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‘लोकप्रिय’ शब्द सुनते ही बौद्धिक वर्ग के कान खड़े हो जाते हैं

हिंदी में लोकप्रिय साहित्य के अध्ययन विश्लेषण के कम ही प्रयास हुए हैं. आम तौर पर उनको लुगदी साहित्य, सस्ता साहित्य कहकर टाल दिया जाता है, जबकि हिंदी के बड़े समाज में पढ़ने की रूचि पैदा करने में उनकी गहरी भूमिका रही है. लोकप्रिय साहित्य का एक गंभीर विश्लेषण किया है दिल्ली विश्वविद्यालय के शोधार्थी अमितेश कुमार ने- जानकी पुल. 
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लोकप्रिय का एक सीधा सीधा अर्थ है कि जो लोक को प्रिय हो जायेलेकिन लोक कौन?  क्या यह लोक अंग्रेजी का फ़ोक है जिसका मतलब सामान्य जन से होता है और कभी कभी इसे आदिम और देहाती भी समझा जाता है.[1] साधारण अर्थ में  लोक में सभी शामिल हो जाते हैं लेकिन विशेष अर्थ में हम जानते हैं कि यह ‘विशेष’ से अलग होता हैकला के क्षेत्र में हम लोक और शास्त्रीय का विभाजन देखते हैं जिसमें शास्त्रीय का मतलब ही परिष्कृत और व्याकरणिक होता है जबकि लोक का मतलब अनगढ़  होता हैअंग्रेजी में लोकप्रिय शब्द का पर्यायवाची पोपुलर हैपोपुलर अच्छी तरह से पसंद किये जाने की सामाजिक स्थिति है जिसका प्रसार व्यापक होता है.[2]  यानी जन सामान्य द्वारा अच्छी तरह से जानी गई और अच्छी तरह से पसंद की चीज पोपुलर होती हैइसी पोपुलर से पोपुलर संस्कृति की अवधारणा का विकास हुआ हैपोपुलर कल्चर दो अर्थों को धारण करता है पहला जो इसे दोयम दर्जे का मानता है और दूसरे अर्थ में इसे व्यापक पसंद किया जाने वाला समझा जाता हैलेकिन अधिकांशतः पोपुलर कल्चर का मतलब ही कमतर समझ लिया जाता है.[3] और इस पोपुलर कल्चर में आने वाली हर निर्मिति  जैसे सिनेमासंगीतसाहित्यक्रिकेट इत्यादि को दोयम दर्जे का मान लिया जाता हैसंस्कृति अध्ययन नाम के अनुशासन ने पोपुलर संस्कृति के अध्ययन का रास्ता खोल दिया है अन्यथा विद्वत जनों के लिये यह त्याज्य क्षेत्र थाइसके अध्ययन की तरफ़ ध्यान नहीं दिया जाता था बावजूद इसके कि यह हमारे दैनंदिन जीवन के निर्मित हो रहे इतिहास के अध्ययन में सहायक है. 
लोकप्रिय’ शब्द सुनते ही बौद्धिक वर्ग के कान खड़े हो जाते हैं और वे इसकी ओर थोड़ा नीची निगाह से देखते हैंऔर अपने आभिजात्य को इस लोकप्रिय अछूत से बचाने की कोशिश करते हैंहिन्दी के उन कवियों का उदाहरण हमारे सामने है जिनकी ‘लोकप्रियता’ ने आलोचना के आभिजात्य से उनको लगभग बाहर करवा दियालेकिन उपन्यास का मसला अलग हैउपन्यास दरअसल लोकप्रिय विधा के रूप में ही सामने आयाउपन्यास का इतिहास ही बताता है कि छापेखाने के अविष्कार के बाद इस विधा का आगमन हुआ और निरंतर इसकी पठनीयता बढी और उपन्यास ने एक साहित्यिक विधा के रूप में अपना स्थान पक्का किया[4]भारत में भी उपन्यास का आगमन जिन परिस्थितियों में हुआ वह यूरोप से भिन्न थी. न यहां पूंजीवाद थाना ही मध्यवर्ग का उदय हुआ था और न ही यहां के दर्शन में यथार्थवाद और व्यक्तिवाद थालेकिन यहां आख्यायिका की परंपराथी दास्तान थाबाणभट्ट की कादंबरी और कथासरित्सागर भी था.[5] छापेखाने के अविष्कार के बाद छपने वाले साहित्य के रूप में सिंहासन बत्तीसीबेताल पचीसीकिस्सा तोता मैना इत्यादि भी था जो पाठक तैयार कर रहा था.(मीनाक्षी मुखर्जी,२०११४०हिन्दी में उपन्यास की परंपरा का विकास किस्सों और दास्तानों की परंपरा से हुआ हैयद्यपि सरंचना और शिल्प पश्चिम से लिये गये थे लेकिन अन्य कला माध्यमों की तरह ये भारतीय परंपरा से जुड़ गयेकिस्सा और दास्तान बहुत ही लोकप्रिय माध्यम थादास्तानों की बैठकें रात पर जमती थीहिन्दी उपन्यास का विकास इन किस्सों और दास्तानों की इसी परंपरा की अगली कड़ी थीदेवकीनंदन खत्री के उपन्यास इस का उदाहरण हैमुंशी प्रेमचंद ने भी अपने लेखन में दास्तानों की परंपरा का दाय स्वीकार किया है[6]देवकी नंदन खत्री के उपन्यास अत्यंत लोकप्रिय हुएउनका पहला ही उपन्यास चंद्रकांता इतना लोकप्रिय हुआ कि उसकी  कड़ी दर कड़ी निकलती गई और जैसा कि सर्वविदित है कि चंद्रकांता पढने के लिये लोगो ने हिन्दी सीखीआचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है “ …जितने पाठक उन्होंने उत्पन्न किये उतने किसी ग्रंथकार ने नहींचंद्रकांता पढ़ने के लिए ना जाने कितने उर्दूजीवी लोगों ने हिंदी सीखी[7]आगे इस बात का भी जिक्र है कि चंद्रकांता और इस जैसे अन्य उपन्यासों के प्रभाव में न जाने कितने लेखक हो गयेचंद्रकांता ने हिंदी में तिलिस्मी और जासूसी उपन्यासों की एक परंपरा की शुरुआत की जो आज भी कायम हैइन उपन्यासों का संबंध लोकप्रियता से ही जुड़ाऔर इन्हें साहित्य की उस कोटि में नहीं रखा गयाआचार्य शुक्ल ही लिखते हैं “इन उपन्यासों का लक्ष्य केवल घटना वैचित्र्य रहारससंचारभावविभूति या चरित्र चित्रण नहींये वास्तव में घटनाप्रधान कथानक या हिस्से हैं जिनमें जीवन के विविध पक्षों के चित्रण का कोई प्रयत्न नहींइससे ये साहित्य की कोटि में नहीं आते” [8] आचार्य शुक्ल केवल खत्री जी का ऐतिहासिक महत्त्व ही स्वीकार करते हैं वैसे उन्होंने किशोरीलाल गोस्वामी के उपन्यासों को साहित्य की कोटि में रखा जो उनकी कसौटी में समाते थे[9]इस तरह आरम्भ में ही उपन्यास में लोकप्रिय और साहित्यिक दो श्रेणी विभाजन हो गयाउसी प्रकार जैसा कि आधुनिक युग के आरम्भ में ही भारतेन्दु और उनके समकालीनों ने ‘आर्य शिष्टजनोपयोगी’ के नाम पर पारसी नाटकों को हेय दृष्टि से देखा  और साहित्यिक रंगमंच की स्थापना की कोशिशे कीवस्तुतः ऐसा सभी कला रूपों के साथ हुआ जिसमें आधुनिकताराष्ट्रीयता और समाज सुधार के लिये उपयोगी रचनाओं को महत्त्व दिया गया और इससे इतर को हतोत्साहित किया गयालेकिन जिन कला रूपों में यह उद्देश्य पूरा होता था उनको भी दरकिनार कर दिया गया क्योंकि वे आधुनिकता के मापदंडों पर खरी नहीं थी.[10] आभिजात्य आलोचना ने कला को मर्यादित और अनुशासित रखने के लिये ‘साहित्यिक’ कहे जाने की विशेष कोटी निर्मित कर दी थी. मनोहर श्याम जोशी लिखते हैं कि “आधुनिकता के दौर से पहले संस्कृति को लोकप्रिय और श्रेष्ठ दो बिलकुल अलग थलग हिस्सों में कभी नहीं बांटा गया थायह कभी नही कहा गया था कि बौद्धिक लोगों द्वारा रचा हुआ साहित्य तमाम पुराने साहित्य से और जनता की समझ में आने वाले साहित्य से अलग और अनूठा होता है.”[11] वस्तुतः आभिजात्य और लोकप्रिय का यह विभाजन आधुनिकता की ही देन हैआधुनिकता  से विकसित चेतना ने जो पिछड़ेपन का बोध कराया उसमें परंपरा की बहुत सी चीज शामिल थी जिससे लगाव आधुनिकता के मार्ग में बाधक होताअतः आधुनिकता के प्रसार के साथ ही  हर क्षेत्र में ऐसी कृतियां हुईं जो आधुनिक मूल्यों के वाहक बन सकेंसाहित्य भी इससे अछूता कैसे रह सकता था.
जैसा कि उपर कहा गया कि कथा साहित्य का विकास ही लोकप्रिय किस्सों और कहानियों के क्रम में हुआ थालेकिन आरंभिक उपन्यासकारों के सामने अंग्रेजी उपन्यास थे जिनका अनुसरण कर वे उपन्यास की सरंचना को अंग्रेजी उपन्यासों के नजदीक रखने लगेजिस यथार्थवाद और व्यक्तिवाद का वे अनुसरण कर रहे थे वैसा यथार्थवाद यहां की जनता में न थाइसलिये उसी दौर में फ़ैंटेसी रचने वाली कहानियां और ऐतिहासिक उपन्यास आये वह जनता में अतीव लोकप्रिय हुएसाक्षरता के विकास के साथ साथ पाठक संख्या बढ़ती गई और उपन्यास जन सामान्य में जगह बनाती गईचन्द्रकांता की लोकप्रियता का जिक्र हो ही चुका हैजिसने हिन्दी उपन्यास और हिन्दी भाषा को स्थापित किया.[12] चन्द्रकांता के बाद जासूसी उपन्यासों और तिलिस्मी उपन्यासों के लेखन का एक पूरा इतिहास मौजूद हैप्रेमचंद के आगमन ने कथा साहित्य को एक नया मोड़ दियाप्रेमचंद भी अत्यंत लोकप्रिय उपन्यासकार थे लेकिन उन्होंने अपने लेखन को मनोरंजन से उपर उठाकर कुछ मूल्यपरक भी बनायाउन्होने ‘हुस्न का मेयारबदलने की सिर्फ़ बात ही नहीं की उसे बदला भीप्रेमचंद के समान ही अन्य उपन्यासकारों को लोकप्रियता के तत्त्वों को शामिल करना पड़ाजैसा कि चारू गुप्ता भी लिखती हैं “हिंदू साहित्यिकों ने लेखन को अनुशासित करने का प्रयास तो किया मगर पढ़ने की आदतों ने  उन्हें भी अपनी रचनाओं में कुछ लोकप्रिय तत्त्व समाहित करने पर विवश कर दिया.”[13] पढ़ने की ये आदत यहीं थी जो चंद्रकांता और जासूसी उपन्यासों ने तैयार की थीइसीलिये मैनेजर पांडे सही सवाल पूछते हैं कि “अगर देवकीनंदन खत्री और किशोरीलाल गोस्वामी के उपन्यासों से एक बड़ा पाठक समुदाय पैदा नहीं हुआ होतातो क्या प्रेमचंद एक के बाद एक गंभीर उपन्यास लिख पातेसंभव है अगर पहले देवकीनंदन खत्री और किशोरीलाल गोस्वामी न हुए होते तो प्रेमचंद को वहीं काम करना पड़ता जो उन दोनों ने किया  था”. [14]
 हिन्दी में लोकप्रिय साहित्य कहने से अक्सर हमारा ध्यान लुगदी उपन्यासों और फ़ुटपाथी साहित्य पर चला जाता हैऔर फ़िर अध्ययन के केंद्रो से उसे बाहर कर दिया जाता हैसारा का सारा ध्यान गंभीर साहित्य पर ही रहता हैयह भुलाकर कि गंभीर साहित्य भी लोकप्रिय हो सकता हैया लोकप्रियता मूल्यों के ह्रास का बोधक नहीं है या तथाकथित लोकप्रिय साहित्य के भी कुछ मूल्य हो सकते हैं जिनका अध्ययन कर समाज और समय को समझा जा सकता हैयह कुछ नहीं करते तो कम से कम अध्ययनशीलता की प्रवृति तो बढ़ाते ही हैंअधिकांश लेखक भी यह कबुलते हैं कि उनके पढ़ने की आदत के पीछे ऐसे साहित्य की अध्ययन की बड़ी भूमिका रही है.[15]  लोकप्रिय लेखन और साहित्यिक लेखन का भी विभाजन यह है कि ‘लोकप्रिय’ लेखन का उद्देश्य होता है कि पाठक की संवेदना को सहला कर उसका मनोरंजन करना जबकि साहित्यिक लेखन का उद्देश्य आत्माभिव्यक्ति होती है जो संवेदना के साथ साथ सोच पर भी असर करता है और किसी प्रकार का पलायन नहीं रचता हैसाहित्यिकता की कोटि भी समय अनुसार बदलती रहती है एक समय में साहित्यिक समझी गई कृतियां भविष्य में असाहित्यिक हो सकती हैं और इसी प्रकार लोकप्रिय समझी गई कृतियां साहित्यिक दर्जा पा सकती हैं.  ऊपर हमने पाठकों की बात कीहर किस्म के लेखन के अलग पाठक होते हैंकोई भी रचना शून्य में नहीं होती पाठक उसे चाहिये हीलोकप्रियता का पैमाना पाठक ही हैअगर गंभीर लेखक को पाठक ना मिले तोया जिन्हें हम गंभीर लेखक मानते हैं क्या उनकी पाठक संख्या या लोकप्रियता कम रही हैप्रेमचंद और शरतचंद्र के पाठकों की संख्या किसी ‘लोकप्रिय’ लेखक से कम रही है!  यानी लोकप्रियता और साहित्यिकता कोई दो विपरीत ध्रुवीय नहीं हैंलोकप्रिय कृति भी साहित्यिक हो सकती है उसी प्रकार  साहित्यिक कृति भी लोकप्रिय


[1]  विकिपिडिया देखें या लोकनाट्य के संदर्भ में जगदीश चंद्र माथुर ने परंपराशील नाट्य में इसकी विवेचना की है.
[3] by Raymond Williams in Keywords: A Vocabulary of Culture and Society (London, 1976: Fontana), pp. 198-199.
[4]  आयन वाट ने अपनी किताब उपन्यास का उदय(अनुधर्मपाल सरोज), हरियाणा साहित्य अकादमी१९९० में पाठक और उपन्यास के रिश्ते के बारे में विस्तार से विवेचन किया है.
[5] भारत में उपन्यास के उदय की परिस्थितियों के लिये देखें – मुखर्जीमिनाक्षी.(२०११) रियलिज्म अएंड रीअलिटि नावेल एंड सोसाईटी इन ईंडियाओयुपी,नई दिल्ली  और पांडे, मैनेजर(२००६) साहित्य के समजाशास्त्र की भूमिका, हरियाणा साहित्य अकादमी, पंचकुला
[6]  उद्धृत, मिनाक्षी मुखर्जी, पृ-४१
[7] शुक्ल, रामचंद्र.(२०१०) हिन्दी साहित्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद पृ३४२
[8]  वहीं.
[9] वहींपृ३४३
[10] पारसी नाटकोनौटंकीबिदेसिया इत्यादि अन्य नाट्य रूपों का उदाहरण हमारे सामने है जिसे विमर्श के दायरे से बाहर रखा गया जबकि राष्ट्रीयता और समाज सुधार के सवालो को ये अपने तरीके से उठा रहे थे.. उपन्यास में भी चंद्रकांता और देवकीनंदन खत्री का मूल्यांकन अरसे तक नहीं हुआबाद में राजेन्द्र यादव ने चंद्रकांता का समाजशास्त्रीय विवेचन किया.
[12] मीनाक्षी मुखर्जीपृ६४
[14] मैनेजर पांडेसाहित्य के समाजशास्त्र की भूमिकापृ– २७
[15]  जैसा की इन पंक्तियों के भी लेखक की हैप्रभात रंजन ने हिन्दी लुगदी साहित्य पर लिखे लेख में भी इन बातों का जिक्र किया हैऔर बताया है कि लोकप्रिय लेखकों में जो हिन्दी पाकेट बुक्स की योजना से जूड़े थे में गंभीर और साहित्यिक माने जाने वाले लेखक भी थेपढें.http://www.sarai.net/publications/deewan-e-sarai/01-media-vimarsh-hindi-janpad/082_091prabhatranjan.PDF
 
      

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4 comments

  1. sambhawataya…aur kuchh transliteration ki..!

  2. अमितेश को सुलेखन के लिए साधुवाद.
    जानकीपुल पर आलेखों में ऐसी और इतनी वर्तनी की अशुद्धियाँ नहीं होती,कमी तुम्हारी ओर से रही अमितेश?

  3. अच्छा लगा.

  4. मुझे अमितेश जी की ये बात पसन्द आई कि लोकप्रिय साहित्य, गंभीर साहित्य के लिए पाठक तैयार करता है. कालान्तर में यह भी विचार किया जाना चाहिए कि आखिर गंभीर साहित्य क्यों अधिक मूल्यवान है….अगर है तो….!!

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