वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘अपने-अपने अज्ञेय’ में १०० लेखकों के अज्ञेय से जुड़े संस्मरण हैं, जो अज्ञेय के व्यक्तित्व, उनके जीवन, उनके सरोकारों को समझने में मदद करते हैं. पुस्तक में अज्ञेय को लेकर आलोचनापरक लेख भी पर्याप्त हैं. दो खण्डों में प्रकाशित इस पुस्तक की बहुत अच्छी समीक्षा अवनिजेश अवस्थी ने की है. हमने इसे ‘राष्ट्रीय सहारा’ से लिया है- जानकी पुल.
अज्ञेय की जन्मशती के निमित्त देश में शताधिक आयोजन हुए और आजन्म विवादों में रहे अज्ञेय से संबंधित रहस्यों, अफवाहोंऔर भ्रम से बहुत से पर्दे हटे। एक व्यक्ति के रूप में उनके व्यक्तित्व से भी और रचनाकार के रूप में उनकी रचनाओं से भी। शती वर्ष के इस महायज्ञ की पूर्णाहुति के रूप में अज्ञेय से संबंधित सौ साहित्यकारों और निकट रहे व्यक्तियों के संस्मरणों का ओम थानवी के संपादन में दो खंडों में संकलन ‘अपने–अपने अज्ञेय’ का प्रकाशन अज्ञेय के विराट और सौन्दर्यप्रिय व्यक्तित्व के सवर्था अनुरूप है। प्रकाशक के रूप में वाणी प्रकाशन ने भी मनोयोग इसे प्रकाशित किया है। अज्ञेय के विषय में सामान्यत: यहधारणा इतनी ज्यादा प्रसारित हो चुकी है कि वे अहंकारी, अभिजात, व्यक्तिवादी, स्वकेन्द्रित और अंग्रेजों के जासूस थे।
यों तो इस तरह के आक्षेप उनके व्यक्तित्व को लेकर ही हैं, रचनाओं को लेकर नहीं। लेकिन इन आक्षेपों की आड़ में उनके साहित्य की जितनी उपेक्षा की जा सकती थी, जितनी आलोचना की जा सकती थी, भरसक कीगई। उनके बारे में चुटकुले गढ़े गए, उन्हें चिंपांजी और बूढ़ा गिद्ध तक कहा गया। रचना और रचनाकार के रूप में उन्हें छोटा करने और बेदखल करने की कोशिशें भी खूब हुई। लेकिन इन संस्मरणों से अज्ञेय की जो तस्वीर सामने आती है, वह कहींसे ऐसी नहीं बनती। इसलिए नहीं कि इसमें सिर्फ विष्णुकांत शास्त्री, विद्यानिवास मिश्र, रामकमलराय, जानकीवल्लभ शास्त्री, निर्मल वर्मा, कृष्णदत्त पा
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