प्रायश्चित
जैसा जीना चाहती थी जी नहीं पाई,
मै जीने की तैयारी ही करती रही,
और उम्र, जीवन की हथेलियों से
रेत सी फिसलती चली गई|
हलाकि बहुत चाहा ना सिर्फ खुद के लिए बल्कि
जिऊँ दूसरों के लिए भी,
ताकि खुद को दुनिया के अन्य ‘बुद्धिहीन’ पशुओं से
अलग होने का भरोसा पा सकूँ, लिहाजा
अपने तमाम सत्यों, आदर्शों, संवेदनाओं, खुशियों, कर्मठताओं, ईमानदारियों से
उन असंख्य उपदेशों, सूक्तियों, आप्त वाक्यों, किंवदंतियों के सहारे
जो बचपन में
ठूंस ठूंस कर भरी गई थीं ज़ेहन की कच्ची ज़मीन पर
खाद की तरह और जो
कहती ही नहीं
दावा करती थीं सफल और सार्थक जीवन जीने का,
……कि इससे पीढियां होंगी सभ्य सुसंस्कृत और अजेय
……कि ये सदगुण फूल हैं इस धरती के उपवन के
…….कि इन फूलों से दुनिया सराबोर हो जायेगी सुगंधों से
वगैरह वगैरह!
बहुत बाद में पता चला कि ये तमाम नैतिकताएं,
ना उपवन ना फूल ना सुगंध
सिर्फ
शब्द भर थे जिन्हें किताबें होना था
उन किताबों को पढ़ पीढ़ियों को शिक्षित और
चालाक बनना था
सच कहूँ, मुझे समानार्थी नहीं विपरीत शब्द चुनना था,
ये इल्म बहुत बाद में हुआ |
उम्र तो अपने तयशुदा अंकों को गिनती रही, पर
‘’कहाँ की कहाँ’’ पहुँचने वाली दुनिया
दरअसल कहीं नहीं पहुँची,
बस अपने आसपास ही बिखर गयी |
गुणीजन कहते हैं कि समय किसी के लिए नहीं रुकता
मैंने भी कब रोकना चाहा उसे?
खुद से दो कदम आगे चलते समय से मुझे कोई शिकायत नहीं
पर अब मै पीछे लौटना चाहती हूँ
अपने अतीत की स्लेट….
कोरा कर डालूं उसे एक बार फिर
मिटाते हुए स्मृतियों के ‘’पोता पानी से’’
लिखा था जिस पर सुन्दर अक्षरों में
प्रेम, दया, सहयोग, संवेदना, उदारता जैसा कुछ |
लिखूं एक नया अध्याय शुरू से
घृणा, अन्याय, प्रताडनाओं, ईर्ष्या, द्वेष जैसे
विध्वंसकारी शब्दों का
ताकि मुक्त हो सकूँ
ठगे जाने की कुंठा से|
………………………………………………………………………………………………………………,
पता नहीं
आजकल सच और सपने में कोई फर्क ही नहीं लगता!
समझ में नहीं आता कि जो नींद में देखा वह सपना था
कि अब जागते हुए देख रहे हैं वह सपना है….
सब गड्डमड्ड …..|
सपने में देखती हूँ
कि लोग जत्थों में चले जा रहे हैं जुलूस की शक्ल में
हाथों में झंडे, माथे पर रोष की लकीरें
तनी हुई मुठ्ठियाँ, शिराएं ….|
मेरे कानों में एक आवाज़ गूंजती है किसी शिशु की …
आवाज़- ‘’कौन हैं ये लोग?
मै- ‘’ये मनुष्य हैं| इस धरती के सर्वाधिक बुद्धिमान जीव |
आवाज़- क्या कर रहे हैं ये ?
मै- आन्दोलन
आवाज़- आंदोलन किसे कहते हैं?
मै- अपनी मांगों को पूरा करवाने का तरीका
आवाज़- ये राष्ट्रवादी हैं?
मै- नहीं ईश्वरवादी |
आवाज़- ईश्वर क्या होता है?
मै- जिसके वश में पूरी दुनिया है
आवाज़- तो ये लोग सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञाता ईश्वर से क्यूँ नहीं मांगते ?
मै- क्या?
आवाज़- कि हमें अपना गर्भ और लिंग चुनने की आज़ादी होना चाहिए!
मै -…………
कि हम कहाँ से आये हैं और कहाँ जायेंगे ये ज्ञात होना हमारा अधिकार है ….
मै…………………
आवाज़– कि हम जैसी पारदर्शिता सरकार और जनता,
अमीरी और गरीबी के बीच चाहते हैं,
वैसी ही ईश्वर और मनुष्य के बीच होनी चाहिए
मै- पता नहीं …..|
………………………………………………………………………………………………………..
दौड
आजकल चलना भूल चुके हैं हम
सिर्फ दौड रहे हैं
कुछ आगे जाने लिए
शेष कुचल ना जाने के डर से
दौड़ते हुओं की भीड़ में रास्ता बनाते हुए|
थककर गिरी हुई पीठों के ऊपर से
उन्हें कुचलते हुए ……|
शुरू में दौड़ने का मकसद जीतने की मंशा से जुड़ा था
पर अब ये मोहलत है जिंदा रहने की |
भीड़ इस कदर बढ़ चुकी है कि
अब हाथ भी उठा लिए हैं हमने
इन उठे हुए हाथों को
समझो विवशता, आशीष, सजा, जीत या समर्पण
जो चाहो,
क्योंकि ‘’आजादी’’ के इस युग में
अभिव्यक्ति के तरीके अलग अलग हो सकते हैं |
खुश होना चाहो तो हो लो
कि आजादी अभी शेष है
खुद को अभि -व्यक्त करने की ……
………………………………………………………………………………………………………
प्रेम
प्रेम हमेशा इस डर के साथ आया
कि वो चला ना जाये
किसी दिन के उजाले की उंगली पकडे
या किसी नींद को रात बना |
डरते ही डरते रहा आया वो
देह में मन में दुनियां में ईश्वर में
खण्डों में जीता रहा वो खंडित इच्छाओं सा
अखंड की जिद थी अधूरी, विखंडित
डर ने प्रेम को प्रेम होने ही नहीं दिया
वो तो रहा जुड़ा किसी कमज़ोर गिरह की मानिंद
और टूटा किसी सपने की तरह
देह में मन में दुनियां में ईश्वर में ..|
……………………………………………………………
पहचान-पत्र
मुझ
Tags vandana shukla
Check Also
तन्हाई का अंधा शिगाफ़ : भाग-10 अंतिम
आप पढ़ रहे हैं तन्हाई का अंधा शिगाफ़। मीना कुमारी की ज़िंदगी, काम और हादसात …
प्रेम हमेशा इस डर के साथ आया
कि वो चला ना जाये
………
डर ने प्रेम को प्रेम होने ही नहीं दिया
वो तो रहा जुड़ा किसी कमज़ोर गिरह की मानिंद
और टूटा किसी सपने की तरह
देह में मन में दुनियां में ईश्वर में ..|
बहुत खूबसूरत कवितायेँ हैं , वंदना ! बधाई !
बहुत धन्यवाद अपर्णा विपिन ,आप सभी के कमेन्ट मेरे लिए मूल्यवान हैं …खुश हूँ 🙂
बहुत बाद में पता चला कि ये तमाम नैतिकताएं,
ना उपवन ना फूल ना सुगंध
सिर्फ
शब्द भर थे जिन्हें किताबें होना था
वंदना, आपकी कविताएँ आकर्षित करती हैं. उनकी सहजता और संवेदना कवि का परिचय पूरी प्रगाढ़ता से कराती हैं. प्रभात और जानकीपुल का आभार इन कविताओं को साझा करने के लिए. वंदना को बधाई !
शुक्रिया जानकी पुल 🙂
शुक्रिया अनुपमा जी ,प्राण जी ..
वंदना
VANDANA JI KEE KAVITAAYEN PADH KAR AANANDIT HO GAYAA HUN . UNKEE KUCHH
AUR KAVITAAYEN BHEE PADHWAAEEYEGA PRABHAT RANJAN JI .
VANDANA JI KEE KAVITAAYEN PADH KAR AANANDIT HO GAYAA HUN . UNKEE KUCHH
AUR KAVITAAYEN BHEE PADHWAAEEYEGA PRABHAT RANJAN JI .
Prabhat Ji,
Thank you ! Vandna ji ki kavitaon ne gahre mein dubo diya.
Anupama Tiwari
Prabhat Ji,
Thank you ! Vandna ji ki kavitaon ne gahre mein dubo diya.
Anupama Tiwari