प्रेमचंद गांधी– जयपुर में 26 मार्च, 1967 को जन्म। एक कविता संग्रह ‘इस सिंफनी में’ और एक निबंध संग्रह ‘संस्कृति का समकाल’ प्रकाशित। समसामयिक और कला, संस्कृति के सवालों पर निरंतर लेखन। कई नियमित स्तंभ लिखे। सभी पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित। कविता के लिए लक्ष्मण प्रसाद मण्डलोई और राजेंद्र बोहरा सम्मान। अनुवाद, सिनेमा और सभी कलाओं में गहरी रूचि। विभिन्न सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी। कुछ नाटक भी लिखे। टीवी और सिनेमा के लिए भी काम किया। दो बार पाकिस्तान की सांस्कृतिक यात्रा।
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पहला चुंबन
जो हमें याद नहीं रहता
लेकिन हमारी देह पर अंकित हो जाता है
चेतना और स्मृति के इतिहास को कुरेद कर देखो
हमारी दादी, नानी, दाई, नर्स या
किसी डॉक्टर ने लिया होगा
इस पृथ्वी पर आने के स्वागत में
हमारा पहला चुंबन और
सौंप दिया होगा मां को
मां ने लिया होगा दूसरा चुंबन
पहली बार हमने सूखे मुंह से
मां की छातियों को चूमा होगा
शैशव काल में हम
जिसकी भी गोद में जाते
चुंबनों की बौछार पाते
हर किसी में खोजते
हमारी मां जैसी छातियां
हम नहीं जानते
कितनी स्त्रियों का दूध पीकर
हम बड़े हुए
कितनी स्त्रियों ने दिया
हमें अपना पहला चुंबन
थोड़ा-सा बड़ा होते ही
खेल-खेल में हमने
कितने कपोलों पर अंकित किया
अपना प्रेम
हम नहीं जानते
जन्म से मृत्यु तक
कितने होते हैं जीवन में चुंबन
हम नहीं जानते
जानवरों में जैसे मांएं
अपनी जीभ से चाट-चाट कर
अपनी संतानों को संवारती हैं
मनुष्यों के पास चुंबन होते हैं
जो जिंदगी संवारते हैं।
पश्चाताप में कोंपल
एक पीला पत्ता
चुपचाप गिर जाता है
आंख से आंसू की एक बूंद की तरह
धरती में फिर से मिल जाने के लिए
उसके दु:ख में
ज़र्द होते साथी पत्ते
और पीले पड़ जाते हैं
इस दु:ख और पश्चाताप के दरमियान
फूटती है एक कोंपल नई
अपने भीतर
एक पूरा हरा अभयारण्य लिये
प्रेम के निर्झर से
बहती चली जाती है
दूर कहीं
आंसुओं की एक नदी
वही सींचेगी
उस नई कोंपल के दरख्त की
गहरी जड़ें।
तुम्हारा आना
जैसे कोई नया बिंब
कविता में चला आये खुद-ब-खुद
शब्दों को नये अर्थ देता हुआ
जैसे कोई अकल्पनीय शब्द आये और
लयबद्ध कर दे पूरी कविता को
आंसू में नमक की तरह
असंख्य शब्दों की मधुमक्खियां
रचती हैं मेरी कविता
पता नहीं जीवन के कितने फूलों से
चुन कर लाती हैं वे रस
तुम्हारे आने और होने से ही
व्यापती है इसमें मिठास
मेरे मन के सुंदरवन में
नदी-सी बहती हो तुम
कामनाओं का अभयारण्य
तुम्हारे ही वजूद से कायम है
तुम्हारा होना
जैसे कविता में बिंब और शब्द
आंसू में नमक
शहद में मिठास
जंगल में नदी
जीवन में प्रेम।
लखनऊ के लिए
हमें बुला रही हैं वो खानकाहें
जहां मोहब्बतों के चिराग जलते हैं
वो कबूतर बुला रहे हैं
जिनके साथ भरनी है उड़ानें और
देखने हैं ख्वाब कई
उन गुंबदों की सदाएं बुला रही हैं
जिन्हें हम हसरतों से नहीं देख पाए
खाने की वो लजीज़ खुश्बुएं बुला रही हैं
जिन्हें हम चख नहीं पाये ठीक से
दोस्तों की आंखों में तैरते
वो शरारे बुला रहे हैं
जिनसे बहुत मायूसी के साथ
विदा ली हमने
हां, हम आयेंगे शहर-ए-दिल लखनऊ
गुलाबी हवाओं के काफिले के साथ
बंधेज–लहरिया के रंगों में लिपटी
तीज की सवारी की तरह आयेंगे
सीने में जयपुरी रजाई जैसी
गरमियां लिये आयेंगे
बिहारी की नगरी से
मीर के शहर आयेंगे
यहां से वहां को आती-जाती
हर बस और रेल से उठता है धुंआ
मीर के दीवान की तरह
हम आयेंगे
बिहारी के दोहों को
मीर के शेरों में मिलाते हुए आयेंगे।
उसके लिए
एक कविता रचनी है मुझे उसके लिए
वो जो अपनी रंगत में सबसे अलहदा है
जिसका सलोना सौंदर्य
जगाता है जादू
वो जो मुंह से नहीं
नैनों से बोलती है
जिसके मौन में तैरते हैं छंद और
होंठ खुलें तो बजती है जलतरंग
उसके लिए जिसने चुपचाप सौंप दिये थे
अपने दोनों हाथ मेरे हाथों में किताब की तरह
जैसे कहा हो कि पढ़ो, अगर पढ़ सकते हो इन्हें
मेरी आंखों से टपके आंसुओं ने
भिगो दिए थे उस किताब के वरक
जिसे कृष्ण के साथ
राधा का नाम दिया कवियों ने
और अमर कर दिया
उसी राधा के लिए रचनी है एक कविता
इस अंधकार भरे समय में जब
कृष्ण, भक्ति और प्रेम पर
कारोबारियों का कब्जा है
मेरे पास उसके लिए अपनत्व की भाषा है
शायद यही मेरी कविता है।
अगर हर्फों में ही है खुदा
वे घर से निकलती हैं
स्कूल-कॉलेज के लिए
रंगीन स्कार्फ या बुरके में
मोहल्ले से बाहर आते ही
बस या ऑटो रिक्शा में बैठते ही
हिदायतों को तह करते हुए
उतार देती हैं जकड़न भरे सारे नकाब
वे जिन किताबों को पढ़कर बड़ी होती हैं
उनमें कहीं जिक्र नहीं होता नकाबों का
इतने बेनकाब होते हैं उनकी किताबों के शब्द कि
अक्सर उन्हें रुलाई आती है
परदों में बंद
Tags premchand gandhi
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निश्चय ही अछ्छी कवितायें हैं .और पहली कविता तो पहले नंबर पर है ही.
आखिरी नहीं है यह जन्मदिन
और लड़ाई के लिए है पूरा मैदान
आज के दिन मैं लौटाना चाहता हूं
एक उदास बच्चे की हंसी
आज के दिन मैं
घूमना चाहता हूं पूरी पृथ्वी पर
एक निश्शंक मनुष्य की तरह
नियाग्रा फॉल्स के कनाडाई छोर से
मैं आवाज देना चाहता हूं अमेरिका को कि
सृष्टि के इस अप्रतिम सौंदर्य को निहारो
हथियारों की राजनीति से कहीं बेहतर है
यहां की फुहारों में भीगना
आज के दिन मैं धरती को
बांहों में भर लेना चाहता हूं
प्रेमिका की तरह….
प्रेमचंद दा की कविताएं सहजता से दिल में उतरती हैं, और हमें सोचने पर मजबूर करती हैं। कवि की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह एक इमानदार अभिव्यक्ति पर विश्वास करता है। एक ऐसे समय में जब कविताएं अपने शब्दों की बाजीगरी से डरा रही है, प्रेमचंद दा की कविताएं हमें आस्वस्त करती हैं… प्रेमचंद दा को जन्मदिन की बधाईयां… अशेष शुभकामनाएं…
देर से आया हूँ , इस पोस्ट पर। कल रात पढ़ी गईं ये कवितायें और आज भी। इनमे अपनी दुनिया है अपना अक्स। विचार का अतिरिक्त गुंफन और भाषा की सायास कताई – बुनाई से दूर ये 'अपनी – सी ' लगती है।
नास्तिको की भाषा लिखने वाल ही प्रेम की आस्था में हम सबको डूबा सकता है | उसी के पास चुम्बनों की वह श्रृंखला हो सकती है , जिससे यह दुनिया संवारी जा सके ..|वही नियाग्रा फाल के कनाडाई छोर से अमेरिका को हथियारों की तपिश से निकालने और फुहारों में भीगने की सलाह दे सकता है | वही बुतों की बेचारगी पर तरस खाकर उन्हें दरख्तों की छांव में ले जा सकता है |…सच मानिए प्रेम भाई की कविताएं दिल को छूने वाली कविताएं है , जिसे पढकर हमारे भीतर सोया हुआ एक आदमी उठकर चहलकदमी करने लगता है , और हमें ढाका हुआ राक्षस दोर्र भागता दिखाई देने लगता है ….प्रेम भाई को बहुत बधाई इन कविताओं के लिए …
सुन्दर कविताएँ हैं….भाषा के साथ कवि की ऐसी जद्दोज़हद बहुत सुकून देती है….बधाई….
तुम्हारा होना
जैसे कविता में बिंब और शब्द
आंसू में नमक
शहद में मिठास
जंगल में नदी
जीवन में प्रेम।
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जब तुमने खारिज कर ही दिए हैं
इनके विचार
तुम्हारी प्राथमिकताओं में तो क्या
जीवन में ही नहीं बची रह गई
इनकी कोई खास जरूरत
तब इन बुतों का क्या करोगे
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मनुष्यों के पास चुंबन होते हैं
जो जिंदगी संवारते हैं।
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जीवन की कविताएँ हैं। सहज हैं किंतु गहन अर्थ लिये।
हथियारों की राजनीति से कहीं बेहतर है
यहां की फुहारों में भीगना
आज के दिन मैं धरती को
बांहों में भर लेना चाहता हूं
प्रेमिका की तरह
कुछ कवितायेँ पहले भी पढ़ चुकी हूँ….आज फिर से पढ़कर भी उतनी ही उत्कृष्ट लगी जितना पहली बार लगी थी…..प्रेमचंद जी की कविताओं में निहित गहन संवेदनाएं पाठक को स्वतः ही जोड़ लेती हैं….और जन्मदिन पर लिखी कवितायेँ बहुत सुंदर है….पढ़कर लगा की जन्मदिन साल में कई बार आना चाहिए……प्रेम चाँद जी को हार्दिक बधाई…..जानकीपुल का आभार………..
जन्मदिवस की बधाई के साथ…
तुम्हारा आना
जैसे कोई नया बिंब
कविता में चला आये खुद-ब-खुद
शब्दों को नये अर्थ देता हुआ
जैसे कोई अकल्पनीय शब्द आये और
लयबद्ध कर दे पूरी कविता को
आंसू में नमक की तरह
खूबसूरत कविताएं.. हालांकि अभी सारी नहीं पढ़ पाई हूं, लेकिन जितनी पढ़ी, लाजवाब लगीं।
बढ़िया! बहुत बहुत बधाई
जन्मदिन की शुभकामनाएँ प्रेमचंद जी को .. समालोचन में एक नास्तिक की भाषा पर कविताएँ पढ़ी थीं और आज एक आस्तिक की सांत्वना देती कविताएँ जीवन को संप्रेषित कर रही हैं .. सहज कविताएँ .
मुझसे इनकी लाचारगी देखी नहीं जाती
कब से खडे हैं ये
धूप, बारिश, सर्दियां और आंधियां सहते हुए
और कुछ न सही
इन बुतों पर दरख्तों का साया ही कर दो।
'आज के दिन मैं धरती को
बांहों में भर लेना चाहता हूं'
आज के दिन कवि हृदय के समस्त संकल्प पूरे हों!
जन्मदिन की हार्दिक बधाई, प्रेमचंद जी!
प्रस्तुति हेतु जानकीपुल का आभार!
waah.aaz ka din safal