हाल में ही विनीत कुमार की पुस्तक आई है ‘मंडी में मीडिया’. टेलीविजन मीडिया को लेकर इतनी शोधपूर्ण पुस्तक हिंदी में अरसे बाद आई है. विकास के सपने को लेकर शुरु हुआ टेलीविजन मीडिया किस तरह बाजार की चकाचौंध में खोता जा रहा है, समाचार चैनेल्स किस तरह मनोरंजन के माध्यम बनते जा रहे हैं- पुस्तक में ऐसे कई महत्वपूर्ण सवालों को उठाया गया है. वाणी प्रकाशन से प्रकाशित इस पुस्तक का एक अंश- जानकी पुल.
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एलजी इलेक्ट्रॉनिक्स के मार्केटिंग चीफ एल के गुप्ता ने २०१० अंतिम तिमाही के मीडिया प्लानिंग के बारे में बात करते हुए कहा कि कंपनी ने कुल बजट का 15 से 20 फीसदी सिर्फ दो कार्यक्रमों बिग बॉस-4 और कौन बनेगा करोड़पति-4 पर खर्च करने की योजना बनाई है। विज्ञापन और मार्केटिंग का कुल बजट 750 करोड़ रुपये था यानि एक तिमाही में करीब 187 करोड़ रुपये । विज्ञापन को असरदार बनाने के लिए उन्होंने तय किया कि दोनों कार्यक्रमों के दौरान एलजी के ही उत्पाद इस्तेमाल किए जाएं । इसलिए बिग बॉस के घर के भीतर एलजी के टीवी, माइक्रोवेव और रेफ्रीजरेटर रखे गए ताकि यह ब्रांड लोगों को बार बार दिखाई दे और उसकी स्क्रीन प्रेजेंस बढ़े। गार्नियर, वोडाफोन और नॉर सूप ने भी यही रणनीति अपनाई । कौन बनेगा करोड़पति ने हर पड़ाव पार करने के बाद स्क्रीन का रंग कैडबरी चॉकलेट के रंग का कर दिया और उसकी पंचलाइन रखी कुछ मीठा हो जाए । इसी तरह वोडाफोन ने अपनी ब्रांडिंग की।
दरअसल टीवी स्क्रीन पर जो स्पेस है वह ऑडिएंस के लिए “विजनरी स्पेस” है। टीवी देखते हुए वे इस स्पेस के साथ जुड़ते हैं। दूरदर्शन के दौर में स्पेस को लेकर बहुत अधिक प्रयोग नहीं हुए। इस बारे में कभी सोचा नहीं गया कि विज्ञापन दिखाने के बाद भी टीवी स्क्रीन का ब्रांड प्रोमोशन के लिए अलग से प्रयोग किया जा सकता है। सिर्फ क्रिकेट या अन्य खेलों के दौरान स्टेडियम के विजुअल स्पेस को विज्ञापन का स्पेस माना जाता था । लेकिन विज्ञापन की समय सीमा निर्धारित कर दिए जाने के बाद निजी सेटेलाइट चैनलों ने स्क्रीन स्पेस का अधिक से अधिक इस्तेमाल करना शुरु किया। ऐसा करने से समय सीमा का उल्लंघन भी नहीं होता और एक ऐसा माहौल बनता है जहां उत्पाद ऑडिएंस पर हमेशा हावी रहते हैं। ब्रेक के समय आनेवाले विज्ञापनों की हालत यह होती है कि लोग उस वक़्त या तो किसी और काम में लग जाते हैं या चैनल बदल देते हैं। इसलिए अब विज्ञापन की रणनीति उस दौरान प्रभाव डालने की है जब दर्शक कार्यक्रम के साथ गंभीरता से जुड़ते हैं। इसके लिए दो स्तरों पर विज्ञापन का स्पेस पैदा किया गया – 1. कार्यक्रमों और खबरों के भीतर कंटेंट के एक हिस्से के रूप में 2. चैनलों के स्क्रीन लेआउट में। ऐसा करने से स्क्रीन का व्याकरण विज्ञापन के ज्यादा अनुकूल हो गया। मनोरंजन और न्यूज चैनल दोनों पर इस स्पेस का जम कर प्रयोग होता है।
न्यूज चैनलों की स्क्रीन के अधिकांश भाग पर अब विज्ञापन काबिज रहते हैं । न केवल हेडलाइंस उनके नाम से शुरु होती है बल्कि चैनल की स्क्रीन का रंग भी विज्ञापित कंपनी का ही होता है। एक खबर से दूसरी खबर के बीच के अंतराल में कंपनी की सिग्नेचर ट्यून बजती है। स्क्रीन पर अधिक से अधिक मोंटाज और टॉगल्स लगाए जाते हैं ताकि उनके जरिए विज्ञापन किया जा सके। मौसम से जुड़ी खबरों में जगहों को दर्शाने के लिए तीर के निशान की बजाय किसी उत्पाद के लोगो का प्रयोग किया जाता है। ऐसे में ब्रेक न होने पर भी तीन-चार उत्पादों के विज्ञापन स्क्रीन पर मौजूद रहते हैं। कार्पोरेट, इंटरटेन्मेंट या लाइफस्टाइल की खबरों में तो न्यूज चैनल खुद वैसे फुटेज ज्यादा चलाते हैं जिनमें उनको स्पांसर करने वाले ब्रांड दिखाई दें। कंपनियां भी टीवी स्क्रीन को ध्यान में रख कर ऐसे वॉल(विज्ञापन बोर्ड) का प्रयोग करती है जिन्हें खबर के दौरान शामिल करने में दिक्कत न हो। विज्ञापनों के लिए स्क्रीन स्पेस कितना बड़ा हॉट केक है इसे खबर के दौरान तेजी से बढ़ती पट्टियों की संख्या से जाना जा सकता है।
मनोरंजन प्रधान चैनलों में स्क्रीन स्पेस का इस्तेमाल दूरदर्शन के लाइव क्रिकेट शो से शुरु हुआ । खेलों और समाचारों की प्रेरणा से ही रियलिटी शो और टीवी सीरियलों में भी इस स्पेस में विज्ञापन दिए जाने लगे। नतीजा यह हुआ कि सार्वजनिक जगहों पर लगाए जाने वाले बैनर या विज्ञापन एक-एक करके विज्ञापन के अर्थशास्त्र में शामिल हो गए । यही नहीं वह सारा स्पेस विज्ञापन का अधिकृत स्पेस मान लिया गया । टीवी पर भी तेजी से एक ऐसा स्पेस बना जिसे पहले निजी स्पेस मानकर नजरअंदाज कर दिया जाता था। बाथरुम सिंगर, बिग बॉस (2007) और मास्टर शेफ (2010) जैसे कार्यक्रमों ने विज्ञापन के लिए दो नए स्पेस ईज़ाद किए- बाथरुम और किचन। ये दोनों ऐसी जगहें हैं जो टीवी पर एक साथ दर्जनों उत्पादों के ब्रांड स्थापित कर सकती हैं ।आमतौर पर किसी कार्यक्रम में इतने ब्रांडों को दिखाना संभव नहीं हो पाता । इन कार्यक्रमों के बाद सीरियलों मं भी यह स्पेस प्रमुख हो गए। सास-बहू सीरियल जो पहले ऑफिस और घर तक सीमित रहते थे, बाद के सीरियलों में उससे आगे बढ़ कर दूसरे हिस्सों का भी बारीकी से प्रयोग हुआ। घर का हर कोना विज्ञापन का स्पेस बनाया जाने लगा। एमटीवी जैसे चैनल अपने स्टूडियो को पहले से ही विज्ञापन स्पेस के तौर पर इस्तेमाल करते आ रहे थे। अब के सारे टीवी कार्यक्रमों में स्क्रीन स्पेस के प्रयोग पर खास ध्यान दिया जाता है। इससे टीवी में विजुअल्स को लेकर रणनीति बदली है।
16 मई 2007 को टैम ने रिटेल, मीडिया और कंज्यूमर इनवॉयरमेंट पर एक रिपोर्ट जारी की। इस रिपोर्ट में बताया गया कि टीवी पर क्रिकेट को सबसे अधिक विज्ञापन क्यों दिया जाता है? यह सवाल व्यूअरशिप के अलावे स्क्रीन पर विज्ञापन के व्याकरण का भी है। क्रिकेट विज्ञापन को तीन तरह का स्पेस देता है- 1.स्टेडियम की दीवारों और मैदान पर बैनर, होर्डिंग और ग्राउंड पेटिंग 2. खिलाडियों के इस्तेमाल में आनेवाली चीजें जिनमें उनके कपड़े से लेकर बैट, पैड, दस्ताने सब शामिल हैं 3. स्कोर दिखाने के लिए इस्तेमाल किए जानेवाले ग्राफिक्स। ऐसे करीब 15 स्पेस बनते हैं जहां विज्ञापन किया जा सकता है। न्यूज चैनलों में जब क्रिकेट की खबरें या फुटेज आती है तो इनकी संख्या 20 से भी ज्यादा हो जाती है क्योंकि चैनल अपनी स्क्रीन पर दूसरे विज्ञापन भी शमिल करता है। विज्ञापनों की इस तरह बढ़ती संख्या को प्रसारण की निर्धारित अवधि से अलग करके देखें तो अंदाजा लग जाएगा कि स्क्रीन स्पेस पर इनकी मौजूदगी सबसे अधिक मजबूती से होती है। यही हाल रहा तो आनेवाले समय में विज्ञापनों के बीच मिनट या सेकंड से ज्यादा स्क्रीन स्पेस को लेकर जंग होगी ।
T.V.programmes have become so sickening that there is hardly anything worth watching.You keep on using the remote to change the hundreds of useless channels in search of some good stuff but there is only disillusionment due to commecialistion.It is a long awaited article but is there anyone listening?