कुछ उसे एशिया का, कुछ दुनिया का सबसे ‘बड़ा’ साहित्योत्सव बताते हैं, कुछ महज एक ‘कार्निवाल’. गुलाबी शहर जयपुर में हलकी ठंढ की खुमारी में वहां की संस्कृति के प्रतीक एक महल(दिग्गी पैलेस) में आयोजित होने वाले जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल ग्लैमर, मीडिया, राजनीति और साहित्य के ‘मिक्स’ से एक ऐसा आयोजन बन गया है जिसके बारे में देख-पढकर साहित्य से बड़ी उम्मीदें बनती हैं. पिछले साल इस फेस्टिवल में औसतन ६००० लोग रोज आये. इस साल कहा गया है कि करीब १२ हज़ार लोग रोज आयेंगे.हालाँकि शामिल होने वालों ने बताया कि १२ हज़ार की संख्या भी बहुत पीछे छूट चुकी है. इस साल दिल्ली विश्वविद्यालय के कई कॉलेजों के अंग्रेजी विभागों के विद्यार्थी बड़ी संख्या में वहां के ‘साहित्यिक’ माहौल को देखने-महसूस करने गए हैं. यही इस महोत्सव की सफलता का बड़ा कारण बताया जाता रहा है कि बड़ी संख्या में युवा इसमें शिरकत करते हैं. मैंने इस साल दो छात्रों को जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल को लेकर बात करते सुना था. वे अफ़सोस जता रहे थे कि इस दफा कोई ‘स्टार’ नहीं आ रहा है. क्योंकि इसी फेस्टिवल में युवा आमिर खान, ओम पुरी से लेकर जावेद अख्तर, शबाना आज़मी जैसे फ़िल्मी सितारों के साथ पहले हिस्सा बनते रहे हैं. सही है कि इस बार न कोई बड़ा लेखक न कोई बड़ा फ़िल्मी सितारा इसमें शिरकत करने आ रहा है. लेकिन सलमान रुश्दी के आने न आने की खबर ने इस महोत्सव को ऐसी पब्लिसिटी दी कि कहा जा सकता है कि सितारों की परवाह कौन करता है. वैसे भी इस साहित्यिक मेले में जो खास बनकर आते भी हैं वे भी आम हो जाते हैं.
२००६ में इस महोत्सव के शुरु होने के कई कारण थे और इसकी अप्रत्याशित सफलता के भी. भारतीय उप-महाद्वीप अंग्रेजी पुस्तकों का सबसे बड़ा बाजार बनता जा रहा है. प्रकाशन के अंतरराष्ट्रीय ब्रांड यहां मजबूती से अपनी धमक दिखा रहे हैं. केवल लेखक ही नहीं ‘ग्लोब’ के इस हिस्से में किताबों के खरीदार भी बढ़ रहे हैं. जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल लेखकों, प्रकाशकों, साहित्यिक एजेंटों, लेखक बनने की आकांक्षा रखने वाले युवाओं को आपस में घुलने-मिलने का अवसर प्रदान करता है. दिन में जमकर व्यापार होता है, शाम को मनोरंजन के कार्यक्रम. इसकी तुलना अंतरराष्ट्रीय सिनेमा के कान फिल्म फेस्टिवल से की जाने लगी है. जैसे अंतरराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में सिनेमा के चाहने वाले सिनेमा तो देखते ही हैं, सिनेमा के महारथियों के साथ चाय-कॉफी पीते हुए उस माहौल से जुड़ने का मज़ा उठाते हैं. साहित्य भी एक बड़ा बड़ा व्यापार बन चुका है- जयपुर साहित्य महोत्सव जैसे इसका घोषणापत्र है.
पहले यह कहा जाता रहा कि एक हिंदी प्रदेश में हो रहे इस मेले में भारतीय भाषाएँ कहां हैं? लेकिन अब संख्या के आधार पर देखें तो ऐसा कहने का कोई कारण नहीं दिखाई देता है. धीरे-धीरे इसमें भारतीय भाषाओं में हिंदी की भागीदारी बढ़ रही है. पहले हिंदी के ‘एलिट’ माने जाने वाले लेखक इसमें आये, अब तो हिंदी का भी खासो-आम तबका वहां पहुँचने लगा है. कुछ बड़े-बड़े नाम होते हैं, कुछ उनके सुझाये हुए नाम होते हैं, कुछ टेलीविजन मीडिया के महारथी जो साहित्य की ज़मीन के विस्तार पर लगभग हर साल चर्चा करते हैं, कुछ सिनेमा के गीतकार-लेखक जिनकी लोकप्रियता के सामने हमारे बड़े-बड़े लेखक भी बौने नज़र आने लगते हैं. कुछ स्थानीय अफसर लेखक, पत्रकार होते हैं, जो हो सकता है स्थानीय स्तर पर आयोजन में मदद करते हों. इसी तरह उर्दू के फ़िल्मी-इल्मी शायर होते हैं जिनको केवल उर्दू का कहना उर्दू शायरी के प्रभाव को कम करके आंकना होगा. कुछ अन्य भारतीय भाषाओं के भी चर्चित-विवादास्पद लेखक होते हैं. अगर यह कहा जाए कि यह पूरी तरह अंग्रेजीदां महोत्सव है तो इसके विपक्ष में तुरंत इतने नाम गिनाये जा सकते हैं आपकी पहली बात खंडित हो जाए.
कुल मिलकर, हिंदी का ‘स्पेस’ बढ़ रहा है. लेकिन एक तर्क यह भी दिया जा सकता है कि अगर जयपुर की जगह यह महोत्सव ऊटी में होता तो शायद दक्षिण की भाषाओं का इसमें बोलबाला होता. असल में इसे भी अंग्रेजी के पुस्तक व्यवसाय के एक ‘ट्रिक’ की तरह देखा जा सकता है. हिंदी के लेखकों के होने के कारण बड़े पैमाने पर हिंदीदां पाठक-श्रोता दिग्गी पैलेस का अनुभव लेने आते हैं और जिनमें से ज़्यादातर बाद में अंग्रेजी किताबों के खरीदार ही बनते हैं. ऐसा कहने का एक ठोस कारण यह भी बनता है कि हिंदी के प्रकाशक-पुस्तक विक्रेता अभी वहां आते भी हैं तो दर्शक की तरह ही. अंग्रेजी के जो राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय लेखक उनकी पुस्तकें भी नए-नए कलेवर में यहां दिख-बिक जाती है. लेकिन हिंदी के लेखकों की किताबों की उपलब्धता जैसे बाज़ार में मुश्किल है वैसे ही यहां भी. कहा जा सकता है हिंदी के प्रकाशकों को इस दिशा में पहल करनी चाहिए. जयपुर साहित्य महोत्सव तो बस माहौल बनाता है. पुस्तकों का व्यापार उनका काम नहीं है.
इस तरह के बड़े ‘सफल’ मान लिए गए महोत्सवों में हिंदी वालों की यह सच्चाई और खुलकर सामने आती है कि हिंदी में अख़बारों के पाठक भले बढ़ रहे हों पुस्तकों के पाठक नहीं. यह पुराना घाव है जो ऐसे अवसरों पर और टीस मारने लगता है. हिंदी में किसी भी तरह की किताबें आजकल नहीं बिक रही हैं. एक ज़माने में ‘लोकप्रिय’ माना जाने वाला साहित्य भी अब इतिहास की कहानी बनकर रह गया है. बड़े-बड़े अंतरराष्ट्रीय प्रकाशकों ने अनुवाद से लेकर नेताओं-टेलीविजन स्टारों की किताबें छापकर देख ली, हमारे धुरंधरों को आजमाकर देख लिया. पुस्तकालयों से बाहर साल भर में हज़ार किताबें बेच पाना अभी भी हिंदी में एक उपलब्धि मानी जाती है. इसीलिए हिंदी को लेकर इस महोत्सव में भी अधिकतर सत्र हिंदी की स्थिति, ऐसी हिंदी-कैसी हिंदी को लेकर होते हैं या इंटरनेट की हिंदी के बहाने कुछ युवा ऐसे बातें करते हैं जैसे हिंदी का भविष्य वे ही निर्धारित का रहे हों. हिंदी के लेखकों के लिए यही कम संतोष की बात नहीं है कि उनको भी दुनिया के बड़े-बड़े लेखक ‘ब्रांडों’ के साथ कंधे से कंधा लड़ाने का मौका मिल जाता है, फोटो खिंचवाने का मौका मिल जाता है. बड़ी बात है.
वैसे हिंदी के सन्दर्भ में इसके सकारात्मक पहलू भी देखे जा सकते हैं, देखे जाने चाहिए. निश्चित रूप से एक ऐसा महोत्सव बन गया है जिसने अंग्रेजी पुस्तकों का अच्छा बाजार बनाया है, उनको लेकर अच्छा माहौल बनाया है, उनको सीधा पाठकों से जोड़ने की दिशा में एक बड़ा काम किया है. उस बाज़ार में हिंदी का ‘शेयर’ बढाने के लिए भी बड़ी शिद्दत से कोशिशें की जा रही हैं क्योंकि देश के कई बड़े अंग्रेजी प्रकाशक अब हिंदी में भी किताबें छाप रहे हैं. एक अच्छी बात यह भी है कि वे हिंदी में किताबें लाइब्रेरी में थोक बिक्री के लिए नहीं छापते. वे पाठकों तक सीधा पहुंचना चाहते हैं. यह उम्मीद की जानी चाहिए कि हिंदी का लेखक भी इस बदलते माहौल को समझे और ऐसी किताबें लिखे जो पाठकों के लिए हो. वरना अभी तो लेखक लेखक की सम्मति के लिए ही लिखता है. यह भी उम्मीद की जा सकती है कि कल को ऐसे आयोजनों में हिंदी के लेखक केवल ‘आह हिंदी! वाह हिंदी!’ की चर्चा के लिए न बुलाए जाएँ, उनकी किताबों को लेकर भी चर्चा हो, हिंदी के लेखकों का भी ‘ब्रांड’ बने. वे महज तमाशबीन बनकर न रह जाएँ कुछ उनका भी तमाशा हो. साहित्य के इस सबसे बड़े मेले में उनका भी हो-हल्ला हो.
लेकिन फिलहाल जयपुर दूर दिखाई दे रही है.
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