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श्रीलालजी खुद को जनवाने के ‘अतिरिक्त अवसर’ नहीं देते

श्रीलाल शुक्ल को श्रद्धांजलि स्वरुप प्रस्तुत है सुशील सिद्धार्थ का यह लेख. सुशील जी उनके आत्मीय थे और इस लेख में उन्होंने श्रीलाल जी के व्यक्तित्व के कई पहलुओं को छुने की कोशिश की है- जानकी पुल.



उन्नीस सौ बयासी-तिरासी की बात है. यशस्वी कथाकार अमृतलाल नागर के घर पर उनका साक्षात्कार लेने गया हुआ था. यह निश्चित करने के लिए कि बातचीत की जाय या नहीं नागरजी ने पूछा, ‘तुमने श्रीलाल शुक्ल का रागदरबारी पढ़ा है कि नहीं?’ जब मैंने बताया कि पढ़ा है, तब उन्होंने इस तरह मुझे देखा मानो मैंने उनसे बात करने की योग्यता प्राप्त कर ली हो. यह बात आज समझ में आ रही है कि श्रीलाल शुक्ल को ठीक से पढ़ लेने के बाद आप सचमुच एक खास तरह की योग्यता अर्जित कर लेते हैं.

‘संकल्प’ नामक पत्रिका में नागर जी का साक्षात्कार छपा था और इसे देने मैं गुलिस्ताँ कॉलोनी गया. वहां पहली बार मैंने श्रीलाल जी को देखा. पत्रिका देकर निवेदन किया कि आप भी कुछ दीजिए. उन्होंने पत्रिका उलटते-पलटते हुए कहा- इसमें? अपने उत्साह की ऐसी-तैसी करवाकर जब सड़क पर आया तब सोचा कि सिर्फ पढ़ना ही नहीं, उन्हें जानना भी चाहिए. …यह बात दूसरी है कि श्रीलाल जी को आज तक ठीक से जान नहीं सका. मैं नहीं जानता कि हिंदी संसार में यह दावा कितने लोग कर सकते हैं. कठिनाई इसलिए होती है कि श्रीलाल जी खुद को जनवाने के लिए ‘अतिरिक्त अवसर’ नहीं देते. अन्तःसाक्ष्य बहुत कम हैं. बहुत से लेखक खुद को जनवाने का चुस्त-चौकस अभियान चलाते रहते हैं. अपने बारे में मिथ्या कथाएं गढ़कर यह कोशिश करते हैं कि नखदंत विहीन होने तक वे दंतकथाओं में बदल जाएँ. पिछले वर्षों में जब अतीत की परती पर हल जोतने का दौर आया और संस्मरणों की फसलें तैयार होने लगीं तब मैंने श्रीलाल जी से पूछा था कि आप संस्मरण या आत्मकथा क्यों नहीं लिखते! श्रीलाल जी ने मुझे ऐसे देखा मानो कह रहे हों- ‘जर्फोगनाथ, हर्फोश में अर्फाओ!’ अपने व्यक्तिगत को वे बचाकर रखते हैं. वर्ना लोग तो हर घाव का मुआवजा वसूल कर लेते हैं. …और यहीं पर मुझे कष्ट होता है कि सब कुछ के बावजूद श्रीलाल जी आत्मदया और इर्ष्या से मिलने वाले परम सुख से वंचित हैं. ‘मो सम कौन कुटिल खल कामी’ कह-कह कर छाती पीटने या छाती लादने वालों के बीच श्रीलाल जी अपवाद हैं. अधिकांश भारतीय लेखक बचपन में अभावों से गुजरते हैं, पढ़ने के लिए जूझते हैं और आजीविका के लिए मशक्कत करते हैं. प्रेम करते हैं, सेक्स के लिए छटपटाते हैं और नैतिकता पर बहस करते हैं. किसी पर विश्वास नहीं करते और विश्वासघातों का रोना रोते हैं. अपने जीवन के ‘परिशिष्ट’ को हिंदी साहित्य की सारी विधाओं में पसारते रहते हैं. ऐसे लोगों को यह समझने में दिक्कत होगी कि श्रीलाल शुक्ल अतीत के आंसुओं से नहाये क्यों नहीं हैं या विगत के स्वप्नदोषों से सुसज्जित क्यों नहीं हैं! स्थिति यह है कि अपने व्यक्तित्व के महिमामंडन या ‘मेकिंग ऑफ श्रीलाल शुक्ल’ को रिलीज करने की कोई योजना श्रीलाल जी के पास कभी नहीं रही. एक बार उन पर शोध कर रही किसी छात्रा ने चिट्ठी लिखकर उनसे उनके बारे में जानना चाह था. श्रीलाल जी ने उत्तर दिया था कि आप मुझे दिवंगत मानकर चलें और खुद चाहे जो लिखें. इसलिए यह दृश्य कभी नहीं आया(न जीवन में न लेखन में) कि वे टूट गए, फूट पड़े, उबल गए, दरक गए, आदि-आदि. ‘फफक-फफक’ जैसे शब्द तो उनके लिए बने ही नहीं. एक वीतरागी आत्मानुशासन श्रीलाल जी की पहचान है. जिन लोगों ने उनसे साक्षात्कार लिए हैं वे बताएँगे कि ऐसे प्रसंगों को किस तरह अप्रासंगिक बना दिया जाता है.

ईर्ष्या करने का अपना चरम या चर्म सुख है. श्रीलाल जी इस महत्व से वंचित हैं. वे मनुष्य हैं और निश्चित रूप से उनमें ईर्ष्या, द्वेष, परनिंदा के बीज होंगे- मगर उन्होंने इन बीजों का चरित्र बदल दिया है. कंठ तक कुंठाओं में ऊभ-चूभ करते परिदृश्य में श्रीलाल जी अकुंठित रहने वाले एक अविश्वसनीय उदाहरण हैं. यह कहना सतही होगा कि इन्हें बहुत कुछ मिल गया इसलिए ऐसा है. ऐसे बहुत से लोग हैं, मगर कई बार जितना मिलता है उससे अधिक न मिलने का दुःख व्यक्तित्व में छटपटाता रहता है. श्रीलाल जी ब्राह्मण होने, अधिकारी रहने, प्रसिद्ध होने, बहुपुरस्कृत होने और महत्वपूर्ण होने के नुक्सान भी उठाते हैं, लेकिन ईर्ष्या-द्वेष-निंदा के औज़ार को कभी नहीं आजमाते. वे नई पीढ़ी में भी सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले रचनाकारों में से एक हैं. न पढ़ने, न लिखने के लिए लोग कारण बनाते हैं या सैद्धांतिकी निर्मित करते हैं. श्रीलाल जी ऐसा कभी नहीं करते.

श्रीलाल जी ‘कथाक्रम’ परिवार के मुखिया हैं. इसकी बैठकों में, इसके कार्यक्रमों में इनकी सहभागिता से कई बार यह सीख मिलती रहती है कि बिना दबाव बनाये अपनी बात कैसे मनवाई जाए या अधिकांश किसी दूसरी बात पर सहमत हों तो गरिमापूर्ण ढंग से कैसे उसे माँ लिया जाए. मेरे लिए तो वे अघोषित रूप से शिक्षक की भूमिका निभाते रहते हैं. ‘कथाक्रम’ के वार्षिक आयोजन में मैं पहली बार सञ्चालन करने जा रहा था. श्रीलाल जी अनेक उदाहरण देकर मुझे समझाते रहे कि कैसे सञ्चालन करना चाहिए. …एक अखबार में निर्मल वर्मा पर मेरा आलेख छपा था. कुछ दिन बाद मिला तो बोले, ‘आपके लेख में एक विशेषता कमाल की है. पता ही नहीं चलता कि आप निर्मल वर्मा की प्रशंसा कर रहे हैं कि आलोचना.’ फिर उन्होंने मुझे आधे घंटे तक यह समझाया कि लेखन में किन चीज़ों पर जोर देना चाहिए और किन्हें दरकिनार करना चाहिए. सिर्फ लेखन ही नहीं, आपसे आत्मीयता है तो वे छोटी से छोटी बात का ध्यान रखेंगे. एक बार मैंने बताया कि डाइबिटीज के लक्षण प्रकट हो रहे हैं तो श्रीलाल जी ने एक कागज़ पर १२ तरह के आसान व्यायाम चार्ट बनाकर समझाए- फिर एक-एक का प्रैक्टिकल करके बताया. लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि जब मिलें तब पूछें कि तुम्हारी डाइबिटीज कैसी है. रोग के विषय में रूचि लेकर घंटों विमर्श करते रहना उससे बड़ा रोग है. इससे श्रीलाल जी  मुक्त हैं.

कुछ प्रसंग तो अविस्मरणीय हैं. श्रीलाल जी का ७९ वां जन्मदिन. उन्हीं के घर पर हम लोग इकठ्ठा थे. खाना-पीना चल रहा था. जाने कैसे बात गीतों पर आ गई. श्रीलाल जी गीतों के बारे में बताते-बताते अपने प्रारंभिक लेखन का ज़िक्र छेड़ बैठे. सहसा रुके और बोले कि भैया(श्री भवानी शंकर शुक्ल) मेरे कुछ गीत बहुत अच्छी तरह गाते हैं- उन्हें याद भी हैं, मैं तो भूल गया. सबने भवानी शंकर जी से अनुरोध किया. उन्होंने अत्यंत कोमल और सधे हुए स्वर में श्रीलाल जी का एक प्रेमगीत सुनाया. अब श्रीलाल जी ने अपने बेटे आशुतोष को बुलाया. आशुतोष गीत को पूर करते कि श्रीलाल जी ने अपने पास खड़े पौत्र को अपने पास बिठाकर कहा कि अब ये गायेंगे. तीन पीढियां गा रही थीं और श्रीलाल जी अत्यंत संतोष-सुख के साथ उन्हें निहार रहे थे.

प्रसंगवश, यह भी कि श्रीलाल जी संगीत की उम्दा समझ रखते हैं. शास्त्रीय, उपशास्त्रीय और लोकसंगीत के कई पक्षों पर वे घंटों बात कर सकते हैं. हिंदी के साथ अंग्रेजी और उर्दू साहित्य के मर्मज्ञ हैं. उनके पास बैठिये तो आपको कब कौन सा ज्ञानसूत्र मिल जाय, कहा नहीं जा सकता. बहुत सारे कवियों से ज्यादा वे कविता को उसकी परंपरा के साथ समझते हैं. उनका स्नेह पाना मेरा सर्वोत्तम सौभाग्य है.

हर साल ३१ दिसंबर की प्रतीक्षा रहती है. श्रीलाल जी को बधाई देने और रिटर्न गिफ्ट में आशीर्वाद पाने का आनंद ही कुछ और है. इस आनंद के शतायु होने की कामना करता हूँ.   
 
      

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7 comments

  1. प्रेरक व रोचक संस्मरण।

  2. VO IK SHAKHS JI JISKEE BHARPAAEE MUSHKIL HAI
    DUNIYA KITNEE SUNDAR USKE JEETE JEE THEE
    —————–
    BADE SHAUQ SE SUN RAHAA THAA ZAMAANA
    HAMEE SO GAYE DAASTAAN KAHTE – KAHTE
    ——————
    SHRELAL SHUKL KO BHAAVBHEENEE SHRADDHAJLI .

  3. अदभुत ! मजा आ गया, पढ़कर.

  4. सुशील जी ने अपने ही खास अंदाज़ में क्या खूब लिखा है.shashi bhooshan dwivedi

  5. श्रीलाल शुक्ल व्यक्तित्व को जानकर बहुत अच्छा लगा। एक रोचक निजी संस्मरण।

  6. बहुत सधा हुआ संस्मरण!

  7. बेहतरीन…

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