कथाकार आशुतोष भारद्वाज की नक्सल डायरीविकास और सभ्यता की परिभाषाओं से दूर गाँवो-कस्बों के उन इलाकों के भय-हिंसा से हमें रूबरू कराता है जिसे सरकारी भाषा में नक्सल प्रभावित इलाके कहा जाता है. इस बार अबूझमाड़ – जानकी पुल.
पहाड़ और जंगल के बीच अटके किसी कस्बे का बीच सितंबर।
— आप फुर्सत में आईये न…यहां कोर्ट में क्या बात कर पायेंगे।
— शाम को आप फ्री होंगी?
— रात नौ बजे करीब चलेगा….? आफिस ही आ जाईयेगा।
वह एक बड़े केस की पड़ताल कर रही है। नाम भर सुना था। काफी सख्त, खुफिया सूचनायें जुटा लीं हैं कुछ ही दिनों में। रात भर बिठा अभियुक्त और संदिग्ध व्यक्तियों से तफ्तीश करती है। आज अदालत में केस की सुनवाई के वक्त नीला सलवार-सूट पहने एक बाईस-तेईस की मासूम लड़की को बंदूकधारी पुलिसियों के बीच आते देखा तो चौंका।
लेकिन असल चैंकना रात उसके आफिस में होना था। केबिन में घुसते ही एक आदमी को उसके सामने बैठे देखा। मालूम था वह केस से जुड़े कुछ लोगों से लंबी पूछताछ कर रही है, न मालूम क्यों लगा कि यह उनमें से ही एक है, वही आदमी जिससे मैं फोन पर बात कर चुका था। यह ख्याल आते ही कि यह वह हो सकता है, थोड़ा असहज हो गया। असहज होने की एक वजह यह भी कि सोचा था इस वक्त उससे फुर्सत में बात हो सकेगी केस के बारे में।
— बैठिये न… बतलाइये क्या कह रहे थे आप कोर्ट में।
मैंने उस आदमी की ओर इशारा किया, वह मेरी हिचक समझ गयी। खुद ही केस-संबंधित बात शुरु कर दी, मुझे संकेत दिया कि मैं उस आदमी की फिक्र न करूं। हम खुलते गये। नक्सल मसले पर बतियाते रहे कि पुलिसवाले किस भय में जी रहे हैं, जरा सा चूक बस कतर दिये जायेंगे। उस संदिग्ध व्यक्ति की तफ्तीश के बारे में भी बात हुई जिसे मैं देर तक अपने बगल में बैठा इंसान ही समझता रहा था। उससे क्या पूछताछ हो चुकी है, क्या अभी बाकी है। क्या सामान हाथ लगा है, क्या बचा है। अपने बारे में बतलाया। हाल ही पुलिस में आयी है, यह उसका पहला केस। एकदम दृढ़ कि सजा दिलवा कर ही रहेगी। अपनी सी हंसी। बहुत अपना सा स्वर।
केबिन की दीवार पर क्राइम रिकार्ड का चार्ट टंगा था, जिले एक बड़ा सा नक्शा भी जिसमें लाल, हरे कई निशान बने थे। बोलते वक्त उसकी उंगलियों में फंसा पैन घूमता रहता। कभी पैन कांच के गिलास पर टकटकाने लगता। मैं भूल गया कोई बगल में बैठा हुआ है, बीच में अटपटा सा लगता जब मसला थोड़ा अधिक खुफिया हो जाता कि कोई हमें सुन रहा है। लेकिन पल में बेफिक्र हो जाता, जब वह ही इस आदमी का ख्याल नहीं कर रही तो मुझे क्या। पुलिसवाला ही कोई होगा जरूर।
— आप बैठिये, दो मिनट में आयी बस।
अब वह आदमी और मैं — उस केबिन में। उसकी आंख झुकी हुई, शायद अपने जूते की नोंक निगाह से टटोलता था। फिर वही कीड़ा नाचने-नोंचने लगा। क्या यह वही है जिससे उस दिन फोन पर बात हुई थी, जिसे यह लड़की घेर-घार कर पूछताछ करती है? चुपके से मोबाइल में उसका नंबर मिलाया। मेज पर वाइब्रेशन मोड पर रखा उसका मोबाइल घरघराने लगा।
दिल्ली में टूजी केस के दौरान मनोवैज्ञानिक दवाब बनाने के सीबीआई के तरीकों के बारे में सुनते थे, वो थे लेकिन सीबीआई के शातिर परिंदे। बालों को ढीला छोड़ रबरबैंड से बांधे यह कन्या आधे घंटे इस आदमी की पोल खोलती रही, मुझे इसे कोसने को उकसाती रही, अनजान मैं इसके बगल में बैठा इसे गरियाता रहा। अव्वल कि यह इसका पहला केस!
नक्सल समस्या की एक वजह पुलिस ज्यादती मानी जाती है, यह भी सोचना चाहिये कि नक्सल भय किस तरह पुलिसकर्मियों का स्वभाव परिवर्तित कर रहा है। ओस सी महीन आवाज वाली बासठ इंच की निहायत ही नाजुक लड़की का अपनी पहली ही डीएसपी पोस्टिंग के दौरान film noir की नायिका में कायांतरण बस्तर के किसी सुदूर थाने में ही संभव शायद।—
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फूटे कम, टूटे ज्यादा किसी अस्पताल का अक्टूबर जिसमें एक कथित नक्सली भर्ती है।
चूंकि यह देश का सबसे अधिक नक्सल-प्रभावित राज्य है, अठारह में से दस जिले नक्सलियों के गढ़, बाकी कई जिलों में भी उनकी उपस्थिति, नक्सल-हिंसा में हुई देश की छत्तीस प्रतिशत से भी अधिक मृत्यु इस राज्य में, इसलिये जाहिर है विचित्र लफ्ज हवा में उड़ते हैं।
यह बच्चा मसलन जो पुलिस घेरे को चीरता अस्पताल में घुसा चला आया है। दसेक साल का महज, सबने अनदेखा कर दिया और वह वार्ड में अंदर आ उस ‘नक्सली’ के बिस्तर के बगल में जा खड़ा हुआ है। अचानक किसी सिपाही का ध्यान जाता है, शर्ट-नेकर पहने यह कौन है।
‘बाहर सब कह रहे थे, अंदर नक्सली भर्ती है। देखने आ गया।‘ बच्चे को नहीं मालूम इस पर राजद्रोह समेत कई केस हैं उसे सिर्फ इतना पता है यह वह है, जिसके बारे में सभी बात करते हैं लेकिन जिसे वह अभी तक नहीं देख पाया है। रायपुर में, जहां उनकी उपस्थिति अपेक्षाकृत कम है, अक्सर ऐसे सवाल करते लोग दिख जाते हैं –“ आप तो वहां हो आये हैं…कैसे होते हैं वे लोग।“ किसी का दृढ़ विश्वास है ‘नक्सली लोग रात में ही पाये जाते हैं।‘
इसकी एक वजह यह भी कि बंगाल और आंध्र प्रदेश में जहां नक्सल आंदोलन को मध्यवर्गीय व शहरी समर्थन रहा है, इस प्रदेश में लगभग नहीं। जादवपुर विश्वविद्यालय और आंध्र के कालेज में उनकी उपस्थिति सशक्त रही है, दस साल की हिंसा के बाद भी यहां किसी छात्र यूनियन में उनकी भागेदारी नहीं, कुछेक अपवाद के सिवाय वे जंगल, पहाडि़यों और गांव तक ही केंद्रित है। इसकी एक बड़ी वजह नक्सलियों का इस प्रदेश में बंगाल से भिन्न जैविकीय विधान और खुद इस प्रदेश का विशिष्ट स्नायु तंत्र भी है। इससे यह भी साबित होता है नक्सल कोई होमाजीनस या एकमुखी प्रत्यय नहीं।
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अबूझमाड़, जिला नारायनपुर। कोई सा भी महीना, कोई सी भी तारीख, कोई सा भी दिन, कोई सा भी लम्हा।
माड़ यानी जंगल। अबूझा जंगल। रूपक और असल में भी। किसी को नहीं मालूम, पुलिस, सत्ता, राजनेता को भी नहीं इन वृक्षों के परे क्या महकता-सुलगता-दहकता है। हरा महासागर। सैकड़ों वर्ग मील। जन-वृक्ष-जंतु गणना किनारे कीजिये, हिंदुस्तान का शायद अकेला इलाका जहां कभी, आजादी से पहले या बाद में, कोई प्रशासनिक-राजनैतिक सर्वे नहीं हुआ। किसी को नहीं मालूम अंदर कितने इंसान, किस तरह के जानवर, परिंदे, कौन सी नदियां, चट्टान। फोन, इंटरनैट कुछ नहीं।
आज यह नक्सल अड्डा। इस तरह कि समूचे प्रदेश में अकेला इलाका जिसके बारे में पुलिस भी चुप रह जाती है— पता नहीं, अंदर क्या है। जब अंदर जायेंगे तो भाई साहब पता चलेगा। सेना तक भीतर नहीं जाती कि जंगल का नक्शा ही नहीं किसी के पास। इस भूगोल का कौमार्य अभी सुरक्षित।
जनवरी-फरवरी 1952 में हुये भारत के पहले आम चुनाव के वक्त लाहोल-स्फीति का जो इलाका बर्फ गिरने की वजह से देश से कट गया था, वहां चुनाव आयोग ने 1951 की सर्दियां आने से पहले ही वोटिंग करा रख ली थी कि लोक-तंत्र में लोक-भागीदारी सुनिष्चित रहे। रामचन्द्र गुहा इस पहले आम चुनाव को ‘इतिहास में सबसे बड़ा जुआ’ बतलाते हैं, पता नहीं उसकी बिसात कभी अबूझमाड़ में बिछी भी थी या नहीं।
अबूझमाड़ है भी तो अबूझा। एक मायावी-उन्मादी बुलावा। मृत्यु का, मरीचिका का। अज्ञात तिलिस्म। पेड़ों की तमकती गंध, मिट्टी का कौंधता रंग— एक कदम अंदर बस कि गुम। कई जगह ऐसी होती हैं जहां खो जाने का एहसास होता है लेकिन तुरंत ही आप संभल भी जाते हैं, परिचित सूत्र, कोई जानी आहट-आवाज— और आप उन ध्वनियों के सहारे वापस लौटने लगते हैं।
लेकिन यहां आ पीछे कुछ नहीं शेष रहता। लौटना संभव नहीं अब। लौटना क्रिया ही स्वाहा हुई। इसे अबूझे को बूझने के लिये यक्ष प्रश्न भी उपलब्ध नहीं।
यहां कोई बेधड़क अपनी मृत्यु या उपन्यास के साथ संभोग करने आ सकता है। मृत्यु — कोई आकस्मिक दुर्घटना नहीं एकदम सजग, चैकन्नी मौत — और उपन्यास लेखन के तत्वमीमांसीय तंतु एक ही तो हैं। सब कुछ पीछे छोड़, समूचे जीवन का कारोबार समेट कोई उपन्यास लिखने बैठता है, और मृत्यु भी उपन्यास की तरह छतरी बगल में दबाये बूढ़े मुंशी के भेस में अपने साथ पूरा बहीखाता लेकर आती है, समूचा हिसाब भरती है। मगहर में मरने पर नर्क या काशी में जाने से स्वर्ग मिलता था या है या नहीं, अबूझमाड़ में सांस छोड़ने पर अगले जन्म में उपन्यासकार हो जाने नहीं तो एक-आध उपन्यास लिख ले जाने की संभावना जरूर बनती है।
उपन्यास की त्वचा छूता-टटोलता रचनाकार भीतर पैठे खौफ, मायूसी-मुर्दिनी-मृत्यु के खौफ, से जूझता है, दुर्लभ लम्हों में उनसे उबर भी जाता है, अबूझमाड़ में चलते हुये, यहां की रात-सुबह-दोपहर से गुजरते हुये तुम भी ऐसे ही खौफ से रूबरू होते हो कि नितांत अपरिचित पहनावा देख तुमसे भी अधिक भयभीत एक गोली किसी वृक्ष के पीछे दुबकी बंदूक से फूटती आती तुम्हारी खोपड़ी फोड़ सकती है — लेकिन तुम आगे बढ़ते जाते हैं, भूल जाते हो वे सभी हिदायतें जो यहां आने से पहले कई मर्तबा दी गयीं थीं।
मृत्यु के खौफ से कहीं खूंखार और खतरनाक है कोरे सफेद कागज का असहनीय आतंक। अपनी औकात, टुच्चापन उघड़ जाने का आतंक।
इसलिये इस रात कोई डर नहीं तुम्हें। खौफ को कुचलते ये आखिर वो लम्हे हैं जब या तो शब्द या फिर आये तो आ जाये मौत।
कोई और न सही, अबूझमाड़ तो साक्षी होगा ही। तिलमिलाती इतनी तड़प लिये बुझोगे तो अगले जन्म में कुछ काम भर कर का शायद लिख ही ले जाओगे।