अभिनेता बलराज साहनी हिन्दी सिनेमा की एक महान व अविस्मरणीय शख्सियत रहे हैं। 1 मई 1913 को पैदा हुए अभिनेता के जन्मशताब्दी वर्ष की शुरुआत आज से हो रही है. 1972 में दिल्ली प्रवास दौरान ‘जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय’ ने दीक्षांत सामारोह में उन्हें आमंत्रित किया था … इस अवसर पर बलराज साहनी ने एक यादगार अभिभाषण दिया था। बलराज साहनी जयंती पर अभिभाषण का अंश प्रस्तुत है. मूल अंग्रेजी से अनुवाद के लिए हम दिलनवाज़ के आभारी हैं- जानकी पुल.
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आज से तकरीबन बीस बरस पहले ‘कलकत्ता सिने पत्रकार संघ’ ने स्वर्गीय बिमल राय एवं ‘दो बीघा जमीन’ की टीम को सम्मानित करने का निर्णय लिया । वह एक सादा किन्तु रोचक सामारोह था। कार्यक्रम में अनेक वक्ताओं ने अपनी –अपनी बात रखी, लेकिन श्रोता बिमल राय को सुनने के लिए बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे। हम सब लोग फर्श पर जमे हुए रहे जहां मैं और बिमल दा एक साथ थे। मैंने देखा कि उनकी बारी करीब आने के साथ उनमें घबराहट व बेचैनी बढ गई। जब बोलने की बारी आई तो,खडे हुए और विनम्रता से हांथ जोडकर कहा : ‘मुझे जो कुछ भी कहना होता है, फिल्मों के माध्यम से कह देता हूं। मेरे पास अतिरिक्त कहने को कुछ भी नहीं’ और वापस बैठ गए।
बिमल दा की अदा बहुत कुछ कहती है, और इस समय मुझमें उस उदाहरण के साथ जाने की हार्दिक इच्छा हो रही है। लेकिन आज मैं उसे नहीं दोहरा रहा हूं, क्योंकि जिस महान व्यक्ति के नाम ऊपर इस संस्था का नामकरण हुआ उनके लिए दिल में अपार श्रद्धा है। फिर इसी विश्वविद्यालय के श्री पी सी जोशी की भी काफी इज्जत करता हूं। जीवन के कभी न भूलाए जा सकने वाले लम्हे ,जो भी मुझे मिले उसके लिए जोशी जी बडा शुक्रगुज़ार हूं। इस वजह से यहां से मिले आमंत्रण को अस्वीकार न कर सका। आपने यदि मुझे झाडू लगाने के लिए बुलाया होता, तब भी वैसा हर्ष होता जैसा आज हो रहा है। वह सेवा शायद मेरी क्षमता के ज्यादा अनुकूल होती!
कृप्या करके इन बातों का गलत मतलब न लगाएं, एक सामान्य आदमी बनने की कोशिश नहीं कर रहा। मैंने जो कुछ भी कहा सच्चे दिल से कहा है,आगे भी जो कुछ कहूंगा वह भी दिल से होगा। हो सकता है कि सामारोह की परंपरा व आत्मा के लिहाज से या अन्य कारणों से आपको स्वीकार न हो। जैसा कि आप शायद जानते हैं कि पिछले पच्चीस वर्षों से अकादमिक से मेरा कोई रिश्ता नहीं रहा है। आज से पहले मैंने किसी भी दीक्षांत सामारोह में अभिभाषण नहीं दिया।
यहां यह बताना शायद परिप्रेक्ष्य से बाहर न हो कि आप की दुनिया से एक संवाद की शिददत स्वेच्छा का परिणाम नहीं है ,बल्कि यह भारत में फिल्म निर्माण के विशिष्ट माहौल से प्रेरित है । हमारी फिल्मी दुनिया कलाकार को या तो काम के बहुत कम अवसर या फिर आफर से पाट देती है। कलाकार के नज़रिए से दोनों ही अनुकूल नहीं हैं क्योंकि पहली स्थिति में काम की कमी में अकेला होकर बर्बाद हो जाता है। जबकि बाद की स्तिथि में काम की अधिकता वजह से असल ज़िंदगी से कट सा जाता है। सामान्य जिंदगी के बहुमूल्य लम्हों की कुर्बानी देने के साथ-साथ स्वयं की बौद्धिक एवं आत्मिक जरूरतों को भी नज़रअंदाज करना होता है। विगत पच्चीस वर्षों में मैने 125 से अधिक फिल्मों में काम किया, कोई युरोपियन या अमेरिकी अभिनेता उसी समयकाल में 30-35 फिल्में करता ।
आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि सिनेमा की रीलों में मेरी जिंदगी का कितना अंश दफन हो गया। बहुत सारी किताबें जिन्हें मुझे पढना था, मसरुफियत की वजह से पढ न सका। फिर ना जाने कितने सामारोह नहीं जा पाया, कभी-कभी खुद को बहुत पिछडा हुआ महसूस करता हूं। स्वयं द्वारा किए फिल्मों के प्रकाश में जब मैं खुद से सवाल करता हूं कि फिल्मों के ढेर में किन फिल्मों में कुछ ‘उल्लेखनीय’ था ? कौन सी फिल्मों को गर्व से याद किया जा सकता है ? शायद मुटठी भर को। महान फिल्मों को अंगुली पर गिना जा सकता है। इनमें कुछ अब भूलाई जा चुकी हैं ,शेष बची स्मृतियों से शीघ्र मिट जाएंगी।
इस वजह से ही मैने कहा कि मैं सामान्य नहीं बन रहा। मैं केवल एक चेतावनी दे रहा था ताकि उम्मीदों पर खरा न उतर न पाने की स्थिति में मुझे आप माफ कर सकें। बिमल राय ने उचित कहा। कला कलाकार की असल पूंजी है। अत: जबकि मुझे बोलना लाजमी है, अपने अनुभवों के मददेनजर जो कुछ देखा और महसूस किया वही कहूंगा। उसे बताने की इच्छा भी है। इस सीमा से बाहर जाना आडम्बर और हास्यास्पद होगा। मेरी इच्छा है कि कालेज की दिनों की एक घटना का उल्लेख करूं,इस घटना को कभी भूला न पाया। इसने मस्तिष्क पर एक अमिट छाप छोडी है।
बात उन दिनों की है जब हमारा परिवार गर्मियों की छुटटी में रावलपिंडी से कश्मीर जा रहा था। बीच रास्ते में ही हमें रूकना पडा क्योंकि भारी बारिस एवं भूस्खलन के कारण सडक का एक हिस्सा बह गया था। इस वजह से वहां गाडियों की लंबी लाईन लग गई, रास्ते को फिर से दुरुस्त व सुचारू होने का हमने बेसब्री से इंतज़ार किया। लेकिन गाडी चालकों और यात्रियों के हंगामा-प्रदर्शन ने सफर की मुश्किलें बढा दी। शहरवालों के अनैतिक दबंग व्यवहार से आस-पास के गांव वाले भी परेशान थे। यातायात को फिर से बहाल करना पीडबल्युडी के लिए एक चुनौतीपूर्ण काम था, कुछ दिनों की कडी मेहनत बाद विकल्प तौर पर एक कामचलाऊ मार्ग बनाया गया।
बहरहाल इंतज़ार बाद मार्ग खोले जाने की घोषणा हुई, वाहन चालकों को हरा झंडा दिखाया गया। लेकिन हैरानी की बात देखें कि कोई भी पहले चलने को तैयार नहीं था। बढने की बजाए सब एक दूसरे को खडे निहार रहे थे। इसमें शक नहीं कि यह एक कामचलाऊ और तीखा मार्ग था। सडक के एक तरफ पर्वत तो नीचे दूसरी ओर नदी एवं गहरी खाई थी। खतरा दोनों ही स्थितियों में सफर पर हावी था। काफी सोच- विचार-निरीक्षण एवं उत्तरदायित्त्व से वर्सीयर ने सडक चालु की, लेकिन कोई भी उसकी बातों से संतुष्ट नहीं हुआ। बहरहाल आधा घंटे तक हालात जस का तस बना रहा, कोई भी जगह से नही हिला। इसी बीच एक एक ब्रिटिश व्यक्ति छोटी हरी कार में इस ओर आया, करीब आकर उसने मुझसे माजरा जानना चाहा। जवाब में मैने जब उसे पूरी कहानी बताई,तो बडे जोर से हंसा और हार्न बजाते हुए आगे निकल गया। बगैर किसी परवाह के खतरे को धता बताते हुए चल पडा। उसके बाद हम सब की बारी आई,अब सबलोग वहां से जल्दी निकल जाना चाहते थे . हडबड में रास्ता फिर से जाम हो गया, फिर शोर व हंगामे से सबकुछ गडबड हो गया।
उस दिन खुली आंखों से मैने आज़ाद एवं गुलाम देश नागरिकों के व्यवहार एवं नज़रिए का फर्क देखा। एक आज़ाद नागरिक को विचार,स्वयं के हित में निर्णय व कार्य करने की शक्ति होती है। किन्तु गुलामी की बेडियों में जकडा हुआ व्यक्ति आत्ममंथन की शक्ति गंवा देता है, दूसरे के विचारों को अपना विचार बनाने से उसका बहुत अहित हुआ। वह सामान्यत: निर्णय पर अडिग नहीं रहता,बाह्य प्रभाव में केवल चले हुए मार्ग पर चलने की हिम्मत जुटा पाता है। इस वाकये से मुझे एक सीख मिली,जोकि मेरे लिए मूल्यवान निधि है। इस उदाहरण को मैने स्वयं की जिंदगी में एक पाठ की तरह रखा। जब कभी भी मैने अपने बारे में स्वयं निर्णय लिया, हमेशा खुश रहा।
आपको मैने एक ब्रिटिश व्यक्ति का किस्सा सुनाया, दरअसल उस नागरिक को देखकर मेरे भीतर जो हीन भावना का तत्व आया ‘कथा’ उसी का अंश है। मैं सरदार भगत सिंह का उदाहरण दे सकता था, जो उस बरस हंसते- हंसते फांसी के तख्ते पर झूल गए। मैं महात्मा गांधी का उदाहरण दे सकता था, जिन्होने हमेशा ही आत्म-निर्णय शक्ति का परिचय दिया। मुझे स्मरण है कि मेरे गृह नगर के सम्मान जनक नागरिकों ने महात्मा गांधी के मूल्यों की खिल्ली उडाई थी। किसने कल्पना की होगी कि सत्य और अहिंसा के आदर्शों से वह विश्व की सबसे ताकतवर हुकूमत को मात देंगे। मुझे लगता है कि नगर के एक फीसद लोगों ने भी यह नहीं सोचा होगा कि कभी एक दिन आज़ादी देख पाएंगे। लेकिन महात्मा गांधी को स्वयं,राष्ट्र एवं जनता पर भरोसा था ।
मैं आपका ध्यान हमारे फिल्म उद्योग की ओर खींचना चाहूंगा। यह जानते हुए भी कि यहां बहुत सी ऐसी फिल्में हैं, जिनके नाम लेने भर से हंसी उडेगी। पढे- लिखे साक्षर वर्ग की नज़रों में हिन्दी फिल्में महज तमाशा हैं। फिल्मों की कहानियों में बचपना,फसाना एवं बेतुकापन भरा पडा है। लेकिन सबसे बडी सीमा जिससे आप भी सहमत होंगे कि हिन्दी फिल्म कथावस्तु,कल्पना,तकनीक,नाच-गाना आदि के मामले में पश्चिम की अंधी और गैर-जरूरी नकल लगती है। आपको ऐसे बहुत से उदाहरण मिल जाएंगे,जहां पर हर बात पर सीधी नकल हुई। ऐसे हालात में आज का युवा यदि हमारा मजाक उडाए तो अचरज की बात न होगी। हिन्दी फिल्मों का उपहास करना मुझसे संभव नहीं। वह मेरी रोजी-रोटी का जरिया है, आज जो भी दौलत या शोहरत पास है वह फिल्मों से ही मिला। हिन्दी फिल्मों के लिए मेरे मन में एक हद तक ऊंचा सम्मान है। वह सम्मान जो आज आपके बीच आकर मिला।
जब मैं कालेज में पढता था, हमारे भारतीय एवं गैर भारतीय शिक्षक बार-बार यही समझाते रहे कि आधिपत्य कला गोरे लोगों की मिलकियत है। महान रंगमंचम सिनेमा, अभिनय,चित्रकला इत्यादि भारत में संभव नहीं । उसके बाद से परिदृश्य में क्रांतिकारी बदलाव हुआ, स्वतंत्रता बाद भारतीय कला क्षेत्र की तकरीबन हरेक शाखा में बडा परिवर्तन आया। फिल्म निर्माण की दुनिया में सत्यजित राय, एवं बिमल राय जैसी शख्सियतों ने भारतीय सिनेमा को वैश्विक पहचान दिलाई।
मैं हिन्दी फिल्मों में काम करत हूं,लेकिन यह जगजाहिर है कि इन फिल्मों के संवाद और गीत अधिकांशत: उर्दू में लिखे जाते हैं। शायर कृष्ण चंदर, पटकथा लेखक राजेन्द्र सिंह बेदी, गुलशन नंदा, गीतकार शाहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी, कैफी आजमी, फिल्मकार ख्वाजा अहमद अब्बास जैसी शख्सियतें उर्दू की सेवा कर रहे हैं। अब जबकि उर्दू में लिखी फिल्म को हिन्दी फ़िल्म कहा है, तो यह कहना गलत न होगा कि हिन्दी और उर्दू जुबान एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। लेकिन नहीं, भारत के ब्रिटिश हुकूमरानों ने दोनों को अलग-अलग भाषा घोषित कर दिया। यही वजह है कि आजादी के 25 बरस बाद भी हमारी सरकार, विश्वविद्यालय एवं बुद्धिजीवी समुदाय उर्दू-हिन्दी को आज भी अलग-अलग जुबान कह रहे हैं। ब्रिटिश लोगों ने बताया कि सफेद दरअसल काला है। इसका मतलब यह कतई नहीं उस गलती को हम भी जिंदगी भर दोहराते रहें ।
बलराज साहनी हमारी धरोहर हैं, उनसे जुडी हर चीज को सम्हाले रखना हमारा पहला दायित्व है. 'जानकी पुल' और प्रभात रंजन का इस प्रयास के लिए ह्रदय से आभार.
बलराज साहनी की कहानियों का एक संकलन था, "वसन्त क्या कहेगा", तीसेक साल पहले की बात कह रहा हूं, संभवत: राजपाल ने छापा था, वह किताब उसके बाद फिर कभी सर्कुलेशन में नहीं दिखी. कोई उद्यमी कमर कस कर ऐसी कोई किताब ही निकलवा लेता जिसमें बलराज साहनी, किशोर साहू, रामानन्द सागर जैसी फ़िल्मी हस्तियों के निर्दोष दिनों की साहित्यिक रचनाएं होतीं, जिनका हिन्दी संसार में अब किसी को स्मरण नहीं.