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कहां हो दिल्ली के परमज्ञानी आचार्य?

जशपुर के ठूंठी अम्बा गाँव में एक पिता जिसकी बेटी हाल में ही लौटी 

युवा कथाकार-पत्रकार आशुतोष भारद्वाज छत्तीसगढ़ के ग्रामीण-जंगली इलाकों को एक नई नज़र से देख रहे हैं, ऐसी नज़र से जिसमें लोगों को पहचानने के बने-बनाये सांचे नहीं हैं, बल्कि इंसान तक पहुँचने वाली इंसानी समझ है. वे वहां के जीवन का दूसरा पहलू हमारे सामने ला रहे हैं- जानकी पुल.


सत्रह नवंबर। गांव ठूंठी अंबा। जशपुर।
नवंबर के जिस पहले सप्ताह यह प्रदेश अपने ग्यारहवें जन्मदिन पर भव्य राज्योत्सव मना रहा था इस सुदूर गांव की दो लड़कियां दिल्ली से वापसी-यात्रा शुरु कर रहीं थीं। दो साल बाद घर लौटती सोलह और अठारह की इन लड़कियों के पास सिर्फ टिकट लायक रुपये थे। वे पहले रांची पहुंचती हैं, फिर तकरीबन पांच सौ किलोमीटर दूर अपने घर— ठूंठी अंबा ।
ये लड़कियां, जशपुर और सरगुजा की सैकड़ों आदिवासी लड़कियों की तरह, राजधानी के घरों में काम कर रहीं थीं, मां-पिता ने भेजा था आस से कुछ कमा लायेंगी लेकिन हजार रुपये मासिक तनख्वाह प्लेसमैंट एजैंसीरख लिया करती थी। दो साल बाद भी जब कुछ नहीं, घर वापसी निर्विकल्प।
तकदीर वाली थीं वे लौट आयीं थीं। उनमें से एक की छोटी बहन चार साल पहले हैदराबाद भेजी गयी, जब वह सिर्फ दस की थी, कोई खबर नहीं अब तलक। उसका पिता झोंपड़ी के अंधेरे को टटोल एक मुचड़ा कागज निकाल लाता है, अंधे कुंए से पकड़ा मरा चूहा कोई। कागज पर अंग्रेजी में पता लिखा है, एक फोन नंबर भी — बंजारा हिल्स। हैदराबाद की मंहगी आवासीय कालोनी। पिता अंग्रेजी नहीं पढ़ पाता, उसे नहीं मालूम कौन सी जगह है यह।
मेरी लड़की यहां काम करती है। फोन करने पर कहते हैं उसे अकेले कैसे भेजेंगे, आकर ले जाओ।
पिता, मां और दिल्ली से लौटी बड़ी बहन कच्ची झोंपड़ी के बाहर इस शाम बैठे हैं। ढेका पहाडि़यों से घिरा झारखंड की सीमा छूता गांव। इस गांव और यहां से आठ किलोमीटर दूर आरा पंचायत तक बिजली का तार, खंभा नहीं। बीहड़ पहाड़ी जगंल — साइकिल एकमात्र साधन।
राजधानी रायपुर में कई दिनों से राज्य के पावर सरप्लसहोने का जश्न। पांच सौ किमी रायपुर छूने में अपनी कार से भी पंद्रह-सोलह घंटे लगेंगे।
दिल्ली में कैसा जीवन था? दोनो लड़कियां खुले पथरीले मैदान को ताकती रहती हैं। हॅंसने, दुखी होने की सहज मानवीय क्रिया उनके जैविकीय व्याकरण से विलुप्त। आक्रोश ठंडी आंखों में जम कर ठोस सफेद बर्फ बन चुका है। कठोर, चिकनी बर्फ।
कुछेक जगहों के नाम बस याद रह गये हैं— राजौरी गार्डन, जनकपुरी।
पड़ौसी कोई दोपहर से मछली पकड़ने गया लकड़ी का बारदाना लिये खाली हाथ लौटा है, उनको बाहर बैठा देख अटक जाता है।
जशपुर में पिचासी प्रतिशत आदिवासी। पूर्व मुख्यमंत्री का दावा जिले की बीस हजार लड़कियां गायब हैं, ‘प्लेसमैंट एजैंसीउन्हें फुसला महानगर ले गयीं थीं। लापता अब। एनजीओ भी ऐसा ही कुछ बतलाते हैं। पुलिस रजिस्टर में लेकिन सौ-एक गुमषुदा शिकायत ही दर्ज पूरे जिले में पिछले पांच-छः साल में।
अगर इतनी बड़ी संख्या में लड़कियां गायब होंगी तो क्या थाने में शिकायत नहीं होगी?‘ पुलिस अधिकारी पूछते हैं। प्लेसमैंट एजैंसीके कुछ दलाल छठे-चैमासे गिरफ्तार होते रहते हैं, कानून का खुशनुमा माहौल सा बना दीखता है।
आकंड़े बेईमान हो सकते हैं, होते भी हैं। यह मसला आंकड़ों का है भी नहीं। यह सामूहिक ग्लानि है, शर्म नहीं ग्लानि। रामचन्द्र शुक्ल जो कहते थे शर्म से आप मुंह मोड़ बच सकते हैं ग्लानि तकिये में चेहरा गड़ा देने के बावजूद खाये जाती है।
दस से चौदह साल की आदिवासी बच्चियां राजधानियों के कुंए में डुबो दी जाती हैं, कोई रस्सी नहीं जिसे थाम वे उपर आ सकें। कानून चुपचाप लागू रहता है— चौदह से कम उम्र के बच्चों से काम लेना दंडनीय अपराध।
यह बच्चियां खबर बनती न कभी दिखलाई देतीं। महानगरीय तिलिस्म का चुप आहार। इन्हें स्कूल, खिलौने, सखियां, सपनों की मोहलत या सहूलियत नहीं। बांद्रा या ग्रेटर कैलाश के घरों में काम करती ये कई साल बाद विद्रोह करती हैं, और तब पुलिसिया चुस्ती इन्हें किसी होटल के कमरे से गिरफ्तार करती है, चेहरा दुपट्टे से ढकी इनकी तस्वीर अखबार को दर्शनीय बनाती है, पुलिस रजिस्टर में इनका नाम दर्ज होता है, कई साल की लापता ये लड़कियां अचानक पा ली जाती हैं।
इस गांव की सबसे नजदीकी पुलिस चैकी, आरा चौकी, पर कुछ साल पहले बड़ा नक्सली हमला हुआ था, नक्सली चौकी लूट ले गये थे, सिपाहियों को पंक्ति में खड़ा कर गोली दागी थीं।
यह हमला उसी वक्त हुआ था जब इस इलाके की कई लड़कियों को बटोर एक प्लेसमैंट एजैंसीट्रैक्टर में भर ले जा रही थी। कोई समझ नहीं पाया क्यों।
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पांच दिसंबर। रायपुर।
किशनजी की मृत्यु के विरोध में नक्सलियों का सप्ताह-बंद। पिछले कई दिनों से बीजापुर, दंतेवाड़ा में पर्चे बिखरे मिलते हैं, कलैक्टर, पुलिस अधिकारियों को मारने की धमकी। निर्माणाधीन स्कूल में काम करते मिस्त्री का पंजा काट दिया। रेल की पटरियां उखाड़ दीं। यात्री बस जंगल में रुकवा दी, यात्रियों को रात भर धमकाया। कांकेर में टिफिन बम बरामद। पूरे बस्तर क्षेत्र में उत्पात।
ठीक है, लें बदला। जरूर लें। आपका नेता मारा गया है तो कुछेक लाष आप भी टपकायें, ‘बुर्जुआ व्यवस्थाको ध्वस्त करें। बंदूक क्रांति कर डालें। लेकिन भाईसाहब यह तो बतलायें तीन महीने से नक्सल-पूंजीवाद गठजोड़ के सबूत लगातार सामने आ रहे हैं आप चुप क्यों हैं? क्यों इन सबूतों का खंडन नहीं है? नक्सलियों द्वारा इस प्रदेश में कार्यरत बड़ी कंपनियों से हफ्ता लेने की अफवाहें बहुत पुरानी है लेकिन पहली मर्तबा ऐसी एक कंपनी के प्रमुख अधिकारी समेत चार गिरफ्तारियां हाल ही हुईं, साक्ष्य सामने आये, अखबार लगातार लिखते रहे— नक्सल पूंजीपतियों से चंदा उगाही की व्यवस्था बने — लेकिन किसी नक्सल नेता या उनके समर्थक का अपने संगठन को इससे अलग करते हुये कोई बयान नहीं आया।
बहुराष्ट्ीय कंपनियां, पुलिस के अनुसार, करोड़ों रुपया सालाना लाल-कं्रातिकारियों को देती है जिसके एवज में जंगल और आदिवासी भूमि के यह स्वयंभू रक्षक उन्हें चुपचाप प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने देते हैं। पुलिस इन इलाकों में पहुंच नहीं पाती, खनिज में डूबी इस प्रान्त की मिट्टी इन कंपनियों की बपौती होती गयी है, लालधारी का लेकिन बेफिक्र खर्राटा। उन्हें हफ्ता जो मिलता रहता है।
क्रांति की तलवार घुमा वाहन रोक लेंगे, यात्रियों के मोबाइल फोन छीन लेंगे। सरपंच और छुटकल्ले दुकानदार का कत्ल करेंगे, लेकिन कंपनी का चंदा भी डकारेंगे।
यह केस, गिरफ्तारियां और लालधारियों की चुप्पी नक्सल आंदोलन — अगर इसे आंदोलन जैसा माना जाये तो — के लिये एक बड़ी चुनौती है। यह उस मिथक को भस्म करता है जिसे चमकते पीतल की गोली की नोक से नक्सली लिखते आ रहे हैं। यह क्रांति की मिथकीय धातु से बना नक्सली का अभेद कवच ध्वस्त कर उसे एक टुच्चे, बेशर्म ठग में तब्दील करता है जो जिन वनवासियों के हितों की रक्षा के लिये लड़ने का हलफ उठाये घूमता है असल में उन्हें ही छलता है, उनके ही वनों का सौदा करता है। दिन में लाल सलाम ठोंकता है, रात अपने स्वघोषित दुश्मन पूंजीपतिद्वारा फेंके गये गोश्त को चबाता है। जो खाता और गुर्राता भी है। काटना, जाहिरी तौर पर, वह भूल चुका है। बूढ़ी औरतें अपने नकली दांत निकाल रात पानी में रख देती हैं, नक्सली अपने दांत पूॅजीके सल्फरिक एसिड में डुबो पसर जाता है। पोपला नक्सली अब महज संभावना नहीं है।
इतिहास में यह अंत भी चुपचाप ही आयेगा।
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रायपुर। दिसंबर।
गृह मंत्री की नवंबर में यहां प्रैस कांफ्रैंस। पिछले कुछ समय में, वे सचेत करते हैं, नक्सली-पुलिस मुठभेड़ में कमी आई है लेकिन इसका यह अनिवार्य अर्थ नहीं कि नक्सल उपस्थिति घट रही है। यह भी संभव कि पुलिस और नक्सल सीधी मुलाकात से बच रहे हैं— क्षणिक और सुविचारित शांति।
यह उल्लेखनीय है। आंतरिक अलगाव और हिंसा से जूझने की भारतीय नीति। अमरीका की तरह चिरंतन हमलावर मुद्रा बेकार। आप विरोधी को थका देते हैं, उसकी शक्ति नहीं धैर्य पर प्रहार। हाल ही बस्तर क्षेत्र में नक्सल बंद के दौरान जब उत्पात मचा था, पुलिस हैरान कर देने की हद तक शांत थी। नक्सली सड़कों, राजमार्ग पर खुलेआम उतर आये थे, लैंडमाइन विस्फोट, एक सिपहैया तक नहीं लेकिन। उनको पूरी छूट दे दी थी। समूचा बस्तर पूरे राज्य से कट एक टापू बन गया था।
‘‘किशनजी की मौत के बाद बौखलाये हैं…कर लेने दो थोड़ा उधम। क्या करेंगे इससे ज्यादा कि दो एक पुलिया फोड़ देंगे, पोस्टर फेंकेगे, सड़क बंद ट्रेफिक रुका रहेगा थोड़ा समय…बस, एक पुलिस अधिकारी ने इस दौरान दिलचस्प बात बतलाई। ‘‘कब तक हल्ला करेंगे, कुछ दिन बाद थक कर चुप हो जायेंगे, वापस जंगल में घुस जायेंगे…इस समय जोश में हैं, अगर उनसे टकराये तो नुकसान हमारा ही होगा।‘‘
यह भारतीय तरीका है विरोध से जूझने और उबरने का। आप विरोधी को आक्रोशित होने का स्पेस देते हैं, उसे कुछ हद तलक मनमानी भी करने देते हैं कि वह अपने टूटे अहम् को थोड़ा सहला भी ले। मवाद फूटने गुबार बह जाने के बाद, खासकर तब जब वह इस दौरान कुछ हासिल नहीं कर पाता, विरोधी शक्तिहीन हो जाता है। आक्रोश कुंठा फिर हताशा में रूपांतरित होता है। धीमी मृत्यु। उत्तरपूर्व से खलिस्तान तक भारत ने अलगाववादी आंदोलनों को इसी तरह संभाला है। शक्ति की महीन, शांत लेकिन समर्थ उपस्थिति। नक्सली से लड़ाई का चक्रव्यूह भी इसी प्रत्यय पर रचा जा रहा है।
गुरिल्ला लड़ाई और परंपरागत युद्ध, अगर परंपरा जैसा कुछ है तो, में यही फर्क है। छापामार संघर्ष हथियार नहीं धैर्य की परीक्षा है, जंगल में मचान बांधे छुपे बैठे सिपाहियों को मारक अस्त्र से कहीं अधिक अपनी जमीन पर टिके रहने का बूता चाहिये। विदेशी दुश्मन को युद्ध में सामरिक शक्ति के दम पर सीमा पार कर ध्वस्त किया जा सकता है, अपने ही घर के किसी अनजान कोने में छुपे बैठे विद्रोहियों को शक्ति से कुचलना संभव न जायज।
अविजित प्रतीत होते इस तर्क का लेकिन एक प्रत्युत्तर भी है। अगर कोई गुरिल्ला दल लड़ाई नहीं हारता तो वह उसे जीत जाता है, परंपरागत सेना लड़ाई नहीं जीतती तो हार जाती है।
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रायपुर के होटल बेबीलोन में दिसंबर की एक शाम।
रणभूमि से लौटे सिपाही की संगति किसी उपन्यासकार की उपस्थिति। 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में वे एक युवा कमांडो थे। आज सेना से सेवानिवृत्त बड़े अधिकारी। यहां सिपाहियों को युद्ध-कौशल सिखलाते हैं। पैंसठ की उम्र, लेकिन कसी टी-शर्ट और काउ ब्वाय हैट। बार में भी देर तक हैट पहने रहे। दूसरी बीयर के बाद हैट उतार बगल की कुर्सी पर रख दी। उनके अनुभव — कोबरा को पकड़, भून कर खाया। ‘‘बचपन से तुम्हें घर में सिखाया जाता है, सांप से डरो। जब कोबरा पेट में पहुंच गया, काहे का डर। इट टेस्ट्स लाइक ए नाइस फिश। दैट्स इट।‘‘ पांच सौ से अधिक सांप अब तक टेंटुआ पकड़ दबोचे होंगे उन्होंने। ‘‘मुझे सांप काट नहीं सकता, गोली छू नहीं सकती।‘‘ सूंघ कर लैंडमाइन की उपस्थिति पहचान सकते हैं।
दुनिया भर के उनके किस्से मुराकामी और मार्केस के गल्प को शिकस्त दे जायेंगे। त्रिपुरा, कश्मीर, ईराक, असम — उनकी पोटली में गाथायें भरी पड़ी हैं। उनकी विशुद्ध तथ्यात्मक कथायें हमारी भाषा के न मालूम कितने कहानी-उपन्यासकारों की घनघोर कल्पना को भी निरा मरियल और मुर्दार बना देंगी। वे अपनी कर्म-कथा के प्रति इतने सहज ढंग से निष्ठावान थे कि उनके हरेक अल्फाज पर एक अनुभव कुर्बान हुआ दीखता था और उनके प्रत्येक अनुभव पर कायनात का पहला और आखिरी लफ्ज न्यौछावर होने व्याकुल था।
हमारी भाषा के कितने गल्पकार होंगे जिनसे गुजरते वक्त यह कौंधता रहे यह लफ्ज कुर्बानी की रात उतरा है, इसके जिस्म पर लहू के निशां अभी गीले हैं, इसकी गर्भनाल के सुर्ख महावर के तिलिस्मी सरोवर में एक बार डूबे तो बस गुड़ुप।
कृष्ण बलदेव वैद की डायरी में लगातार यह तड़प मचलती है — सिर्फ वही लिखूं जिसके बगैर रहा न जा सके, जिस पर कुर्बान हो सकूं।
या फिर खून और खौफ के सीमांत पर अटकी फर्नांदो पैसोआ की द बुक आफ डिसक्वाइट। एक जगह वे लिखते हैं — अनुभूति का आतंक। अनुभूत करने की बाध्यता का आतंक।
अनुभूत होने का आतंक भी होता होगा, काफ्का के मकां में शायद। वह लेखक जो रोशनी से डरता था, खुद को सबसे छुपा किसी डिबिया में मूंद कर रख देना चाहता था।
अपने लफ्ज पर कुर्बान होना। बड़े लेखक का पहला निशां यही है।
अठारह नवंबर। फोसकोटली गांव। जशपुर। रात सवा ग्यारह।
गोकुली मेला।
फिल्मी, आधुनिक, नागपुरी, छत्तीसगढ़ी गानों से भरपूर प्रेम कहानी ;लव स्टोरी; छत्तीसगढ़ी नाटक, सुलोचना हरण।
मेले में एक नाटकमंडली का बैनर। साढ़े दस से शुरु हुआ नाटक; नौटंकी? रात भर चलेगा। ठंड की फिक्र किये बगैर गांव पंडाल पर सिमट आया है। राम कथा में शानदार हस्तक्षेप। कथा तंतुओं में मजेदार-जानदार सेंधमारी। इस कथा में सीता का नहीं, मेघनाद पत्नी सुलोचना का हरण होता है। बेचारे वाल्मीकि, तुलसी बाबा बेकार कह गये सुलोचना सती हुई थी। नाटक निर्देशक गुरुजीसे किसी ने पूछा ही नहीं। अचंभित हैं गुरुजीएक शहरी को देवी सुलोचना की यह प्राचीनकालीन कथा नहीं मालूम। हिंदुस्तान में कौन सी कथा प्राचीन नहीं है, थी! लेकिन आधुनिक- फिल्मी गाने? कथा आरिज्जिनल संस्कृतकी है लेकिन पब्लिक को भी देखना पड़ता है, गुरुजी बतलाते हैं।
तो इस कथा-नाटिका उर्फ सुलोचना-हरणिका में लड़के महिला किरदारों का रोल निभा रहे हैं। ग्रीन रूममें अपने पेट-पीठ पर उस्तरा फिराते है, चमचम सफेद पाॅडर, झमाझम सुर्ख टिकली। खौंस कर अटकायी लाल ब्रा। झप्पाटे से समेटा सलमा सितारों वाला घाघरा। हो गयी सुलोचना दुलहनिया तैयार। कर लो उसका हरण और वरण। होगी कोई सीता मैया या जै श्रीराम। यहां तो लोचन-महिमा सुलोचना सिर्फ और नमकीन नर्तकियां। दर्शकों को पता है लड़के हैं यह लेकिन सीटी में कोताही नहीं। औरतें इस नचनिया की चमकती पीठ पर फिदा। लाउडस्पीकर मैदान के बाहर तक मचल रहा है।
दिल्ली विश्वविद्यालय बेचारा अपने इतिहास पाठ्यक्रम को धर्मनिष्ठ-मयार्दाविष्ट ;विष्ठ/विष्ठा?!बनाने को आतुर। राम कथा का मानकीकृत स्वरूप निर्धारित किये बगैर नहीं मानेगा। आचार्यगण आयें कभी इन इलाकों में जहां आदिवासी राम और उनकी कथा के साथ रेत-घरोंदे का खेल खेलते हैं — अपने किरदार रचते हैं, मिटा देते हैं। हर पीढ़ी के गुरुजीकी पब्लिक डिमांड पर विशिष्ट राम कथा। इस साल सुलोचना अगले साल मंदोदरी हरण। ले ले सिंगट्टा।
तुर्रा यह कि यह जिला नक्सल-प्रभावित। बहुत संभव मेले में जुड़ी दो हजार करीब भीड़ में खासी संख्या नक्सली या उनके समर्थकों की भी होगी। हुआ करे। बंदूकें और तमंचे भी सुलोचना बेचारी को हरण होने से नहीं रोक पायेंगे। कहां हो दिल्ली के परमज्ञानी आचार्य?
 
      

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