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उनके चित्रों ने स्त्री की आजादी को नए मायने दिए

प्रसिद्ध चित्रकार गोगी सरोज पाल ने कैनवास पर रूप-रंगों के सहारे एक नया मुहावरा विकसित किया. उनकी चित्रकला और जीवन पर विपिन चौधरी का आलेख- जानकी पुल.
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हम सब जानते हैं कि हमारे गाँव- कस्बे की महिलाएं अद्भुत कलाकार होती है. वे हंसी-खुशी के या किसी उत्सव के अवसर पर गोबर से अपने घर- आंगन और चूल्हे को लीपती हैं. घर के द्वार पर तोरण सजाती, और खूबसूरत सांझी बनाती हैं. इसके अलावा वस्त्र कला का श्रेय तो हमारी महिलाओं को जाता ही हैं. तीन हज़ार साल पहले से मिथिला की महिलाएं हिंदू देवी देवताओं को चित्रित करती रही हैं और इसे भारतीय सभ्यता की सबसे मजबूत कलात्मक अभिवयक्ति भी माना जाता हैं.
कला का रंग-बिरंगा खजाना स्त्री के साथ चलता है. और जब एक स्त्री कला को अपनी जाग रूकता का प्रबल हथियार बनाती है तो एक सामाजिक स्तर पर उसके लिए एक जोखिम भरा लेकिन बुलंद जगह बनती हैं.
सामूहिक रूप में भी महिला कलाकारों के लिए भी प्रयास किये गए हैं. स्त्री कलाकारों को समुचित गरिमा दिलवाने की कोशिश में विश्व स्तर पर १९६० के आखिर से १९७० तक महिला कलाकारों और कला इतिहासकारों ने महिला कलाकारों का कला आन्दोलन भी खड़ा किया था.
भारत में व्यवसायिक स्तर पर महिला चित्रकार के रूप में सबसे पहले अमृता शेरगिल का नाम सामने आया फिर उसके बाद सन् १९७० तक चित्रकला का ये मैदान खाली ही रहा. उसके बाद ही ७० में कई महिला चित्रकारों ने अपने विविध कलात्मक सक्रियता  से इस लंबे और सुनसान  अंतराल को भरा.
लगभग उसी समय अपने कलात्मक सृजन को अंतर्राष्ट्रीय पटल पर पहुँचाने का उपलब्धि जिस स्त्री चित्रकार के खाते में आई, उस महिला चित्रकार का नाम गोगी सरोजपाल हैं.
आज गोगी सरोजपाल, कला के गलियारों में गंभीरता से लिया जाने वाला नाम  बन चुका है. उनकी गिनती भारत की सबसे प्रमुख नारीवादी पेंटरों में होती हैं, जिन्होंने स्त्री के प्रति सामाजिक भेदभाव को अपने चित्रों के माध्यम से अपने खास अंदाज में दर्शाया है. वे अपनी हर कलाकृति में चंद रंगों का ही इस्तेमाल करती हैं. पर उन चंद रंगों की ध्वनियां इतनी साफ़, स्पष्ट है जो चित्र को देखते ही दर्शकों से बात करती प्रतीत होने लगती है. 
कलात्मक सफर की शुरुआत   
वह साठ का दशक था जब गोगी सरोज पाल नाम की एक ४ फूट ११ इंच लंबी, कटे बालों वालों लड़की दिल्ली रेलवे स्टेशन पर एक सूटकेस लिए उतरी थी. उन्हें इसी विशाल महानगर में अपने आप को सिद्ध करना था.सिर्फ अपनी मेहनत के बल बूते पर, अपने लिए एक नया मुकाम खड़ा करना था जिस पर आने वाली कला को समर्पित पीढीयाँ भी गर्व से चले. शुरुआत में कला फ्रीलान्सर के तौर पर उन्होंने अपना काम शुरू किया.
कला की विधिवत शिक्षा उन्होंने १९६७ से १९६९ तक की अवधि में कई शिक्षण संस्थाओं से ली १९६१ में राजस्थान के बनस्थली से, उसके बाद लखनऊ के कला और क्राफ्ट के राजकीय कॉलेज में पढाई की. उनकी कला की यह शिक्षा महानगर दिल्ली के आर्ट विश्विद्यालय में भी जारी रही.
१९८० में उन्हे युवा कलाकारों को प्रोत्साहनस्वरुप दिया जाने वाला संस्कृति पुरूस्कार भी मिला. हमेशा से व्यक्तिवादी स्वभाव की इंसान रही हैं गोगी, जिन्हें बचपन से ही अपने काम खुद करने की आदत हैं. प्रश्न करने जो प्रकर्ति उन्हें मिली हैं उसने भी उनकें कला संसार को बेहद समृद्ध किया हैं. यही कारण है कि वे अपने कैनवास पर जिस  महिला को चित्रित करती हैं उसका प्रत्यक्षी प्रभाव बेहद बोल्ड और मजबूत चरित्र को लिए हुए होता है. जिस तरह शुरूआती संघर्ष एक नए कलाकार को झेलने पड़ते हैं गोगी जी भी उन के बीच से गुज़री. उन पर स्त्रीवादी चित्रकार का लेबल लगाया गया. उन्होंने स्त्री के उस परम्परावादी स्वरुप को न चित्रित कर उस नारी को दर्शाया जो अपनी खुद की शरीरिक भाषा से परिभाषित होती थी.
गोगी का १९९८  में बनाया गया एक चित्र जिसका शीर्षक आग का दरिया हैं. जो  दिखता है कि हमारे परम्परावादी समाज में एक स्त्री ठीक उसी तरह अपनी बेटी की रक्षा करती है समाज से उसे बचाती है, जिस तरह वासुदेव नन्हे कृष्ण को टोकरी में रख कर उसे नागों से बचाते हुए यमुना पार की थी आज की स्त्री को अपनी बेटी को जनम देना और फिर उस का पालन पोषण करना भी एक नागों से भरी नदी को पार करने जैसा ही  श्रम साध्य काम है एक माँ के लिए. ऐसे ही कई चित्र गोगी सरोजपाल  की कल्पना शक्ति की पराकाष्ठा है. उनकी पेंटिंग्स में स्त्री के विभिन्न रूप देखने को मिलते हैं. लेकिन उनकी जायदातर कलाकृतियों में स्त्री अपनी आजादी का उत्सव मानती हुई दिखती हैं.  
उनकी कला भी उनके जीवन अनुभव के साथ-साथ समर्थ होती चली गयी.
गोगी जी ने अपने कलात्मक करिअर की शुरूआत ओखला के डिजाईन रिसर्च इंस्टिट्यूट में की. दिल्ली महानगर के शुष्क माहौल में उन दिनों एक स्त्री कलाकार के लिए जगह बनानी इतनी आसान नहीं थी. कनाट प्लेस की बरसाती में अपने चित्रों को संभालती- सहेझती गोगी जी, अपूर्व निष्ठां से अपने काम में जुटी रहती. जब एक स्त्री अपने को सिद्ध करती है तो उसे घर की चार दीवारी से बाहर निकलना पड़ता है. जहाँ समाज के बीच से वह गुज़रते हुए उससे मुठभेड़ भी करती चलती हैं, और उसी क्रम में वह अपने आप को सिद्ध  भी करती चली जाती है. एक स्त्री कलाकार के रूप में गोगी का जीवन भी इसी पटरी पर चला.
बाद में जब लोगो में गोगी के काम को देखा, परखा तब उन्हें कला समीक्षकों से व्यापक सराहना मिली. पर जैसा की चलन है की टेढ़ी निगाहों से देखने वालों ने उन पर फेमिनिस्ट कलाकार का ठपा लगा दिया. हालाँकि आने वाले समय में नारीवादी के इस टैग ने भी उन्हें अलग पहचान दी.
आज गोगी सरोजपाल जिस ऊँचे मुकाम पर है उसके पीछे उनका घोर मेहनती और जुझारू स्वाभाव भी सहयोगी रहा हैं. जीवन के प्रति उनका सकरात्मक दृष्टीकोण उनके कैनवास को और अधिक सम्रद्ध करता हैं. आज उनके ४५ सोलो और १५० ग्रुप प्रदर्शनियां लग चुकी हैं. अंग्रेजी की पत्रकार निरुपमा दत्त, गोगी के बारे में कहती हैं, कभी अंग्रेजी लेखिका कमला दास ने लिखा था राईट लाएक ए मेन, इसी तरह नाट्य निर्देशक महेश दत्तानी ने लिंग भेद की बात को निशाने पर लाते हुए इसी विषय पर अपने एक नाटक को नाम दिया डांस लाइक ए मैन और जब चित्रकला की बात आई तो निरुपमा दत्त ने गोगी की कला को समर्पित एक लेख को नाम दिया पेंट लाएक ए वोमेन.
एक कलाकार के तौर पर गोगी सरोजपाल जानती हैं कि स्त्री की बारीक व्याख्या करने के लिए खुद स्त्री के सभी ऊँचे- नीचे, भीतरी-बाहरी, कमज़ोर-मजबूत चरित्रों की जानकारी होनी चाहिए तभी एक कलाकार स्त्री के व्यक्तितव का सटीक चित्रण कर सकता हैं. गोगी के स्त्री विषयक चित्रों के पीछे की सोच यही दिखाती है की स्त्री नाम की प्राणी का असली पक्ष दरअसल है क्या? उनकी पेंटिंग्स में उकेरी गए चित्र, समाज का पक्ष भी दर्शाते हैं और उस पहलु को भी दिखाते हैं जो स्त्री का निजी पहलु हैं, वह खुद को किस तरह से देखती और महसूस करती है. इसीलिए गोगी द्वारा रचित स्त्री, एक कलाकृति के तौर पर एक सब्जेक्ट और एक ऑब्जेक्ट दोनों के तौर पर रहती हैं.   
रचनात्मक परिवेश जिसने गोगी के कलाकार को गढा
विद्यार्थी के रूप में गोगी जी की मुखरता और अपनें आस-पास के वातावरण का सटीक अन्वेक्षण करने की प्रवर्ति का विस्तृत रूप देखते ही बनता था. उनकी यही मुखरता  समय की परिपक्वता के साथ-साथ उनके आसपास से उठ कर स्थानीय फिर राष्ट्रीय और फिर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर से अपने सम्बन्ध बनाने लगी. तब प्राकर्तिक, निर्जीव और इंसानी रिश्तों को लेकर उनका अन्वेक्षण घना और विशाल होता चला गया.
प्रसिद्ध लेखक यशपाल की भातिजी के रूप में किताबों से घिरी रहने वाली गोगी के मन में कई जिज्ञासाएं थी जिन्हें यशपाल के साथ बातचीत और जुड़ाव ने और धारदार किया. गोगी के मन में ये जिज्ञासाएं चित्रों के रूप में उभर कर आई. फिर यशपाल से मिलने के गोगी सरोज पाल  के घर आने वाले कई रचनाकारों में से एक, निर्मल वर्मा से गोगी की पहचान से भी गोगी को शब्दों और चित्रों के बीच का आपसी समन्वय और उनका बारीक मेल- मिलाप के बारे में पता चला.  
जिस तरह मार्केस की नानी, मार्केस को कई रंग बिरंगी कहानियां सुनाती थी. उसी तरह गोगी जी को भी बचपन में अपनी दादी का का रोचक साथ मिला.
क्रांतिकारी पिता और दादा का जीवन भी उन्होंने करीब से देखा और अपने भीतर महसूस किया. और फिर १९४७ में विभाजन की विभीषिका का सामाना किया और स्त्री के दुःख को नजदीक से देखा और समझा. अपने परिवार में आर्य समाज का प्रभाव और जमीन से जुड़ा एक खालिस अनगढ़ तत्व गोगी के जहन में विद्यमान रहता है जो उनकी पेंटिंग्स में भी द्रष्टीगोचर होता है.
अपने भाई बहनों के साथ खेलते-कूदते हुए भी गोगी की सोच और समझ अपनी उम्र से कहीं अधिक परिपक्व हुआ करती थी. ये चीज़ इस तरह क्यों है उस तरह क्यों नहीं है आदि आदि एनेक  प्रश्न गोगी के परिवेश में बिखरे होते थे जिनका गोगी को कोई जवाब नहीं मिलता था पर बाद में बड़ी होने पर उन्होंने खुद अपनी समझ बूझ से खुद अनुतरित प्रश्नों के उत्तर तैयार किये. 
अपनी कला के विहंगम रंगों में
स्त्री की आजादी को नए मायने देती गोगी सरोजपाल की चित्रकारी का जो अलग आयाम है वह परंपरा से हट कर है पर इस राह में चलते हुए वे परंपरा को नकारती भी नहीं हैं. गौरतलब है की हमारी सारी उर्जा परंपरा को नकारने में लग जाती है जिससे वर्तमान दशा को नए सकारात्मक मुकाम देने की उर्जा नहीं बच पाती. यही हमारी रचनात्मक विडम्बना है जिससे हमें बचने की जरुरत है.
जब स्वयं अपनी चित्रकारी की बारे में गोगी सरोजपाल कहती हैं कि मैं रंग की भाषा में सोचती हूँ. तो कोई कारण नहीं बनता की उनके ये स्थाई भाव विभिन्न रंगों की रूप में उभर कर ना आये. रंग आते है और पूरी तरह से कैनवास में छा जाते हैं.
वे आगे कहती हैं, मैं दृश्यों की रूप में रचनात्मक प्रतीकों को रच कर अपने पीछे छोड कर जाना चाहती हूँ जिससे वे हमारे समय का दस्तावेज के रूप में दर्ज हो सकें.
गोगी सरोजपाल की रचनात्मकता के कई आयाम हैं, चित्रकारी के साथ-साथ रचनात्मकता के लगभग सभी पक्ष गोगी की सधी हुई उंगलियों और परिपक्व सोच  
से प्रकट होते हैं . यही नहीं एक सिद्धहस्त योगी की तरह गोगी सरोजपाल बाहर की सोंदयबोध को अपने भीतर उतार लेती हैं और भीतर की खूबसूरती को बाहर इतनी खूबसूरती से रच देती है है भीतर बाहर हो जाता है और बाहर भीतर.
१९८९ में गोगी सरोज पाल ने भारतीय स्त्री को लेकर एक श्रंखला आयोजित की जिसमें उन्होंने स्त्री को कामधेनु के रूप में दर्शाया, जिसके पीछे  यह शाश्वत सोच है कि एक स्त्री को इतना विनम्र और सहनशील माना जाता है की कोई उससे कुछ भी मांगे वो तुरन्त देने को तत्पर रहती है.
संसार भर के पुरुष कलाकार तो स्त्री के अनेक चित्र रचते ही हैं. पर एक स्त्री खुद अपने बारे में कैसा महसूस करती है यह गोगी के चित्र अपनी विभिन्न आकृतियों के माद्यम से दर्शाते हैं.
गोगी के स्त्री विषयक चित्र दिखाते हैं कि यह एक विडम्बना ही है कि एक संसार में मनुष्यों की दो ही प्रजातियां हैं, एक स्त्री और एक पुरुष. पर सारे दुःख, सारी बुरे पक्ष एक स्त्री के हिस्से में क्यों आये है. और ये पक्ष समाज के धोपे हुए पक्ष हैं, प्रकर्ति द्वारा नहीं.
अब तक औरत को कामधेनु की तरह सींचा गया. स्त्री के प्रति अन्याय कोई आज की बात नहीं याद करे उस महाभारत काल के जुए के खेल में स्त्री को चौसर के खेल में एक वस्तु की तरह इस्तेमाल किया गया.
कामधेनु, आग का दरिया,हठयोगिनी– काली १९९४,१९९८,१९९६ क्रमशः गोगी सरोजपाल की चित्र श्रंखलाये हैं. हठयोगिनी- काली श्रंखला में एक स्त्री का काली अवतार राक्षस को मारते हुए, शेर की सवारी करते हुए नज़र आती हैं. इस श्रंखला में प्रदर्शित लाल गहरा नीला रंग स्त्री के निडर स्वरुप को दर्शाता है.
बिंग ए वोमेन में गोगी जी एक स्त्री को ईशा मसीह की तरह क्रास पर लटकी हुई दिखाई है. इस सीरीज़ में गोगी एक स्त्री के विभिन्न रूप दिखाती हैं, बच्चे को आँचल में समेटे हुये.बाल सवारते हुए, श्रृंगार करते हुए जिसमे वह लिपस्टिक, सिन्दूर या बिंदी नहीं लगाती दिखती बल्कि गोदरेज हेयर डाई लगा रही होती है.यह आज के समय की तस्वीर दिखाती है कि बाजार किस तरह श्रृंगार के परम्परागत तौर तरीके भी बदल रहे हैं.
काँगड़ा के अपने घर की यादो से प्रेरित हो कर गोगी जी ने होम कमिंग सीरीज़ पर काम किया. उनकी कुछ पेंटिंग्स शीर्षकविहीन हैं. जिसमे दर्शक को अपनी समझ की धार तेज कर सकता हैं. उनकी चित्र श्रंखला में वर्णित विषय एक के बाद एक कर खुलता जाता है.
एक अजीब सी बेचैनी और अभिवय्कत न कर पाने वाली उदासी गोगी जी के चित्रों  में है. हमें उनकें के चित्र ये सोचने पर मजबूर करते हैं, जितना एक स्त्री अपने समाज को देती है क्या समाज उस का पच्चीस प्रतिशत भी उसे वापिस लौटता है ?
लैंगिग पूर्वाग्रह को गोगी ने अपनी स्वयं रचित शैली में रचा है. गोगी अपने वैभवशाली  इतिहास में वर्णित स्त्री पात्रो को बखूबी से ले कर आती है. और ये इतिहास के चित्र  आज के समय में कितने अप्रासंगिक दिखते हैं यह बताने की कोई जरुरत नहीं हैं.
अद्भुद है उनके द्वारा निर्मित संबंधो की श्रंखला जिसमे जानवर के साथ इन्सान के रिश्ते के शेड्स दिखने को मिलते हैं. साफ़ दिख पड़ता हैं कि इन्सान ने जानवरों के साथ हमेशा एक मास्टर की तरह बरताव किया है. जबकी जानवर के मददगार के रूप में हमेशा सामने आते रहे हैं.
गोगी की पेंटिंग्स में दिखाई देने वाले शोख रंग ठीक उनके बिंदास व्यक्तितव का प्रतिनिधितव करते हैं. ये रंग इतनी शक्तिशाली हैं की बरबस ही आपका ध्यान, अपनी और खींच लेते हैं. उनके स्त्री पर केंद्रित चित्रों में नारी की अंतर्मन की चीख, वह चीख हैं जिसे हमेशा से नजरंदाज किया जाता रहा है. उनकी नायिकाएँ स्वर्ण लताओ से सुशोभित नहीं है बल्कि अपने आप से सवाल करती हुई नायिकाएँ है.
मनुष्यता में जो अदूरदर्शिता है वही नारी की अधीनता का कारण है. पुरुष कई तरह से औरत को बहकाता और बहलाता है. पुरुष का नायकत्व नारी को अपने अधीन रखने मे ही हैं.
अर्धनारीश्वर के शिव अवतार को गोगी ने उनसे अपने अंदाज़ में परिभाषित किया है. उनके आधा आदमी- आधा मनुष्य के प्रतिक दिखाते हैं कि सभ्यता के वर्षों के बाद भी हम मनुष्यों की पोलिशिंग होनी अभी बाकी है, आज भी हम पूरे मनुष्य नहीं बन पाए है. इसके ठीक विपरीत हम आधे पंछी भी है क्योंकि हमारी निगाहें आकाश की ऊँचाई को नापने को व्याकुल रहती हैं.
.गोगी सरोज पल की कलाकृति स्वंवर उस निजी पसंद को रेखांकित करती है जो एक स्त्री की खुद की पसंद का मामला है. खेद की बात है की आज भी एक लड़की की पसंद को तव्जीह नहीं दी जाती. उसे आज भी घर और समाज की और मुहँ ताकना पड़ता हैं. इस तरह के बिना किसी आधार के ये स्त्री मुक्ति के प्रश्न आज भी प्रश्न बने हुयें हैं.
गोगी सरोजपाल की रचनात्मकता के विविध आयाम 
गोगी की रचनात्मकता के कई आयाम हैं, ग्राफिक प्रिंट मकिंग, सेरामिक्स, स्टूडियो पोटरी, आभूषण, से लेकर टेक्सटाइल तक.
उनके व्यक्तितव में एक मजबूत तत्व है जो गोगी को अपनी मर्जी का जीवन जीने का जज्बा प्रदान करता है. गोगी के लिए कला जीने का एक तरीका है उसके बिना जीवन की वे कल्पना भी नहीं कर सकती. दिन- रात, सुबह-शाम उन्हीं रंगों से मिल कर बनते हैं जो उनकी कैनवास पर बिखरे हुयें हैं. रंगों की गर्म तासीर उन्हें अपने से दूर नहीं जाने देती हैं.
वे कलम की भी धनी हैं. उनकी पन्द्रह कहानियों का संग्रह  फुलवारी शीर्षक से राजकमल से २००९ में प्रकाशित हुआ.
जिस पहचान के संकट से आज की आधुनिक नारी भी गुजर रही है उस की प्रति छाया देख पड़ती हैं गोगी की चित्रकारी में. 
उनकी कला में वे स्वतिक मंत्र सम्माहित हैं जो उच्चारण मात्र से ही वातावरण में एक उर्जा भर देते है. गोगी के व्यक्तितव के भीतर एक अद्भुत सम्मिक्ष्रण देखने को मिलता है, एक तरफ तो वे बच्चो से निश्चिल दिखाई देती है दुसरी तरफ एक सुद्रढ़ स्त्री कलाकार की गंभीरता से ओतप्रोत.
उनकी चित्र श्रंखला में वर्णित विषय एक के बाद दुसरी फिर तीसरी कलाकृति में खुल कर सामने आता है. उनकी एक और महतवपूर्ण चित्र श्रंखला किन्नरी है जिस में के स्त्री को एक पक्षी की उड़ान प्रदान करती हैं.
कई कई घंटे दिन- रात की परवाह किये हुए गोगी अपने स्टूडियो में बीता देती है.
फिलहाल वे अपनी नई चित्र श्रृंखला फ़ूड को अंतिम रूप देने में व्यस्त हैं. इस में इस सोच को दर्शा रही हैं कि किस तरह एक स्त्री अपने परिवार और सृष्टी की भूख को भरने के जुटी रहती हैं.
इन जिंदादिल इंसान के रूप गोगी से रूबरू मिलना एक सुखद अनुभूति प्रदान करता है. को दिल्ली के आर्ट कॉलेज से कला विद्यार्थी और शिक्षक आज भी गोगी को सिग्ररेट के धुएं से घिरी रहने वाली और बिना चीनी के चाय पीने वाली एक हंसमुख और हरदिल अज़ीज़ इंसान के रूप में जानते हैं.
ऐसा इसलिए हैं कि गोगी जितनी जीवंत अपनी कला के भीतर है उतनी ही समृद्ध अपनी कला के बाहर भी.
 
      

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6 comments

  1. बहुत सुन्दर आलेख है। एक कवियित्री व लेखिका द्वारा कला के इस पक्ष को इतने सुन्दर रूप में प्रस्तुत किया जाना दर्शाता है कि लेखिका ने इस विषय पर गूढ़ पकड़ बना रखी है। सुन्दर जानकारी को इतने कलात्मक रूप में पेश करने पर बधाई।

  2. यह आलेख गोगी सरोज पाल की कला पर बहुत ही अच्छी रोशनी डालता है. साथ ही साथ गोगी सरोज पाल की कला के बहाने महिला-तुलिका पर भी यह आलेख बहुत ही प्रगल्भ है.. ज्ञान वर्धक और संग्रहणीय… आभार आपका विपिन जी.

  3. स्त्री की आजादी के संघर्ष को रंगों और आकृतियों के माध्यम से प्रभावशाली ढंग से उभारने में गोगी सरोजपाल की कला और उनकी सोच को उभारने में विपिन चौधरी का यह आलेख एक उल्लेखनीय दस्तावेज की तरह सामने आया है। कितनी खूबसूरत और सटीक व्याख्या की है विपिन ने – "स्त्री की आजादी को नए मायने देती गोगी सरोजपाल की चित्रकारी का जो अलग आयाम है वह परंपरा से हट कर है पर इस राह में चलते हुए वे परंपरा को नकारती भी नहीं हैं. गौरतलब है की हमारी सारी उर्जा परंपरा को नकारने में लग जाती है जिससे वर्तमान दशा को नए सकारात्मक मुकाम देने की उर्जा नहीं बच पाती. यही हमारी रचनात्मक विडम्बना है जिससे हमें बचने की जरुरत है." ….."एक सिद्धहस्त योगी की तरह गोगी सरोजपाल बाहर की सोंदयबोध को अपने भीतर उतार लेती हैं और भीतर की खूबसूरती को बाहर इतनी खूबसूरती से रच देती है है भीतर बाहर हो जाता है और बाहर भीतर."

  4. रंग बोलते हैं.रंगों के साथ जीवन की अदभूत चित्रण मोहक है.

  5. naari kaa kuchi aur rang se adbhut chitran hai.

  6. बहुत बढ़िया ,
    उनकी कला में वे स्वतिक मंत्र सम्माहित हैं जो उच्चारण मात्र से ही वातावरण में एक उर्जा भर देते है.
    बिलकुल सही कहा आपने

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