युवा शोधार्थी, मीडिया विशेषज्ञ विनीत कुमार ने यह कविता लिखी. पढ़ा तो आपसे साझा करने का मन हुआ. प्रस्तुत है उनकी ही भूमिका के साथ- जानकी पुल.
आदिकाल के रासो काव्य से लेकर नई कविता वाया छायावाद/प्रगतिवाद होते हुए हिन्दी का कोई छात्र इस तरह की लाइनें लिखेगा, संभव हैं इसे पढ़ते हुए आप दांत पीसने लग जाएं। हिन्दी साहित्य की चिंता में आपकी भौहें तन जाए और हताशा की स्थिति में आप मुक्के तक मारने लग जाएं। लेकिन कस्बे से भागकर आए हम जैसे लोग दिल्ली जैसे शहर में जिस मनःस्थिति के साथ जी रहे हैं,उसमें कविता या रचना हमारे इसी बेशर्मी के आसपास होगी। यह यकीन और किसी तरह के निष्कर्ष पर पहुंचने के बजाय एक उघड़ा सच है। बाकी सरोकार,मूल्य,मानवता और नैतिकता से आकंठ डूबे कथन और रचनाएं पाठ्यक्रम के हिस्से आकर गुजर गईं। कुछ की यादें अभी तक जेहन में है और कुछ से भरोसा उठ गया। जब शब्दों के भीतर की तरलता जीवन में उतरकर उसे नम ही नहीं कर पाती तो उन शब्दों पर भला कैसे यकीन हो? यह हिन्दी के एक बिलटउआ छात्र की आत्मस्वीकृति है। लिहाजा हम संवेदना के बजाय शेयरिंग और सरोकार के बजाय सक्रियता की नयी जमीश तलाश करने में जुट गए और कुछ अलग,कुछ खास खोजते-ढूंढते हम उस वर्चुअल यानी आभासी दुनिया के सच में शामिल हो गए जिसे साहित्य ने बहुत पहले ही दुत्कार दिया था। हम इसी में अपने रिश्ते-नाते,संबंध,सोच और शिकन खोजने और व्यक्त करने लगे। हमें ऐसा करते हुए एहसास हो रहा था कि हमारा यह सबकुछ करना स्थायी नहीं होगा लेकिन जिसे स्थायी रहना था, वह भरभराकर गिर गया तो अस्थायी के खत्म होने की पीड़ा पहले से ही क्यों? वर्चुअल स्पेस की इस सक्रियता में हम पहले से कहीं ज्यादा समझदार,ज्यादा संवेदनशील और भावनात्मक रुप से तरल हुए हैं। ये पंक्तियां उपमानों और संदर्भों के बदल जाने के बावजूद भी उन्हीं आदिम संवेदना और लगाव की जमीन खोजती-भटकती है जो शायद आगे चलकर बदल जाए।
फेसबुक के लिए एक प्रेम/सेक्स/अश्लील (!) कविता
फेसबुक
ओ फेसबुक, आओ ना
करीब और करीब, थोड़ा और
ओ फेसबुक, आओ ना
करीब और करीब, थोड़ा और
दो जिस्म एक जान होना नहीं समझते क्या ?
तुम्हारे तो लाखों हिन्दी यूजर्स हैं
उन्होंने बताया नहीं
तुम्हारे तो लाखों हिन्दी यूजर्स हैं
उन्होंने बताया नहीं
कि विरह में तड़पना क्या होता है ?
नजदीक आने पर सांसों में गांठ लगाकर लेट जाना
कितना सुखद होता है ?
मैं तुम्हारे साथ वही करना चाहती हूं
फेसबुक.
नजदीक आने पर सांसों में गांठ लगाकर लेट जाना
कितना सुखद होता है ?
मैं तुम्हारे साथ वही करना चाहती हूं
फेसबुक.
मैं तुम्हारे साथ फोर प्ले
( लाइक, टैग, शेयर, अपडेट ) करना चाहती हूँ
उस मदहोश पार्टनर की तरह
जिसकी अधखुली आंखें
आफ्टर सेव से पुते चेहरे पर जाकर ठहर जाती है.
जिसके हाथ हमेशा उतार-चढ़ाव के बीच
संतुलन बनाए रखने के लिए सक्रिय रहते हैं.
आफ्टर सेव से पुते चेहरे पर जाकर ठहर जाती है.
जिसके हाथ हमेशा उतार-चढ़ाव के बीच
संतुलन बनाए रखने के लिए सक्रिय रहते हैं.
मैं अपनी आंखों में वही मदहोशी चाहती हूं
उंगलियों में वही तड़प
उंगलियों में वही तड़प
कि तुम्हारे कमान्डस और हायपर पर पड़ें
तो तुम रात के सन्नाटे में सिसकारियां भरने लगो
एक फेसबुक यूजर की तड़प तुम नहीं समझोगे फेसबुक
तो तुम रात के सन्नाटे में सिसकारियां भरने लगो
एक फेसबुक यूजर की तड़प तुम नहीं समझोगे फेसबुक
नहीं समझोगे
कि तुमने मेरी मरती हुई इच्छाओं को कैसे हरा किया है ?
कैसे तुमने मुझ पर वो जादू किया
कैसे तुमने मुझ पर वो जादू किया
कि मैं तुम्हें आखिर कमिटेड सोलमेट मानने लगी हूं.
मैंने आर्कुट को कभी मुंह नहीं लगाया
मुझे वो शुरु से ही कोल्ड और एचआइवी पॉजिटिव लगा
थोड़ी उम्मीद बज़ से बंधी थी
पर वो जल्द ही शीघ्रपतन का शिकार हो गया.
मैं ब्लॉग,वेबसाइट,माइक्रो अपडेट्स में
पन्ने दर पन्ने भटकती रही
मुझे वो शुरु से ही कोल्ड और एचआइवी पॉजिटिव लगा
थोड़ी उम्मीद बज़ से बंधी थी
पर वो जल्द ही शीघ्रपतन का शिकार हो गया.
मैं ब्लॉग,वेबसाइट,माइक्रो अपडेट्स में
पन्ने दर पन्ने भटकती रही
लेकिन
भीतर की आग
लैप्पी के एग्जॉस्ट फैन की हवा में
और सुलगती रही.
भीतर की आग
लैप्पी के एग्जॉस्ट फैन की हवा में
और सुलगती रही.
जब तुम मेरी ज़िन्दगी में आए
स्काई ब्लू और व्हाइट से सजा गठीला शरीर देखकर ही
समझ गई कि तुम बहुत देर तक स्टे करोगे
स्काई ब्लू और व्हाइट से सजा गठीला शरीर देखकर ही
समझ गई कि तुम बहुत देर तक स्टे करोगे
और मैं फ्लो-स्लो की पीड़ा से हमेशा के लिए मुक्त हो जाउंगी.
ऐसा ही हुआ फेसबुक
सच्ची ऐसा ही हुआ.
ऐसा ही हुआ फेसबुक
सच्ची ऐसा ही हुआ.
मेरी सारी मरी इच्छाएं, अधूरे ख्बाब, टूटते सपने
एक-एक करके हरे और खड़े होने लगे
एक-एक करके हरे और खड़े होने लगे
मैं तुममे डूबती चली गयी
इतना भी पता नहीं चला
कि मैं अपने ब्वायफ्रेंड के बिना तो जी सकती हूं
पर तुम्हारे बिना हरगिज नहीं.
उसकी बांहो में होते हुए भी
उंगलियां तुम पर ही नाचती हैं.
इतना भी पता नहीं चला
कि मैं अपने ब्वायफ्रेंड के बिना तो जी सकती हूं
पर तुम्हारे बिना हरगिज नहीं.
उसकी बांहो में होते हुए भी
उंगलियां तुम पर ही नाचती हैं.
लेकिन
तुम नेटवर्क के मोहताज क्यों हो फेसबुक ?
मुझे डिपेंडेंट मेट बिल्कुल पसंद नहीं
जिसका वजूद इंटरनेट के होने पर टिका हो !
तुम उससे अलग होकर भी क्यों नहीं तन सकते
क्यों तुम अपने पापा जुकरवर्ग से नहीं कह सकते –
” पापा तन की खूबसूरती मेरे टाइमलाइन करने में नहीं
मुझे ऑफलाइन हग किए जाने में है.”
तुम मेरे लिए इतना भी नहीं कर सकते फेसबुक?
क्यों तुम अपने पापा जुकरवर्ग से नहीं कह सकते –
” पापा तन की खूबसूरती मेरे टाइमलाइन करने में नहीं
मुझे ऑफलाइन हग किए जाने में है.”
तुम मेरे लिए इतना भी नहीं कर सकते फेसबुक?
(उस लड़की के लिए जो चाहे किसी के बिना जी ले, फेसबुक के बिना नहीं जी सकती)