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संवेदना के दर्पण में नॉयपाल

हाल में ही पेंगुइन बुक्स और यात्रा बुक्स ने हिंदी में प्रसिद्ध लेखक वी.एस.नायपॉल की कई पुस्तकों के अनुवाद प्रकाशित किए हैं. कल के ‘जनसत्ता’ में हिंदी के प्रसिद्ध कवि कमलेश ने नायपॉल की पुस्तक  ‘द मास्क आफ अफ्रीका’ के बहाने नायपॉल पर बहुत सारगर्भित लेख लिखा है. साझा कर रहा हूं- जानकी पुल.
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विद्याधर शिवप्रसाद नायपॉल के नाम कोई पढ़ा-लिखा भारतीय शायद ही अपरिचित हो। उन्हें न केवल साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिला, बल्कि कई और बड़े पुरस्कार  मिले। ब्रिटिश सरकार ने उनको ‘नाइटहुड’ से सम्मानित किया। उन्होंने भारत के भी तीन यात्रावृतांत लिखे हैं। भारत की पृष्ठभूमि पर उपन्यास भी लिखा है। 
 
नायपॉल का जन्म ट्रिनीडाड में हुआ था। उनके पूर्वज पूर्वी उत्तर प्रदेश से उन्नीसवीं शताब्दी में मजदूरी करने के लिए केरेबियन ले जाए गए थे। नायपॉल के पिता अंग्रेजी में शिक्षा प्राप्त कर पत्रकार बन गए थे लेकिन उनकी साहित्यकार बनने की अभिलाषा थी। अपने पूर्वजों के देश के प्रति भी उनके मन में आकर्षण था। उन्होंने अपनी बेटी को शिक्षा के लिए काशी हिंदू विश्वविद्यालय भेजा था। अपने बड़े बेटे विद्याधर को वे साहित्यकार बनाना चाहते थे। उन्हें संयोगवश एक छात्रवृत्ति मिल गई और वे आगे की शिक्षा पाने के लिए आक्सफोर्ड चले गए। यहीं उन्होंने लिखना शुरू किया और अपना सारा जीवन लेखन के प्रति ही समर्पित कर दिया। इसके लिए उन्होंने प्रबल साधना की और धीरे-धीरे उन्हें सफलता मिली। प्राप्त हुई।  वे भारत बार-बार आते रहे हैं।  भारतवर्ष के कई यात्रावृतांत उन्होंने लिखे हैं, जिनमें भारत की समकालीन समस्याओं की भी चर्चा हुई है।
 
नायपॉल ने नोबेल पुरस्कार मिलने पर इसे ‘भारत का सम्मान’ कहा था। लेकिन भारत में उनके कुछ वक्तव्यों और कुछ यात्रावृतांतों को लेकर धर्मनिरपेक्ष और कम्युनिस्ट जमातों ने बहुत शोर मचाया। यह इतना छिछला विरोध था कि इससे नायपॉल का नाराज होना स्वाभाविक था। भारत में उनके समर्थन में एकाध लोग ही बोले होंगे। भारत सरकार ने भी पिछले दस साल में भारतीय मूल के इस लेखक की सुध नहीं ली है। भारत के ब्रिटेन स्थित उच्चायुक्त उनसे कभी मिलते जुलते हैं या नहीं, इसकी भी कोई खबर नहीं। भारतीय भाषाओं के साहित्यकार पश्चिम के निम्न कोटि के साहित्यकारों की भी अनुकृति और अनुशंसा करते नहीं अघाते। शायद ही किसी भारतीय साहित्यकार ने नायपॉल की कृतियों को यथोचित गंभीरता से पढ़ा हो। इसलिए उनका अपने पूवर्जों के देश के प्रति मोहभंग स्वाभाविक है।
 
पहले नायपॉल की पुस्तकों में उनके परिचय में पहली पंक्ति यह छपा करती थी कि उनका जन्म भारतीय मूल के परिवार में ट्रिनीडाड में हुआ था। अब उनकी नई कृति में उनके परिचय से ये शब्द हट गए हैं। केवल यह लिखा हुआ है कि उनका जन्म ट्रिनीडाड में हुआ था। भारतीय मूल शब्द हटा लिया गया है। यह जानबूझकर किया गया है। यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात है। उन्होंने ऐसा भारत से नाराजगी की वजह से ही किया होगा। इस पर नायपॉल को पढ़ने वालों का, भारतीय पढ़े-लिखों का और भारत सरकार का भी ध्यान जाना चाहिए। कोई भी जाति अपनी महान संतानों से इस तरह आंखें नहीं मूंद लेती।
 
भारत के सामान्य पाठकों में नायपॉल की लोकप्रियता लगातार बढ़ी है। उनकी कृतियों के भारतीय संस्करण छप कर बिकते रहे हैं। इस लोकप्रियता के कारण ही अब भारत की भाषाओं में और हिंदी में भी उनकी कृतियों के अनुवाद प्रकाशित होने लगे हैं। ‘द मास्क आफ अफ्रीका’ का अनुवाद तो अंग्रेजी प्रकाशन के वर्ष भर के भीतर ही उपलब्ध हो गया है। पुस्तक के प्रकाशकों ने इसका अंग्रेजी नाम यथावत रहने दिया है।
 
‘मास्क आफ अफ्रीका’ यूगांडा से शुरू होकर घाना, नाइजीरिया, आइवरी कोस्ट, गैबोन होते हुए बिल्कुल दक्षिणवर्ती देश दक्षिण अफ्रीका का यात्रावृतांत हैं।  नायपॉल पहले भी अफ्रीका जाते रहे हैं और अफ्रीका की पृष्ठभूमि पर उनके कई महत्त्वपूर्ण उपन्यास लिखे गए हैं। नायपॉल काफी तैयारी करके ही किसी देश की यात्रा पर निकलते हैं। वे उस देश के भूगोल, पिछले दो-तीन सौ वर्षों में वहां के बारे में लिखे गए यात्रावृतांत, वहां के धर्म के विषय में लिखे गए विवरण, वहां के इतिहास के बारे में सारी जानकारी एकत्रित कर लेते हैं तभी वहां जाते हैं।
 
नायपॉल को इन देशों में पूर्व-यात्रियों के चिन्ह मिले। वहां की पहली बड़ी यात्राएं वहां के निवासियों को पकड़ कर गुलाम बना कर पंद्रहवीं सदी और उसके बाद मजदूरी करने के लिए नव-आविष्कृत नई दुनिया अर्थात अमेरिका और लातीनी अमेरिका में बेचने के लिए ले जाने के लिए की गई थी। यह दौर अफ्रीका के निवासियों में बड़े घाव छोड़ गया है। उसके बाद की बड़ी यात्राओं का दूसरा दौर कई प्रकार के ईसाई मिशनरियों और मुल्लाओं द्वारा धर्म परिवर्तन के लिए शुरु हुआ था जो अभी तक चल रहा है। इसके चिन्ह इन देशों में बड़े-बड़े गिरजाघरों और उतनी ही बड़ी मस्जिदों के रूप में दिखाई देते हैं।
 
अफ्रीकी देशों और राज्यों को विजित कर वहां पर अपना अधिकार जमाने वाली यूरोपीय सेनाओं के विजय अभियान से तीसरा दौर शुरू हुआ। इन सभी अभियानों ने इन देशों में अपने चिन्ह छोड़े हुए हैं। हालांकि आज अफ्रीका के सारे देश राजनीतिक दृष्टि से स्वतंत्र हैं। आज के अफ्रीकी देश की निर्मिति में अपनी प्राचीनदाय के साथ-साथ ऊपर वर्णित सभी तत्त्व हैं। जनता के एक बड़े भाग का विश्वास अपनी पुरानी मान्यताओं पर बना हुआ है। नायपॉल ने अपनी यात्रा में इन सारी बातों पर नजर डाली है।
 
यूगांडा में 1840 के आस-पास अरब व्यापारी आए। उन्होंने गुलाम और हाथी दांत खरीदे, बदले में सस्ती बंदूकें और खिलौने देकर दाम चुकाया। उस समय कवाका सुन्ना यहां का राजा था। तब तक उसने आइने में अपना चेहरा नहीं देखा   था। फिर तो वह एक खिलौना-आइने में अपना चेहरा ही देखता रहा। संभवत: उन्होंने इस्लाम को भी स्वीकार कर लिया। सुन्ना के बेटे और उत्तराधिकारी बुटेसा ने 1861 में जान हैनिंग स्पेक से मुलाकात की जिसकी बंदूकें और कंपास उसे पसंद आए। स्पेक से मिलने के बाद बुटेसा इस्लाम का विरोधी हो गया। उसने ईसाई मिशनरियों को आमंत्रित किया। आज घाटी के पास की पहाड़ी की ओर देखने पर बड़े-बड़े चर्च और भव्य मस्जिदें दिखाई पड़ती हैं।
विदेशी धर्म एक प्रायोगिक और संक्रामक’ रोग की तरह था, जो न कोई इलाज करता था, न कोई अंतिम जवाब देता था, हर किसी को घबराहट में रखता था, गलत लड़ाइयां लड़ता था, और दिमाग को संकरा बनाता था। नायपॉल कसूबी देखने गए, जहां पुराने राजाओं के मकबरे बने हुए थे। वे लिखते हैं- ‘स्थल के अंदर घास का एक गेट हाउस था यह अंधकारमय था, और वहां छत को संभालने के लिए दो पंक्तियों में लकड़ी के खंभे थे। खंभे आश्चर्य की बात थे, मुझे नहीं मालूम था कि घास की गुंबद के नीचे खंभे इस वास्तुकला की एक विशेषता थे। गेट हाउस के आगे बार्इं ओर ढोल-झोपड़ी थी। यह ढोलों से भरी पड़ी थी। ढोल पवित्र थे, प्रत्येक की अपनी आवाज होती थी और विभिन्न ढोल विभिन्न अवसरों के लिए प्रयोग किए जाते थे। … गेट हाउस से एक पक्की सड़क, यूगांडा की किसी सड़क की तरह सीधी, नंगे मैदान की चमक के रास्ते वहां तक जाती थी जहां मुख्य भवन था और लगभग जमीन तक पहुंच रही कंगनियों के नीचे प्रवेश द्वार का अंधेरा था। इस सारे नंगे क्षेत्र के किनारे-किनारे कुछ आयताकार, कुछ गोल झोपड़ियां थीं। ये झोपड़ियां उन कर्मियों के लिए थीं, जो इस जगह की देखरेख करते थे और खासकर खुले आंगन में उस आग की देख-रेख करते थे जो कवाका के जीवन का प्रतीक थी। यहां मैदान इतना नंगा क्यों था? क्या घास ज्यादा अच्छी नहीं लगती? बताया गया कि नंगी जमीन पर सांपों को देखना आसान होता है’।…
‘खुद मकबरे के अंदर, बार्इं ओर अचानक अंधेरे में बैगनी पट्टियों वाले रैफिया की चटाई पर एक बूढ़ी औरत बैठी हुई थी।… उसे मृत कवाका की पत्नी माना जाता था।’ कवाका मरते नहीं थे, गायब हो जाते थे और जंगल चले जाते थे। जंगल सामने ही था मकबरे के अंदरूनी भाग में, किसी थिएटर के फायर कर्टेन जैसे मकबरे के ऊपर से नीचे तक लटक रहे भूरे छाल के कपड़े के पीछे छुपा। इस इमारत में यह जरूरी था कि हर चीज स्थानीय भूमि की हो। कोई भी चीज बाहर से नहीं मंगाई जा सकती थी। यह एकरस और विचित्र सी सुंदरता धार्मिक आवश्यकता थी। गुंबद लकड़ी के खंबों और तराशी हुई टहनियों, जिनकी वास्तविकता को छुपाने की कोशिश नहीं की गयी थी और मजबूती से बांधे गए बांसों के बाईस वृत्ताकार शहतीरों पर टिकी हुई थी। ये बाईस शहतीरें युगांडा के बाईस वंशों के प्रतीक थे।’ अब इस क्षेत्र को ‘यूनेस्को हेरिटेज साइट’ घोषित कर दिया गया है।
 
पुराने दिनों में किसी मकबरे की नई बुनियाद रखते समय मानवबलि एक आम प्रथा थी। इस मकबरे के बनते समय भी नौ आदमियों की बलि दी गयी थी।  नायपॉल ने पहली-दूसरी शताब्दी के रोमन इतिहास का टेसिटस का यह कथन उद्धृत किया है कि देवताओं को मंदिरों या किसी चारदीवारी के अंदर कैद कर देना उनका अपमान है। उनकी पूजा खुले में, सुंदर उपवनों में, बगीचों या नदियों में की जानी चाहिए, जो जगहें फिर से देवता की आत्मा से अनुप्राणित हो जाती हैं। यूगांडा के पूजा स्थल कुछ इसी तरह के हैं। कवाकाओं के मकबरे स्पष्ट रूप से पूजा स्थल हैं। लेकिन उनके अलावा भी पूजा स्थल हैं जो पूरे यूगांडा में फैले हुए हैं- मसलन झरने या असाधारण चट्टानें भी पूजा स्थल हैं।
 
नायपॉल ने तंत्र-मंत्र चिकित्सा और ओझा लोगों का भी वर्णन किया है और अभ्यर्थियों का भी। उन्होंने एक भविष्यवक्ता से बातचीत की और उससे अपनी बेटी के भविष्य के बारे में पूछा। भविष्यवक्ता ने कुछ बताया भी। लेकिन यह मजाक ही था क्योंकि नायपॉल के कोई संतान नहीं है। नायपॉल सम्भवत: नील नदी का श्रोत भी देखने गए। यूगांडा के कॉलेजों और विश्वविद्यालय का भी उन्होंने अवलोकन किया। इसके बाद वे अगले देश में पहुंच गए।
 
नायपॉल ने गैबोन में लिवरविल जाने का विवरण लिखा है। लैवादीन ओग्यूबे नदी में एक सकरा सा द्वीप है कोई पंद्रह मील लंबा जिस पर डॉ. अल्बर्ट श्वीत्जर का विश्व प्रसिद्ध अस्पताल बना हुआ था। सभ्यता की ओर पीठ कर लेने वाले और अफ्रीका के बीच जंगलों में जा कर वहां के आदिवासियों की चिकित्सा में लग जाने वाले डॉ. श्वीत्जर की कहानी बीसवीं सदी के शुरू से ही अनेक पुस्तकों और इनके हर भाषा में अनुवाद के जरिए दुनिया भर में मशहूर र्हुर्इं थीं। श्वीत्जर ने अपनी आत्मकथा भी लिखी थी और पश्चिमी संगीत के बारे में एक पुस्तक भी।
इस यात्रावृतांत के अंत में लेखक दक्षिण अफ्रीका में हैं। वहां से चलने के पहले उनकी मुलाकात रियान मेलन से होती है, जो मशहूर उपन्यास-‘माई ट्रेटर्स हार्ट’ के लेखक हैं। नायपॉल इसे महान कृति कहते हैं। इसके बारे में  नायपॉल का कहना है कि ‘पुस्तक अठारहवीं सदी के एक पूर्वज के संक्षिप्त और अधूरे विवरण के साथ शुरू  होती है, जो कानून और परंपरा की अवज्ञा करते हुए एक दास स्त्री के साथ भाग जाता है। जब यह पूर्वज दोबारा सामने आता है तो उसके साथ कोई दास स्त्री नहीं होती, इससे भी ज्यादा यह कि वह पूरी तरह श्वेत नेता बन चुका होता है। लेखक कोई कारण नहीं बता सकता, रिकॉर्ड भी कुछ नहीं बताते, अपनी दास प्रेमिका के साथ   पूर्वज की जिंदगी की कोई कहानी नहीं है। सारी बात एक रहस्य है, और ‘माई ट्रेटर्स हार्ट’ सुझाती है, लेकिन बस सुझाती ही है कि लेखक की अनिश्चितता में पुराने रहस्य का यह गुण है।’
 
‘माई ट्रेटर्स हार्ट’ एक नीति कथा के साथ खत्म होती है। यह एक गोरे (या अंग्रेज) दंपति की कहानी है जो एक निर्जन और दिल चीर देने वाले स्थान पर जिंदगी भर काम और कुर्बानी के सहारे अफ्रीका के दिल (अगर इस तरह कहा जा सकता है ) तक पहुंचना चाहते हैं। मगर रियान मेलन इसे स्वीकार करते हुए भी अपने सहज तरीके में अपनी कहानी से ऊपर उठ जाते हैं और सुझाव देते हैं कि यह श्वेत दक्षिण अफ्रीका के लिए आगे की राह हो सकती है, एक ऐसी जगह यहां श्वेतों के पास कोई गारंटी नहीं है।’
 
जोसेफ कानराड नायपॉल के बहुत प्रिय लेखक रहे हैं। कानराड का प्रसिद्ध उपन्यास ‘द हार्ट आफ डाकर्नेस’ नायपॉल का प्रिय उपन्यास है। इस यात्रावृतांत के अंत में भी कानराड का स्मरण आ जाता है। भारतीय मूल के महान लेखक वीएस नायपॉल की इस नई कृति का खुल कर स्वागत करना चाहिए। इस पुस्तक का अनुवाद शायद बहुत जल्दी में किया गया है। इसके प्रकाशक पेंगुइन की अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा है, फिर भी इस अनुवाद पर कोई संपादकीय सुधार का काम हुआ हो, ऐसा नहीं लगता। इसलिए इस रोचक वृत्तांत की पठनीयता कम हो गई है।             
 
      

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6 comments

  1. विद्याधर शिवप्रसाद नायपॉल नहीं। विदियाधर सूरजप्रसाद नायपॉल

  2. अत्यंत रोचक एवं जानकारी पूर्ण लेख | दरअसल भारतीय मूल और त्रिनिनादी दो संस्कृतियों के अधूरेपन ने उन्हें अन्यान्य धर्मों की ओर जोड़ा जो उनके लेखन में मिलता है |उनके दो यात्रा वृत्तान्त ‘’बियोंड बिलीफ ‘’और एमंग ड बिलीवर्स ;एन इस्लामिक जर्नी ‘’मशहूर हुए |’’एन एरिया ऑव डार्कनेस’’और इंडिया ;ए वूंडेड सिविलाईज़ेशन ‘’ये दो किताबें उनकी भारत से सम्बंधित थी जिसमे उन्होंने भारतीय संस्कृति और जीवन की आलोचना की थी संभवतः ये एक प्रतिक्रया थी जैसा कि लेख में बताया गया है ‘’भारतीय भाषाओं के साहित्यकार पश्चिम के निम्न कोटि के साहित्यकारों की भी अनुकृति और अनुशंसा करते नहीं अघाते। शायद ही किसी भारतीय साहित्यकार ने नायपॉल की कृतियों को यथोचित गंभीरता से पढ़ा हो। इसलिए उनका अपने पूवर्जों के देश के प्रति मोहभंग स्वाभाविक है।‘’ग्यातत्व है कि नायपॉल ने नोबेल पुरस्कार मिलने पर इसे ‘भारत का सम्मान’ कहा था। लेकिन भारत में उनके कुछ वक्तव्यों और कुछ यात्रावृतांतों को लेकर धर्मनिरपेक्ष और कम्युनिस्ट जमातों ने बहुत शोर मचाया। यह इतना छिछला विरोध था कि इससे नायपॉल का नाराज होना स्वाभाविक था।उल्लेखनीय है कि सुप्रसिद्ध यात्रा वृत्तान्त लेखक पौल थरू उनके करीबी और प्रसंशक थे लेकिन बाद में उन दौनों में मतभेद हो गए थे |’’इस महत्वपूर्ण लेख को पढवाने के लिए धन्यवाद प्रभात जी

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