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प्रत्यक्षा की कहानी ‘कूचाए नीमकश’

समकालीन जीवन सन्दर्भों को कहानियों में बखूबी उतरने वाली प्रत्यक्षा का नाम लेखिकाओं में प्रमुखता से लिया जाता है. अभी हाल में ही उनका नया कहानी संग्रह हार्पर कॉलिंस से  आया है ‘पहर दोपहर ठुमरी’. उसी संग्रह से एक कहानी- जानकी पुल.


दरख़्त के सुर्ख पत्ते अचानक आये हवा के झोंके से गिरते हैं । धीमे धीमे तैरते लहराते , एक के बाद एक । सब जो खड़े हैं , फ़र्रूखज़ाद , नुसरा बी , हमदू , कुबरा , हुमरा , अफ़सान , रसूल बद्द्रूदीन , छोटे छोटे बच्चे , बुज़ुर्ग , बूढ़ी ख़वातीनें, सब तस्वीर खिंचवाने की संजीदगी में शक्लों को गंभीर  दुरुस्‍तगी में सजाये, अचानक बालों पर , टोपियों और स्कार्फों पर गिरते पत्तों की छुअन के अहसास में मुस्कुरा पड़ते हैं । कुछ अचकचा कर ऊपर देखते हैं । उस एक लम्हे की हँसी के बाद फिर समेट लेते हैं अपने आप को , देखते हैं कैमरे की तरफ संजीदगी से , उत्सुकता से । उनकी आँखों में सुबह की चमकीली धूप का अक्स है ।
नाजिम दो तस्वीरें खींचता है । एक हँसते हुये ऊपर देखते चेहरे जिस पर सुर्ख पत्तियों की बारिश है , खुशी और हँसी की रौशनी है और दूसरी, संजीदा ज़रा ग़मज़दा, ज़िंदगी से मार खाये चेहरों की तस्वीर ।
ऐन वक्त जब नाजिम सुर्खपत्तियों वाली रौशन तस्वीर खींच रहा था , कोई एक तस्वीर और भी खिंच रही थी , पीछे से  , लोगों के पीछे से । इस तस्वीर में सबकी पीठ दिखाई देती है , सिर्फ नाजिम सामने से दिखता है , तस्वीर खींचते हुये ।
मुसाफिर को नहीं पता कि नाजिम की तस्वीर में , लोगों की भीड़ के पीछे , ज़रा धुँधलाये भेस में , थोड़ा अलग हट कर एक शख्स दिखता है , जो कैमरा आँख से सटाये ज़रा झुक कर तस्वीर खींचे जाने की तस्वीर खींच रहा है ।
*****
कूबड़ के शरीर पर खिला उसका सलोना चेहरा लोगों को परेशानी में डाल देता है । इतनी सुंदर , इतनी बदसूरत ?  ऐसी खूबसूरत ? माने ओह कैसी बला ! दोनों बातों के साथ-साथ खुलने की भयानक हैरानी होती है । लोगबाग पलट पलट देखते हैं । फिर सिहर कर मुड़ जाते हैं ।
वो कहती है शहर में जो नदी बहती है ..
हमदू परेशान बोलता है , कौन सी नदी ? कैसी ? यहाँ तो झील है सिर्फ ..
कुबरा के सलोने चितवन एक भेदभरी हँसी थिरक जाती जिसमें सौ मन गमों  का बोझ होता । धीमे करवट फेरकर , हमदू की तरफ पीठ करके कहती ,
है नदी , जो देखना चाहे , है उसके लिये..
उसके बाद कुबरा एकदम से हमदू की तरफ पलटती तो उसके हथेलियाँ फैल जातीं , जैसे उन उँगलियों से पानी छूटा बहता हो । जैसे बाज़ दफ़ा आँखों से बरबस आँसू निकलने लगते हैं । जीवन भर निकलते ही रहे । रंडी खाने में रंडी होकर बरसों एक गाहक न जुटा पाई , बावर्चीखाने में रोटियां सेंककर दिन निकाले । अपने हारे पर गरम सीसे की तरह पिघलती रही है कुबरा , धीमे-धीमे । कितने बरस । ..
ऑंखें मूंदे कुबरा हमदू के पसीने और दालचीनी की मिली-जुली गमक में भीजती रहती है । हमदू कुबरा के कूबड़ को अपनी छाती में भर लेता है । कुबरा सोचती है , सच है ये , सचमुच में सच , यह ऐसा गरम जिस्‍म किसी का ! जैसे जंगल में दिखा था , धीमे लय में उठता गिरता , पत्तियों से झरता , कितना सुंदर , कि मर जाती कुबरा । देखा था फिर तुरत हट भी गई थी । यही था न जिस्म का पानी हो जाना , नदी हो जाना । उसकी हथेलियाँ छाती से होती पेडू तक घूमती हैं , लहर पर लहर ।
बाहर बर्फ़ गिरती है , लकड़ी के दर्रों से , मोमजामे के बीच से , बहकती हवा भीतर आती है । सिगड़ी की आग छत के लक्कड़ को स्याह किये जाती है । जाने कितने बरसों की कालिख । कंबल की खुरदुरी गर्माहट में ये पहला जाड़ा है कुबरा के लिये ।
या खुदा , धीमे से उसकी साँस बुदबुदाती है ।
किसी पुरानी बात की टीस पर बेवक़ूफ़ फिर चुपके से रोने लगती है ।
****
नाजिम चुप देखता है । एक मक्खी उड़ती लकड़ी के तख्त पर मंडराती है । हवा में खुनक है । कई दिन बाद कुछ फीकेपन से ही सही , धूप अलबत्ता चादर से मुंह निकाले बाहर हवा में फैल गई है । सड़क के किनारे बर्फ़ के गँदले ढेर हैं । सुबह सड़क साफ करने वाले फावड़े से बर्फ हटा गये हैं । शहर में सिर्फ एक सड़क है , शाहराह । बाकी गलियाँ हैं । इस सड़क का ये सबसे आबाद हिस्सा है । सामने कहवाघर है , जहाँ से मिली जुली आवाज़ें चहकपने से उठती हैं  खिड़कियों के रास्ते , कहवा और कबाब के भाप और खुशबुओं के संग मिली कुछ देर फिज़ा में डोलती हैं । कहवाघर से लगा बावर्चीखाना है जहाँ गज़ब का शोरबा , कोर्मा ए रवाश , चपली कबाब और मोशपुलाव मिलता है । अच्छे दिनों में नाजिम कई बार फ़र्रूख़ज़ाद के लिये लिफाफे में मलीदा और खज़ूर लिये गया है ।
कहवाघर के एक तरफ अज़ ज़हरा बैंक है,  और दूसरी तरफ किताबखाना । किताबखाना झील से सटी गुँबदों वाली इमारत है जिसमें पढ़ाकुओं के लिये एक ज़वियत कुर्रा भी है । जाने कहाँ कहाँ की किताबें , गिलगमेश की दास्तान और असुरबनिपाल के अफ़साने , इब्न अल नदीम की फिहरिस्त , अबु अल हसन की मुरुज़ अध दहाब वा मआदिन अल जवाहिर , सुल ऐम इब्न कैस की किताब , क़ुरान और हदीस और पुराने दस्तावेज़ और खुशखती (कैलीग्राफी), चाँदी और काँसी के सिक्के , पुरानी जर जर किताबें , नक्शे , जाने क्या क्या ।
नाजिम की दुनिया उस दुनिया से अलग है । कहवाघर अलबत्ता उसे पुकारता है जब तब । आज खासकर जब ठंडी हवा बर्छी जैसी है , तब कहवाघर की गर्मी सपने में देखे सुकून की गर्माहट है। कुछ हाथ में पैसे आ जायें तो एक करारी नान खटाई और गर्म भाप उड़ाता कहवा ।
लकड़ी के बक्से पर बाबा आदम के ज़माने का पिनहोल कैमरा है । ठीक सामने काठ की कुर्सी है । बगल में तख्त है , उसपर कागज़ और केमिकल्स और ट्रे हैं , तुरत फुरत का डॉर्करूम । धुँधलाये , किसी ज़माने लाल रहा होगा , अब जाने क्या फीका रंग है वाला एक विनायल का चौकोर बक्सा है । उसमें अल्मूनियम की पट्टी लगी है , उसी का कब्जा है । एक छोटा ताला भी ।
भूरे ओवरकोट की जेब में हाथ छुपाये नाजिम सड़क देखता है । आधे किलोमीटर एकदम सीधे जाती सड़क फिर एक बार बायें घूमती है , फिर पहाड़ी टीले के पीछे जाती अचानक गायब हो जाती है । शहर टीले के बाद खत्म हो जाता है । हवा में नाजिम की दाढ़ी फरफराती है । उसकी नाक का कोना ठिठुर कर लाल हुआ जाता है । उसकी भूरी ललछौंह आँखों में मरी मछली सी उदासी है । कुछ साल पहले तक उसकी कमाई ठीक ठाक हो जाती थी । फ़र्रूख़ज़ाद को कभी घुमा भी लाता , कभी उसके लिये सूखे फल और लटकती बालियाँ भी खरीद लेता । तब फोटो खिंचवाने लोग आते थे । कारकुल पहने बुज़ुर्ग , लाल फटे गाल वाले बच्चे , हिजाब लपेटे बूढ़ी ख़वातीन और कभी बहुत अचक्के कोई एक जवान लड़की , शरमाती घबराती ।
***
इस छोटे से शहर में अरसे तक नाजिम फोटोवाला इकलौता तस्वीरें खींचने वाला हुआ । पुराने लकड़ी के बक्से से उसने खुद ये कैमरा बनाया था । कई दिन की मशक्कत और दिमाग लड़ाने के बाद सही पिनहोल और डब्बे के पीछे फिल्म वाली कागज़ की सही दूरी बन पाई थी । फिर कूट का लीवर और पुराने काले साटन का अम्मी के बुर्के का खोल ।
मगर सबसे बड़ी बात कि नाजिम की नज़र थी । उम्दा थी । उसमें उन चीज़ों को देखने का हुनर था जो सतह पर दिखती नहीं थीं । चेहरों के पीछे छुपी दुनिया नाजिम देख लेता । आँखों की पुतलियों और चेहरे की लकीरों से पढ़ लेता किसी के भी अंदर के राज़ को । और जब तस्वीर खींचता तो चेहरे के साथ उन सब दुनियायों की तस्वीर भी उतार लेता । कई बार लोग हैरान होते खुश होते , बिना जाने , बिना समझे कि तस्वीर देख क्या खुशी मिल रही है । कई बार ऐसा भी होता कि लोग बेआराम हो जाते । अंदर कोई कील ठुक जाती , कुछ ऐसा दिख जाता जिसे बरसों खुद से छुपाये चलते थे 
तस्वीरें , खुरदुरे कागज़ पर ऐसी उतरतीं जिनके किनारे पुछ जाते और चेहरे की तीखी कटान नर्मी के धुँधलायेपन में मुलायम हो जातीं । जैसे किसी ने हल्के हाथ चेहरों के शिकन सलीके से पोछ कर उतार लिये हों । आँखों की नज़र जितनी दूर जाती दिखती उतनी ही भीतर उतरती महसूस होती । कोई पूछता नाजिम से कि ऐसी तस्वीरें कैसे उतार लेता है तो नाजिम शर्तिया भौचक नासमझी से देखता मानो जानता न हो बात हो क्‍या रही है ।
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किताबखाने से सटे झील में चीड़ और देवदार के दरख्तों का अक्स है । उस नीले आसमान का भी और किताबखाने के नीले गुँबद का भी । दूसरे किनारे पर बत्तख और मुर्गाबियों का झुँड उतरता है ।
सड़क की तरफ वाले हिस्से पर तरतीब से लोहे के नक्काशीदार बेंच लगे हैं । जब धूप निकलती है तब बूढ़ी औरतें बच्चों के संग यहाँ बैठती हैं , अखरोट और चिलगोज़ों के लिफाफे थामे । बच्चे पानी के किनारे गर्म कपड़ों में मुँह से भाप उड़ाते खेलते हैं । उनके गाल और होंठ तीखी ठंडी हवाओं से ऐसे फटे पड़ते हैं मानो खून छलका अब कि तब । सफेद बालों वाली औरतें ऊनी शाल लपेटे धूप में आँख मिचमिचाकर बदन गरमाती बच्चों की हाँक लगातीं । कभी कभार कोई दादी नानी अपने दुलारे नाती पोते की तस्वीर खिंचवाने नाजिम की तरफ चली आती ।
सड़क की दूसरी ओर नाजिम अपने तख्त पर बैठा सड़कपार के नज़ारे पर आंखें फेरता है । मन के गहरे कुछ चिरा जाता है । उसे लगता है उसके भीतर कोई अजनबी आदमी है जिससे कभी वो मिला नहीं , जिससे शायद कभी मिलने की ख्वाहिश भी न हो । उसकी छाती भारी धँसती है । झील के पानी से कोई चीज़ उठकर उसके अंदर समा जाती है । वो चीज़ खौफ़ है क्या है नहीं मालूम ।
नाजिम को लगता है कोई बासी चीज़ उसके भीतर सड़ रही है , पानी में छूटे कपड़ों की बू । एक जोड़ी सीली डरी डूबी आँखें फिर उसकी पीठ से चिपक जाती हैं । दिलयार की लाश उसके कँधों पर लदी रहती है हमेशा । एक लमहा बस । सर से पैर तक लाचारी में नहाये नाजिम चाहता है शिद्दत से उस लमहे के पहले फिर से ज़िंदगी शुरु करे एक बार । पाक साफ ज़िंदगी ।
कभी मन करता है झील के उसपार देवदार और सनोबर के जँगलों में भाग जाये । कभी किताबघर में रखी किताबों और लकड़ी की आदमकद अलमारियों की अनजान तस्वीरें खींचने की सोचता । उस बूढ़ी औरत की , जिसके चेहरे पर कितनी अथाह झुर्रियाँ हैं पर जिसकी आँखें आग में जलते अँगारों सी चमकती हैं । उसका मन होता है एक बार बस ऐसे ही उठ कर चल पड़े उस सड़क पर , टीले के पार , बस चलता जाये । बस ऐसे ही और जो कभी लौटे तो कहवाघर में घुसे , ऐसे जैसे इस शहर में अजनबी हो ! कहवाघर की मालकिन नुसरा बी को कहे , ऐ फूफी , इन मर्तबानों और मशकों में जो भी बेहतरीन हो लाओ , फिर अपनी थैली खनखनाये और गाहकों की तरफ रिश्तेदारी से देखे और कहे , हाज़रीन आपको जो पसंद हो पियें खायें , बीबी सब मेरी तरफ से ।
कुबरा के सलोने मुख को देखकर बरबस हँस दे , फ़र्रूखज़ाद के मासूम रौशन चेहरे की रौनक से अपना दिल जगमग कर ले , दिल पर कोई स्याह छाया न हो , कोई अँधेरी रात न हो।
नाजिम के कँधे गिर जाते हैं । ज़मीन की नम मिट्टी में खोह बनाये दुबक जाने को जी चाहता है , अकेले, एकदम अकेले ।   
***
बकरी के दूध से बने सूखे पनीर का टुकड़ा चुभलाते नाजिम विनायल वाले बक्से पर हाथ फेरता है । तख्त के पीछे जो दरख़्त है उसकी शाखों से बँधे रस्सी पर तस्वीरें परचम सी फरफराती हैं , वो सारी तस्‍वीरें जिनके मालिक जाने किस गुमशुदगी में तस्वीर खिंचवाकर फिर साथ लिये जाना भूल गये । नाजिम ऐसे तस्वीरों को फेंकता नहीं । सब उसके साथ रहते हैं , हवा में लहराते । मेंहदीबाल वाले बुज़ुर्ग , वो खिच्चा लड़का जिसकी मूँछ की रेखा भी अब तक साफ न हुई थी , जिसके गले में चिड़िया फुदकती । नीली आँखों वाला वो नौजवान जिसका चेहरा किसी फरिश्ते सा पाक दिखता , और वो डकैत गलमुच्छों वाला अधेड़ जिसने तर्जनी उठाकर नाजिम को होशियार किया था कि तस्‍वीर में मेरे नाक का मस्सा न दीखे, हां !
चमकती धूप में नहाये कैसे सजीले दिन थे ! .. नाजिम मन ही मन मुस्‍कराने की कोशिश करता तो उसकी सांसें भारी हो जातीं ..  
***
ऐसा नहीं कि शहर में अचानक तस्वीरें खिंचवाने का शौक खत्म हो गया । इतनी बात हुई कि सड़क की पहली इमारत , जो कि एक सराय थी , उसके अगले हिस्से में किसी अजाने मुल्‍क से कोई परदेसी मुसाफिर एक नये कैमरे के साथ नमूदार हुआ । आया था घूमने वादियों में । नये ढंग का एक अच्‍छा , नया , कैमरा लिए । उसके कैमरे में आगे को निकली , एक लम्बी नली थी जिससे दूर बर्फ़ ढकी पहाड़ियों की तस्वीरें भी साफ सच्ची उतरती थी । मुसाफिर ने खेल खेल में कहवाघर में और झील के किनारे और मस्जिद की नक्काशीदार दरवाज़ों और मीनारों की तस्वीर खींचनी शुरु की , फिर बच्चों की और हँसते आदमियों की , लेटकर , बैठकर , झुककर । फिर उसने तस्वीरें दिखाई . सब ऐसी जैसे सचमुच से ज़्यादा सच हो , ऐसी रंगीन कि इतना रंग पहले किसी ने क्‍या देखा होगा , इतना साफ़ कि आँखें मल-मल देखो फिर भी मटमैला न हो ।
जाने कैसा मुसाफिर था जो आया फिर बस यहीं का होकर रह गया । सराय के कमरे से हट कर बुखरान के मकान की दोछत्ती उसका डेरा बना । सारा सारा दिन किताबखाने में बिता देता , फिर थके चेहरे पर भोली हँसी गिराये कहवाघर बैठने चला आता । देर रात तक रबाब और दिलरुबा के थाप पर लोगों की हँसी गूँजती । मेज़ पर कुहनी गड़ाये , दोनों पंजों पर ठोढ़ी टिकाये मुसाफिर की आंखों में चमकते डोरे कौंधते ।
फर्रूख़ज़ाद ही खबर लेकर आई थी कि किताब लिखने आया है । रहेगा साल दो साल । फिर खबर हुई खर्चे पानी के लिये मुसाफिर ने लोगों की तस्वीरें खींचनी शुरु की । चमकते कागज़ पर लोगों के सपने । टीले के पहले दायीं तरफ की पहली गली में दिलयार की बेवा हुमरा के फलों की दुकान के एक हिस्से में उसने अपनी दुकान खोल ली । आधे दिन वहाँ बैठता , फिर किताबखाने में जाकर गुम हो जाता । कोई तसवीर खिंचवाने वाला आता तो हुमरा अपने छ: साल के अफ़सान को किताबखाने दौड़ा देती ।
मुसाफिर के चेहरे में कोई ऐसी कशिश थी कि सब उसे खुश करना चाहते हैं । बूढ़ी औरतें उसे अखरोट और रसभरी के लिफाफे पकड़ाती हैं , बच्चे अपनी दूधिया हँसी । औरतें अपना दिल । बुखरान की दोछत्ती अचानक आबाद हो गई है । मुसाफिर भी लोगों को छोटी छोटी चीज़ें पकड़ाता रहता है , किसी का छोटा कोई काम कर दिया , किसी को अपनी खुशदिली ही दे दी । लेकिन बाज़वक्त मुसाफिर अपने कमरे में बँद हो जाता है । कई कई दिन निकलता नहीं । नौजवान दोछत्ती के बाहर गिरोह बनाये जुटते , फिर मायूस लौट जाते हैं । मुसाफिर के कमरे का दरवाज़ा बन्द रहता है । फिर अचानक एक दिन धूप निकलती है और कहवाघर के सामने रंगीनी का आलम सज जाता । मुसाफिर के गिर्द बातों की चरखियाँ नाचने लगती हैं ।
***
नाजिम के भीतर धीमे-धीमे एक टीस उठती , फिर अंदर-बाहर समूचे अपने गिरफ़्त में ले लेती । एक आह् छूटती , नाजिम सोचता हुमरा ये कैसी दुश्मनी निभाई तूने । हारे मन के वहशीपने में संगदिल ख़याल उठता बीच सड़क हल्‍ला मचाकर सबके आगे भेद खोल दे , कि बदज़ात मुसाफिर के संग फँसी है । फिर ऐसी सोच पर खुद शर्मिन्दा हो जाता है । शहर की दूसरी तरफ , जहाँ फलों के बगान थे , हुमरा अपने टप्परगाड़ी पर फलों की टोकरी लिये लौटती । नाजिम के तरफ से गुज़रती तो एक ठसक से उसकी तरफ देख लेती , फिर अपने खच्चर को पुचकारती ललकारती एक बार गुज़र जाने के पहले गुमान से देखती , चली जाती ।
रात अपनी बाँहों में सिर टिकाये नाजिम छत ताकता । फ़र्रूखज़ाद उसके सीने में दुबकती , फुसफुसाकर कहती , सब ठीक हो जायेगा । बाहर ठंडी हवायें सपसप बहती ।
नाजिम के कमर से बँधी थैली में सिक्कों की खनखनाहट फीकी होती जाती थी ।
किसी बूढ़े दरख्त के नीचे मसली पत्तियों की बू नाजिम के भीतर उतरती है । कभी देखा था उसने दो साँपों को आपस में गुँथे , छटपटाते , प्यार करते । यही हुमरा थी , और यही उसका शरीर , पक कर फट जाता बदन था । घास पर पसरा । हरी नीली नस की बूटियाँ बिखरी थीं । जँगली बूटियाँ । कैसे किस तरह हो गया था उस दिन ये सब ? हुआ भी था ? तस्वीर में सब्ज़ रंग की बहुतायत थी , और पीली रौशनी । एक जिस्म था , जो आधा  दिखता , ज़्यादा ओझल छुपा रहता । जो दिखता उसकी रेखायें रौशनी में घुलती जातीं । उस चेहरे पर समन्दर की नीली रंगत थी , उसकी छाती पर दो नर्म कबूतर थे और उसकी नाभि के नीचे एक छोटा नर्म घोंसला था जहाँ एक नन्हा पागल परिन्दा नीमबेहोशी में अपने पंख फड़फड़ाता । नाजिम की हथेलियों से परिन्दा बेकाबू उड़ जाता बार बार।
तस्वीर बक्से के सबसे भीतर वाले खाने में छुपा रखी थी । उसके कोने मुड़ चले थे , उसका कागज़ मटमैला , जबकि जब से रखा था कभी निकला न था । सिर्फ देखने की सोच भी सच के देख लेने से ज़्यादा होती है कई बार ।
***
सारा सारा दिन नाजिम अपने तख्त पर खुले आसमान के नीचे बैठा रहता । जिस कुर्सी पर बिठाकर वो तस्वीरें उतारता रहा था वो खाली पड़ी रहती । कुर्सी के पीछे दरख्त के पत्ते सुर्ख लाल थे । तस्वीरों में उनकी रंगत एक मुलायमियत से आती । मुसाफिर की तस्वीरों में आएगी कभी वो नरमी ?  वह रुमान वह रहस्‍य ला पाएगा मुसाफिर ? नाजिम सोचता लोग देखते नहीं क्या । तस्वीर सिर्फ तस्वीर नहीं होती , उसमें कितनी तो दुनिया होती है उसका क्या ?
नाजिम सोचता उसका शरीर सिकुड़ता जाता है । सिर्फ एक दिन आँखें बचेंगी जो वो सब देखेंगी जिसे और कोई नहीं देखता । हुमरा जो फ़र्रूखज़ाद की खालाज़ाद बहन है , अपने खाविंद दिलयार के बावज़ूद नाजिम से दिलजोई करना चाहती थी । जिसे एक के बाद एक मर्द की संगत चाहिये , दिलयार फिर नाजिम फिर मुसाफिर फिर कोई और । मर्दों को फुसलाती बहकाती जवानी झलकाती । जिसकी ज़रूरतें आग की तरह लपट मारतीं । जिसके शरीर से तीखी पकड़ लेने वाली महक उठती । और नाजिम जो फ़र्रूखज़ाद के सिवा और किसी को नहीं देखना चाहता । और हुमरा जो अब सिर्फ डंक मारना चाहती थी । और दिलयार जो कुछ नहीं जानता था । और बिना कुछ जाने मौत के गहरे गायब हो गया था ।
फ़र्रूखज़ाद को धीमे से खींचकर नाजिम सटा लेता है । उसके साँसों की संगत में सुकून है । थैली अब बिलकुल नहीं खनखनाती । नाजिम सोचता है अबकी किताबखाने जाकर हज़रत नसरूद्दीन से कहेगा यहीं मुझे किताबों की सफाई और देखरेख के लिये रख लो । जितना दोगे उतने पर करूँगा । या फिर लक्कड़ के कारखाने काम माँगने चला जाये , या बगानों में या भेड़ बकरियों की देखरेख का ही काम पकड़ ले । या फिर डाकखाने जाकर कोई पैरवी करे ।
नाजिम का दिमाग चलता नहीं अब ।
***
पिछले तीन दिनों से नाजिम ने अपनी दुकान खोली नहीं । कैमरा धूल खाता पड़ा रहा । फ़र्रूखज़ाद ने टोका तो उदासीन नज़रों से उसे ताक फिर बा

 
      

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