस्से के दिन-रात
भेज दिये जाते हैं यातना-षीविरों की तरफ
मेरी सारी सुनवाइयाँ टलती जा रही हैं
मैं कभी अस्पताल में होता हूँ
कभी मेरी साइकिल पंचर हो जाती है
कभी सब्जी बनने में देर हो जाती है
मुझपे जुर्माने ठोंक दिये जाते हैं
और मेरी अनुपस्थिति में, मेरे नाम पर
पेन की निब तोड़ दी जाती है
मैं प्यार करता हूँ
और नफ़रत…
और मेजों पर जमी धूल साफ करता हूँ
और रोता हूँ
मैं मिलने का वादा करते हुए बिछड़ा हूँ
और गुलाब की पत्तियाँ सहेजे हुए हूँ
और नफ़रत…
और मेजों पर जमी धूल साफ करता हूँ
और रोता हूँ
मैं मिलने का वादा करते हुए बिछड़ा हूँ
और गुलाब की पत्तियाँ सहेजे हुए हूँ
छतों पर घुमती
आईना भर चैंध पकड़ती हुई
आँखों से
पतंग नहीं संभलती
और जानता हूँ
जि़ंदगी माँजे का भरोसा भर है।
आईना भर चैंध पकड़ती हुई
आँखों से
पतंग नहीं संभलती
और जानता हूँ
जि़ंदगी माँजे का भरोसा भर है।
मेरे पिता पिछले साल खून थुकते थे
उनकी लाष मैंने जंगल में फेंक दी है
तीन महीने बाद भी
कोई उसे खाने को तैयार नहीं है
कोई
नहीं,
मैं बेहद परेषान हूँ
घर और जंगल के बीच
उनकी लाष मैंने जंगल में फेंक दी है
तीन महीने बाद भी
कोई उसे खाने को तैयार नहीं है
कोई
नहीं,
मैं बेहद परेषान हूँ
घर और जंगल के बीच
मरीज़ का नाम
चाहता हूँ
किसी शाम तुम्हें गले लगाकर खूब रोना
लेकिन मेरे सपनों में भी वो दिन नहीं ढलता
जिसके आखरी सिरे पर तुमसे गले मिलने की शाम रखी है
सुनता हूँ
कि एक नये कवि को भी तुमसे इश्क़ है
मैं उससे इश्क़ करने लगा हूँ
कि एक नये कवि को भी तुमसे इश्क़ है
मैं उससे इश्क़ करने लगा हूँ
मेरे सारे दुःस्वप्नों के बयान तुम्हारे पास हैं
और तुम्हारे सारे आत्मालाप मैंने टेप किए हैं
और तुम्हारे सारे आत्मालाप मैंने टेप किए हैं
मैं साइक्रेटिस्ट की तरफ देखता हूँ
वो तुम्हारी तरफ
और तुम मेरी तरफ
और हम तीनों भूल जाते हैं – मरीज़ का नाम!
वो तुम्हारी तरफ
और तुम मेरी तरफ
और हम तीनों भूल जाते हैं – मरीज़ का नाम!
जहाँ मेरी नींद महका करती
भीगी मस्जिद की मीनार पर
नीम की पत्तियों की परछाई ओढ़े बैठे
कबूतर दो
करते गुफ्तगू
और देवरे से उठती मंजीरों की ध्वनि में
डूबते-डूबते षाम डूब जाती
खुरदुरी आवाज़ों में लहराते भजनों के साथ
इमली की सबसे ऊँची षाख पर
उतर आता गोधूली बेला की आँत चोंच में दबाए गिद्ध एक
आँगन में एक चित्ती मार दी जाती पीट-पीटकर
आइस-पाइस की हुल्लड़ में चमकने लगते जुगनू
और गाँव को घेरे खड़े सन्नाटे पर
अँधेरा पुत जाता
एक चिमनी जलती
ढोरों के बँधने में
और दब जाती अँगारों तले बाटियाँ
चूल्हे की गर्माहट में बातों का रस घुलता रहता
घर में एक पुरानी तस्वीर फफुंदाती
और मैं याद नहीं कर पाता
उसमें डूबते आदमी से अपना रिश्ता
चिमनी की रोशनी के दायरे में
घूमते सियार और ऊँट और षेर कहानियों में
प्रेत-बला-भूत-वली-बाबा
झाँकते अँधेरे की सरहदों से
और कट जाती मीरादातार की नाड़की
और बिना नाड़की का बदन घोड़े पर बैठा दौड़ता देर तलक
आधी नीली आधी सफ़ेद दीवारों पर
खिलते काँच की चूडि़यों के फूलों के घेरे में
और एक बिडि़ ख़तम हो जाती
व धुँए की आखरी लट उजाले की सीमा पर खेलती
जहाँ रात भर पड़-पड़ा-पड़ गिरती बूँदे पतरों पर
जैसे कोई दौड़ता हो घोड़ा अथक
घूमते सियार और ऊँट और षेर कहानियों में
प्रेत-बला-भूत-वली-बाबा
झाँकते अँधेरे की सरहदों से
और कट जाती मीरादातार की नाड़की
और बिना नाड़की का बदन घोड़े पर बैठा दौड़ता देर तलक
आधी नीली आधी सफ़ेद दीवारों पर
खिलते काँच की चूडि़यों के फूलों के घेरे में
और एक बिडि़ ख़तम हो जाती
व धुँए की आखरी लट उजाले की सीमा पर खेलती
जहाँ रात भर पड़-पड़ा-पड़ गिरती बूँदे पतरों पर
जैसे कोई दौड़ता हो घोड़ा अथक
दूर काले ढेपों की दरारों में खो जाते
टूट-टूटकर गिरते ढेर सारे तारे
सुबह अलसायी आँखों में उलझी ओस
तारों-सी लगती
नानी की कहानी की रातरानी
नींद में देर तक महका करती
टूट-टूटकर गिरते ढेर सारे तारे
सुबह अलसायी आँखों में उलझी ओस
तारों-सी लगती
नानी की कहानी की रातरानी
नींद में देर तक महका करती
चिमनी कब बुझती
पता नहीं चलता कभी
जैसे नानी का जागना
चूल्हे का जलना
धुँए का तेज़-तेज़ भागना
और खो जाना
चाय पता चलती
और टोस
या मसली मक्का की रोटी कभी
और हमेशा पता चलता रहता होना नानी का
पता नहीं चलता कभी
जैसे नानी का जागना
चूल्हे का जलना
धुँए का तेज़-तेज़ भागना
और खो जाना
चाय पता चलती
और टोस
या मसली मक्का की रोटी कभी
और हमेशा पता चलता रहता होना नानी का
सबके बाद
सबके पहले की तरह
रह जाते
दो ठोस खुरदुरे हाथ
मेरे गाल पर थपकियों की कड़ी में
जहाँ मेरी नींद महका करती
सबके पहले की तरह
रह जाते
दो ठोस खुरदुरे हाथ
मेरे गाल पर थपकियों की कड़ी में
जहाँ मेरी नींद महका करती
नामली
मैं हरे जल पे तैरती बबूल की पत्तियों और पीले फूलों से पूछता हूँ
बीते वक़्त के साये कभी लौटते हैं यहाँ ?
और षांत जल में धुँधलाती बबूल की परछाईं
मेरी आँखों में देर तक ठहरी रहती है
अडोल…
मैं काँच के टूटे गिलास में भर गये गंदले पानी
और उसके पास सरकते कनखजूरे की चाल में
अपनी आँखों को उलझा देना चाहता हूँ।
क्षितिज से क्षितिज तक बबूल फैला देता है
अपनी काली खुरदुरी छाल
जिसमें मकोडे भटकते हैं परेशान
जैसे सपनों में
और रगों में
किसी नज़्म की टूटी कड़ी कोई।
और उसके पास सरकते कनखजूरे की चाल में
अपनी आँखों को उलझा देना चाहता हूँ।
क्षितिज से क्षितिज तक बबूल फैला देता है
अपनी काली खुरदुरी छाल
जिसमें मकोडे भटकते हैं परेशान
जैसे सपनों में
और रगों में
किसी नज़्म की टूटी कड़ी कोई।
कोई आता नहीं लौटकर
ना सड़क पर भागती काली छोटी छतरी,
ना कापी के पहले पन्ने पर बेढंगी लिखाई में लिखा अपना नाम,
ना छिले हुए घुटने
और फैल जाती है दृष्टि-सीमा में एक साँवली शून्यता
ऐसे में भीगी कोलतारी सड़क से घर लौटते हुए
षैवालों, केंचुओं और गिद्धों की स्मृतियाँ बहती हैं हवा में
ऐसे में सड़ी हुई पत्तियाँ और कुचली हुई निंबोलियाँ
हर डबरे में सितारे-सी निकल आती हैं
ऐसे में मेरी आँखों की तलई में छटपटाता है चाँद का पीला सन्नाटा
और रेंगते हैं उस पर और उसके चारों ओर ध्ूासर बादल
और ऐसे में मेरी साँसों में बैठा अकेला मैं
रातरानी की उदास महक से खीझ जाता हूँ।
और ऐसे में एक पनीला दर्द चारों ओर ठहर जाता है,
जिसमें मैं अकेला डूबता उबरता हूँ…
ना सड़क पर भागती काली छोटी छतरी,
ना कापी के पहले पन्ने पर बेढंगी लिखाई में लिखा अपना नाम,
ना छिले हुए घुटने
और फैल जाती है दृष्टि-सीमा में एक साँवली शून्यता
ऐसे में भीगी कोलतारी सड़क से घर लौटते हुए
षैवालों, केंचुओं और गिद्धों की स्मृतियाँ बहती हैं हवा में
ऐसे में सड़ी हुई पत्तियाँ और कुचली हुई निंबोलियाँ
हर डबरे में सितारे-सी निकल आती हैं
ऐसे में मेरी आँखों की तलई में छटपटाता है चाँद का पीला सन्नाटा
और रेंगते हैं उस पर और उसके चारों ओर ध्ूासर बादल
और ऐसे में मेरी साँसों में बैठा अकेला मैं
रातरानी की उदास महक से खीझ जाता हूँ।
और ऐसे में एक पनीला दर्द चारों ओर ठहर जाता है,
जिसमें मैं अकेला डूबता उबरता हूँ…
मिट्टी-सना एक केंचुआ
मुझसे, व्यतीत एक टूटी संगति
(जिससे चिपकी एक उदास षाम
मेरे सीने में भटकती रहती है
मेरी आत्मा से चिपटकर रोने लगती है, जब-तब)
एक हिन्दी कवि की साँसों की संगति
जवाब-तलब करती है
टटोलने पर उसकी मौन नब्ज़
मिलती हैं घर की उदास खिड़कियाँ
जो देखती हैं टूटती चीज़ें
एक-एक चीख़ पर
और मिट्टी-सना एक केंचुआ
धीरे-धीरे सड़क पार करता है
जेठ की धूप में…
आकर
किसी अनगढ़ लिखावट का घायल कबूतर
रौषनदान से टकराता है
और देर तक षीषा पीटती है उसकी छटपटाहट
किसी अनगढ़ लिखावट का घायल कबूतर
रौषनदान से टकराता है
और देर तक षीषा पीटती है उसकी छटपटाहट
मेरी नींद चैराहे पे पड़ी मिलती है
जहाँ एक बच्चे के चेहरे पर
स्याह गहरी चाकूधर इबारत एक
पढ़ने की कोशिश करती है देर तक
जहाँ एक बच्चे के चेहरे पर
स्याह गहरी चाकूधर इबारत एक
पढ़ने की कोशिश करती है देर तक
राख
और मिट्टी-सना एक केंचुआ
धीरे-धीरे सड़क पार करता है
जेठ की धूप में…
और मिट्टी-सना एक केंचुआ
धीरे-धीरे सड़क पार करता है
जेठ की धूप में…
किरणों के सहमे ताप में
घावों पर
रह जाती है शेष
भन-भन केवल
घावों पर
रह जाती है शेष
भन-भन केवल
दुःस्वप्न हुई गलियों में
थिरकती है ईश्वर की परछाईं
थिरकती है ईश्वर की परछाईं
चाँद सबसे पिफ़ज़ूल चीज़ों में से हो जाता है
ग़ुलाब और ओस और जलेबी की तरह
और मिट्टी-सना एक केंचुआ
धीरे-धीरे सड़क पार करता है
जेठ की धूप में…
ग़ुलाब और ओस और जलेबी की तरह
और मिट्टी-सना एक केंचुआ
धीरे-धीरे सड़क पार करता है
जेठ की धूप में…
बियोग-कविता
शाम और सड़क की अंतव्र्याप्त दुस्सह्यता के बीच
इंतज़ार, एकांत और मैं
अगर लिख सकता बियोग-कविता
तो लिखता
उस नदी के बारे में
जिसकी छाती में
विस्मृत इतिहास की अंतिम आख्यायिका लिखकर
भोर के तारे ने कलम रख दी
जिसे रस्ते के सारे पेड़ और झाडियाँ और घास
पढ़ते हैं झुक-झुककर
जिसमें भूल जाने और याद आने का
एक उदास गीत है
और उस भाले का वर्णन है केवल
जो हारी हुई सेना के
आखरी मरने वाले
सिपाही के हाथ से गिरा था
जिसकी छाती में
विस्मृत इतिहास की अंतिम आख्यायिका लिखकर
भोर के तारे ने कलम रख दी
जिसे रस्ते के सारे पेड़ और झाडियाँ और घास
पढ़ते हैं झुक-झुककर
जिसमें भूल जाने और याद आने का
एक उदास गीत है
और उस भाले का वर्णन है केवल
जो हारी हुई सेना के
आखरी मरने वाले
सिपाही के हाथ से गिरा था
या बिच समुद्र में फेंके उस कंकर के बारे में
मेरे पूर्वजों के अनभिव्यक्त प्रेम-सा
जो अब तक तल ना पा सका
जिसमें रख छोड़े हैं उन्होंने
मेरे लिए कई सपने
अपनी थकान
और पहेलियाँ
जिन्हें सुलझाते हुए
मैं प्रेम करता हूँ
मेरे पूर्वजों के अनभिव्यक्त प्रेम-सा
जो अब तक तल ना पा सका
जिसमें रख छोड़े हैं उन्होंने
मेरे लिए कई सपने
अपनी थकान
और पहेलियाँ
जिन्हें सुलझाते हुए
मैं प्रेम करता हूँ
या उस उषा के बारे में
जो वैदिक ऋचाओं में निःबंध
किसी प्राचीन सभ्यता की लिपि-सी
रहस्यमयी, मोह-भरी, अधबुझी
दफ्रन नगरों से
उजाड़े गए गाँवों तक भटकती
फिर फिर आती
त्रासदियों की गवाह
जो वैदिक ऋचाओं में निःबंध
किसी प्राचीन सभ्यता की लिपि-सी
रहस्यमयी, मोह-भरी, अधबुझी
दफ्रन नगरों से
उजाड़े गए गाँवों तक भटकती
फिर फिर आती
त्रासदियों की गवाह
या जंगल में छोड़े हुए लंगड़े घोड़ों के बारे में
जो सहज क्लान्त
जिनके अयालों में विगत की स्मृतियाँ
जिनकी आँखें गुलमोहर के फूल
जो सहज क्लान्त
जिनके अयालों में विगत की स्मृतियाँ
जिनकी आँखें गुलमोहर के फूल
शहर में झूलसी
आरण्यक फैंटेसी के
कोमल प्रतीक
आरण्यक फैंटेसी के
कोमल प्रतीक
या अर्ध-विक्षिप्तों की उन कथाओं के बारे में
जो रेलगाडि़यों और बावडि़यों में हैं – बेनक़्श
या याद रह गए दुःस्वप्नों के बारे में
या बियोग-कविता के बारे में…
कविता में उस जगह का नाम
हाँ, वह एक जगह है
जहाँ,
लोग खुश होते हैं
और नाराज़
और, एक-दूसरे को, गोली मार देते हैं
और शान्ति की खोज में, करते हैं आत्महत्या
जो रेलगाडि़यों और बावडि़यों में हैं – बेनक़्श
या याद रह गए दुःस्वप्नों के बारे में
या बियोग-कविता के बारे में…
कविता में उस जगह का नाम
हाँ, वह एक जगह है
जहाँ,
लोग खुश होते हैं
और नाराज़
और, एक-दूसरे को, गोली मार देते हैं
और शान्ति की खोज में, करते हैं आत्महत्या
रविवार, परेशान कर देता है।
लोग कपड़े फाड़ने लगते हैं
और चिखने
और दौड़ने
और, पागल हो जाते हैं।
थाने, अस्पताल और श्मशान:
रविवार के चैराहे पर
और कुछ नहीं मिलता
जबकि लोग गिलेटिन के नीचे सिर देने तक को तैयार बैठे रहते हैं
कुछ औरतें, रात भर
एक रुपये को डेढ़ रुपया बना देने वाला जिन्न ढुँढती हुई
सड़कों से जुझती हैं
लोग कपड़े फाड़ने लगते हैं
और चिखने
और दौड़ने
और, पागल हो जाते हैं।
थाने, अस्पताल और श्मशान:
रविवार के चैराहे पर
और कुछ नहीं मिलता
जबकि लोग गिलेटिन के नीचे सिर देने तक को तैयार बैठे रहते हैं
कुछ औरतें, रात भर
एक रुपये को डेढ़ रुपया बना देने वाला जिन्न ढुँढती हुई
सड़कों से जुझती हैं
आसमान और धरती के बीच उतनी ही जगह बची रहती है
और अखबार न मिलने से, सुबह झाँट हो जाती है
हाँ, वह एक जगह है
जहाँ डूबती शाम की मेज़ पर रखे
साहिल के पन्ने पर
एक लड़की लिख देती है ’समन्दर’
और समुद्र उस लिखावट को चुम लेता है
रात आती है
और, कुछ लिए बिना, नहीं जाती
सिगरेट जलती है
बुझ जाती है,
अलाव बुझ जाते हैं
खतम करने के लिए
सि़र्फ कहानी रह जाती है
(मेरे सपने में, कभी, घोड़ा नहीं आया)
मनुष्य के सपने में घोड़ा आ ही सकता है
लेकिन, अगर, घोड़ा सपना देखे –
तो उसमें मनुष्य आएगा ही !
और अखबार न मिलने से, सुबह झाँट हो जाती है
हाँ, वह एक जगह है
जहाँ डूबती शाम की मेज़ पर रखे
साहिल के पन्ने पर
एक लड़की लिख देती है ’समन्दर’
और समुद्र उस लिखावट को चुम लेता है
रात आती है
और, कुछ लिए बिना, नहीं जाती
सिगरेट जलती है
बुझ जाती है,
अलाव बुझ जाते हैं
खतम करने के लिए
सि़र्फ कहानी रह जाती है
(मेरे सपने में, कभी, घोड़ा नहीं आया)
मनुष्य के सपने में घोड़ा आ ही सकता है
लेकिन, अगर, घोड़ा सपना देखे –
तो उसमें मनुष्य आएगा ही !
कुछ खिड़कियाँ रोती रहती हैं रातभर
और कुछ लोग कहते हैं –
राख तो राखदान में ही है !
तुम्हारे पैर जुतों में ही हैं !
देखो !
तुम खुद ही कुर्सी को मेज़ कह रहे हो,
और – इसकी सज़ा होती है !
और कुछ लोग कहते हैं –
राख तो राखदान में ही है !
तुम्हारे पैर जुतों में ही हैं !
देखो !
तुम खुद ही कुर्सी को मेज़ कह रहे हो,
और – इसकी सज़ा होती है !
मकडि़यों की आवाजाही में
अधजली कुर्सी डूब जाती है
कंठस्थ पाठ दोहराता
स्लेट पर
कर देता है बीट
एक उल्लू
राख को
उँगली पकड़कर
छोड़ जाती है हवा
सड़क तक
जो, गश्ती पुलिस के जुतों पर चिपक
गली-दर-गली फिरती है
और जिसे
कुछ नहीं भाता
ना मक
अधजली कुर्सी डूब जाती है
कंठस्थ पाठ दोहराता
स्लेट पर
कर देता है बीट
एक उल्लू
राख को
उँगली पकड़कर
छोड़ जाती है हवा
सड़क तक
जो, गश्ती पुलिस के जुतों पर चिपक
गली-दर-गली फिरती है
और जिसे
कुछ नहीं भाता
ना मक
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behtareen kavitayein
अच्छी कविताएं हैं. इस कवि पर नज़र रहेगी.वर्तनी की अशुद्धियाँ ध्यान भटकाती हैं.
अद्भुत तो नहीं कहूँगा लेकिन बेहद उम्मीद जगाने वाली कविताएँ…इनकी और कविताओं की प्रतीक्षा रहेगी. आपका आभार
बहुत ही अच्छी कवितायेँ… प्रस्तुति के लिए आभार ..
krapya in ki kuch aur kavitayein uplabdh karane ka kasht kijiye..bohot khoob bohot khoob likha hai usman sahab..badhai
CHAMATKAR..adbhut
inka kuch parichay bhi dijiye aur inki mail id kya hai?
kamal ki kavitayein…………….