कथाकार-पत्रकार आशुतोष भारद्वाज छत्तीसगढ़ के नक्सली घोषित इलाकों में घूम-घूम कर बड़ी बारीक टिप्पणियां कर रहे हैं, बड़े वाजिब सवाल उठा रहे हैं. भूलने के विरुद्ध एक जरूरी कार्रवाई- जानकी पुल.
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नये साल की पहली रात।
बस्तर और कश्मीर की भौगोलिक काया और जैविक माया में रोचक साम्य — बेइंतहा हसीन दरख्त, झरने, पहाडि़यां और उन पर मोर्चा बांधे जवान। दिसंबर की किसी सुबह डल के किनारे टहलिये, शंकराचार्य मंदिर की पहाड़ी चढि़ये, बंदूक लहराता कोई जवान आपका हाल पूछने आ जायेगा। थोड़ा दूर बख्तरबंद गाडि़यां खड़ी होंगी। दंतेवाड़ा में झाडि़यों से उलझते वक्त आपको पता भी नहीं होगा अचानक से सीआरपीफ का कैंप सामने आ जायेगा।
कुछ बड़े महत्वपूर्ण फर्क लेकिन। कश्मीर की काया बड़ी निखरी — करीने से बिछे पेड़, तहों में लपेटे बादल। गुलाबी चेहरे। छुओ तो सुर्खी उंगली पोर पर उतर आये। बस्तर बेतरतीब, बेफिक्र, बेलौस। सैलानी कहा, खुद इस प्रान्त के बाशिंदों से अछूता। रायपुर, बिलासपुर, रायगढ़ में दशकों से रहते आये कितने निवासी बस्तर के अंदरूनी इलाकों में नहीं गये।
दस साल पहले यह राज्य मध्य प्रदेश का अंग था लेकिन बस्तर भोपाल महाविद्यालय और भारत भवन से जुड़े रहे अनेक विख्यात लेखकों के जैविक-रचनात्मक भूगोल का अंग नहीं बना। उनके शिविर, यात्रायें पंचमढ़ी, मांडू इत्यादि तक ही सीमित। रोचक कि यह रचनाकार दुनिया घूम आये हैं, उन्हें अपने ही प्रान्त के इस दक्षिणी इलाके को टटोलने की सुध कभी नहीं हुई जिसकी काया यूरोप के कई देशों से भी अधिक वृहद और विविध। इनमें से कुछ असली परंपरा, भारतीयता और आदिकला इत्यादि पर अधिकारपूवर्क बोलते-लिखते रहे हैं लेकिन बस्तर का आदिजीवन कभी उनके रचनात्मक विधान में नहीं समाया। जनगढ़ सिंह श्याम भी स्वामीनाथन को नर्मदा के उत्तर में ही मिले। विचित्र है।
निर्मल, वैद — दो घुमक्कड़, डायरी लेखक, दोनो ही निराला सृजन पीठ पर रहे लेकिन कथा-डायरी तो दूर जीवन में भी कभी शायद बचेली, जगरगुंडा, अबुझमाड़ नहीं आये। महुये की मुस्कुराहट में निर्मल रायपुर-कोंडागांव में लगभग भागते हुये बिताये एक हफ्ते का उल्लेख करते हैं, किसी जंगल में मनजीत बावा और स्वामी भी हैं — यह भी मित्रों का साथ है, इस इलाके की तलाश नहीं जो निर्मलीय निगाह की दुर्लभ विषेषता रही है। ‘जहां से कोई वापसी नहीं’ यानी सिंगरौली तो गये निर्मल लेकिन दक्षिण में बैलाडीला भूल गये — वहां भी तो लोहे की विशाल खदानें थीं और हैं।
अस्सी की शुरुआत यानी भारत भवन के गर्भाधान के साथ ही इस प्रांत में नक्सली कदम गिरने लगते हैं। उन दिनों बस्तर में तैनात वरिष्ठ पुलिस अधिकारी बतलाते हैं आंध्र सीमा से नक्सली आहिस्ते से दंतेवाड़ा में चलते आ रहे थे। भोपाल में बैठे राजनैतिक आकाओं तक इस बाबत खुफिया सूचना पहुंच रहीं थीं। मंत्रालय में आसीन अशोक वाजपेयी तक भी इसके कुछ अंश तो पहुंचते ही होंगे, फाइलों में न सही, अधिकारी मित्रों संग गुफ्तगू के दौरान। और यह वह समय था जब नक्सलबाड़ी विद्रोह की आंच ताजी थी। लेकिन इसके बावजूद भोपाल महाविद्यालय के पाठ्यक्रम में बस्तर नामक अध्याय कभी नहीं जुड़ा। महाविद्यालय के प्राचार्य बेखबर उनींदे रहे आये कि यह इल्लत पुलिस की है। आज भी पुलिस अधिकारी शिकायत करते हैं आईएएस लाबी को रत्ती भर दिलचस्पी नहीं नक्सलियों में, समूची इल्लत खाकी के माथे।
यह अनदेखी क्या महज अनायास थी? कानून में आपराधिक अज्ञान भी होता है जब अनदेखी इस कदर तीव्र हो कि आप संदेह का लाभ आरोपी को नहीं दे सकते। माओवादियों की यह टीस कितनी सच्ची है कि सत्ता, प्रषासन तो हैं ही, लेखक-कलाकार ने भी उनके किस्सों को महज उचटते हुये कौतूहल से टटोला है।
कवि सतपुड़ा के घने, उॅंघते, अनमने जंगल तक ही रहा आया, थोड़ा नीचे नारायणपुर या पूर्व में जशपुर के जंगल नहीं गया। प्रभाष जोशी मालवा और नर्मदा के सहारे विलक्षण पत्रकारिता रचते रहे, नदी का दक्षिण उनका सरोकार नहीं बना। अमरकंटक से उपजती इस धारा ने शायद एक सीमारेखा खींच दी थी, बार्डर, लाइन आफ कंट्रोल जिसका उल्लंघन कवि-कथाकार न किसी पत्रकार ने किया।
आंध्र से माओवादी अगर इस प्रदेश में नहीं आये होते, पुलिस की गाडि़यां लैंडमाइन में ध्वस्त होनी शुरु नहीं हुई होतीं, तो शायद अभी भी किसी की निगाह यहां नहीं जाती। लेकिन आज भी कौन बड़ा परिवर्तन आया है। देश का सर्वाधिक नक्सल हिंसाग्रस्त राज्य लेकिन तीन प्रमुख अंग्रेजी टीवी चैनल का कोई रिपोर्टर-कैमरामैन समूचे प्रदेश में नहीं। कश्मीर में चूं पर इनकी पूरी टीम बारामूला, अनंतनाग में डेरा डाल बैठ जाती है। दिल्ली में पत्रकार कारगिल का नक्शा हथेली पर लिये घूमते हैं — ताड़मेटला, मोरपल्ली का नाम सुनते ही चकराते हैं।
कुछेक मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को छोड़ कोई नहीं लिखता यहां क्या हो रहा है, जाहिर है उनकी निगाह अपर्याप्त ही रहेगी, आधा चेहरा ही बतलायेगी, बहुलार्थी-बहुव्यंजक आख्यान नहीं प्रस्तावित होने पायेगा। कर्नाटक में लोकायुक्त राज्य सरकार को कोड़ा लगाता है, मुख्यमंत्री का इस्तीफा। यहा लोकायुक्त चीखता है, कोई खबर तक नहीं दिल्ली में।
तो इस तरह यह प्रदेश जी रहा है। अज्ञान-अनदेखी-असूचना के कुंए पर टिका। महुए और सल्फी के संतोष में डूबा।
क्या अभी भी इस जंगल में होते युद्ध का सारा जिम्मा लालधारियों के मत्थे मढ़ देना चाहिये? मढ़ दीजिये लेकिन जो मढ़ेगा, कैसे गढ़ेगा?
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चौदह फरवरी
मलकानगिरी में लैंडमाइन विस्फोट। बीएसएफ के सिपाहियों की मौत। यह लैंडमाइन तकरीबन दो साल पहले धरती के नीचे गाड़ दी गयी थी। अमूमन दो तरह के होते हैं भूमिगत विस्फोटक — मिट्टी के नीचे छुपे तार से जुड़े रिमोट कंट्रोल द्वारा संचालित, दूसरे जो पहिये इत्यादि का जरूरी दवाब पड़ने से फूट जाते हैं। यह जानकारी तो नई नहीं थीं लेकिन इस पातालनुमा बारूद से इतनी कातिलाना करीबी पहली मर्तबा हुई।
यानि इस रणभूमि में कोई भी गली, पगडंडी महफूज नहीं। कोइ्र्र छापामार हमला ही आपके जिस्म को ध्वस्त नहीं करेगा, जमीन के नीचे दुबका, भूला-भुलाया बारूद भी न मालूम कब आपकी कार या मोटरसाइकिल के चक्के की धमक से फूट पड़ेगा। बंदूकी हमले से बचने की संभावना बनती है, लेकिन इस बिंदास बारूद का क्या जो अर्से से आपका मुंतजिर है। बारूद रंग देख नहीं फटता — लाल, खाकी या सफेद, बारूद के विधान में रंगभेद नहीं।
बस्तर में खौफ के चेहरे कई हैं। मसलन किसी रात चिंतलनार की अंधेरी सड़क से गुजरती आपकी गाड़ी के सामने कुछ लोग आ खड़े होते हैं। हैडलाइट की रोशनी में उनकी नुकीली हंसिया चमकती हैं, संभव है वे धान काटने आये किसान हों लेकिन आपको मृत्यु के डाकिये दिखलाई देते हैं। उनकी उंगलियों में फंसा यमराज का स्पीडपोस्ट।
या वो सुबह जब बीजापुर के जंगल में जौगिंग करने निकले आप किसी तालाब के किनारे खड़े होते हैं, अचानक जवानों की पूरी टुकड़ी अपनी ओर बढ़ती पाते हैं। तीन दिशाओं से बंदूकधारी जवान। सौ के करीब। शायद सीआरपीफ या राज्य बल। तकरीबन पांच सौ मीटर दूर, लेकिन फासला तेजी से होता जाता कम। उनके पास किस्म की बंदूकें, बम दागने का .51 मिमी मोर्टार तना है। यह साधारण ‘मार्च’ नहीं हैं जिसमें बंदूक की नाल नीचे झुकी होती है। बंदूकें हवा में लहराती हैं, उनमें ग्रैनेड लांचर और टेलीलैंस नत्थी हैं. जिनके पीछे भिंची निगाह आपका अक्स साफ देख सकती है।
क्या आप घिर चुके हैं? लेकिन क्यों? पहनावा भले इस जंगल में अजनबी हो, षत्रु आप किसी कोण से नहीं दीखते। इतनी सुबह इस जंगल में आपकी उपस्थिति शक का सबब जरूर बने, लेकिन इसके लिये सौ बंदूकधारी अनावश्यक होंगे। महज शक पर तो कोई गोली चलायेगा नहीं, लेकिन फिर चला भी सकता है। सबसे भयभीत इंसान तो बंदूकधारी ही। निहत्था बचने के सौ तरीके खोजेगा — हथियारबंद को सिर्फ गोली का भरोसा। नुकीले पीतल की चमक उसकी समझ को अंधा, स्मृति को गूंगा, सोच को बहरा बना देती है।
दूरी अब दो सौ मीटर। आगे कमांडर पीछे फौज। कई अन्य पूरे मैदान को घेरते हैं, कोई जवान बीच में रुक, घुटने मोड़ बैठ, निशाना साधता है, बंदूक तान देता है।
क्या उन्हें लग रहा है आप भाग सकते हैं? एकदम जड़ तो खड़े हैं अपनी जगह। भागेंगे भी कहा? तीन दिशाओं से वे बढ़ते आ रहे हैं, सामने तालाब। लेकिन क्या जरूरी यह पलटन आपके ही लिये हो? नक्सली हों शायद यहीं कहीं। लेकिन कहा? खुला मैदान दूर तलक, कोई दिखाई नहीं देता। तालाब के उस पार क्या? पेड़ों की मचान पर छुपे? पलटन एकदम नजदीक अब, कई जवान तालाब के परे निशाना साध रहे हैं।
क्या यहां मुठभेड़ होने वाली है और आप दोनो ओर से चलती गोलियों के बीच फंसने, शायद किसी बिफरती आती गोली से फूट जाने वाले हैं? कितनी ही सिविलियन मौत पुलिस-गुरिल्ला मुठभेड़ में फंस होती हैं। आसपास कोई खंदक, चट्टान, पहाड़ी भी नहीं जिसके पीछे-नीचे दुबक जायें। इससे पहले पहली गोली चले, जवाबी फायरिंग शुरु हो, क्या जमीन पर गिर जाना चाहिये या कम-अज़-कम हाथ खड़े कर देने चाहिये?
trufully presented..The chattisgarh's Bastar,Dantewada, Naryanpur,Malkangiri are Naxal dominated regions.The present state of affairs is in sharp contrast with earlier situations.
A very sad n painful state of affairs in a purely tribal area.I have been teaching Bastar tribal Area – a case study n know the geog of the area ,inaccessible n how various tribes have been living peacefully in isolated pockets in lap of nature with limited resources despite all hardships.Its unlimited natural resources could convert it into a model of development n transform the life of these tribals living there for centuries but vested interests will never do that happen .