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यह सिर्फ एक शख्स के जाने का शोक नहीं था

अरुण प्रकाश को याद करते हुए यह कविता हमारे दौर के महत्वपूर्ण कवि प्रियदर्शन ने लिखी है. प्रियदर्शन की यह कविता केवल अरुण प्रकाश को श्रद्धांजलि ही नहीं है दिल्ली के ठंढे पड़ते साहित्यिक माहौल को भी एक तरह से श्रद्धांजलि है. कविता को पढकर मैं तो बहुत देर तक मौन रह गया. देखते हैं आपको यह किस तरह प्रभावित करती है- प्रभात रंजन 
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दिल्ली में शोकसभा

(अरुण प्रकाश को श्रद्धांजलि सहित)

यह जो अपने आसपास हैं इतने सारे लोग बैठे
यह जो मैं हूं इतने सारे लोगों के बीच बैठा
यह जो सभा है लगभग भरी हुई सी
यह जो इतने सारे वक़्ता
धीरे-धीरे मंच पर जाकर याद कर रहे हैं उस शख्स को
जो धीरे-धीरे मंच से बाहर चला गया
बहुत सारे लोगों ने उसे आख़िरी बरसों में नहीं देखा था
वे उसकी बीमारी और आख़िरी दिनों के उसके जीवट की चर्चा करते रहे
बहुत सारे लोगों ने उसे बहुत पहले देखा था
जब वह युवा था और उम्मीदों और कहानियों ही नहीं, कविताओं से भी भरा हुआ था
वह दूसरों के काम आता था अपनी बीमारियां छुपाता था
वह दोस्त बनाता था दुश्मन बनाता था दोस्ती याद रखता था दुश्मनी भी याद रखता था
जो याद करने आए वे सब उसके दोस्त नहीं थे
कुछ दोस्त से कुछ ज़्यादा रहे होंगे और कुछ दुश्मन से कुछ कम
लेकिन दोस्ती-दुश्मनी छूट गई थी-
इसलिए नहीं कि मौत ने उस शख़्स को दूर कर दिया था,
बल्कि इसलिए कि मौत शायद उसे कुछ ज़्यादा क़रीब ले आई
वरना इस शहर में इतने सारे लोग बिना किसी न्योते के, उसके लिए क्यों जुट आए?
वरना इस शहर में मैं जो बरसों से उससे नहीं मिला, उसकी अनुपस्थिति से मिलने क्यों चला आया?
सभा में कुछ ऊब भी थी कुछ अनमनापन भी था
सभा के ख़त्म हो जाने का इंतज़ार भी था कि सब मिलें एक-दूसरे से, कुछ अलग-अलग टोलियों में चाय पिएं और कुछ अपनी-अपनी सुनते-सुनाते अपने घर चले जाएं
लेकिन इतने भर के लिए आए दिखते लोग इतने भर के लिए नहीं आए थे।
उनके भीतर एक शोक भी था- बहुत सारी चीज़ों से दबा हुआ, दिखाई न पड़ता हुआ,
किसी अतल में छुपा बैठा।
वह कभी-कभी सिहर कर बाहर भी आ जाता था।
कभी-कभी किसी रुंधे हुए गले की प्रतिक्रिया में भिंचा हुआ आंसू बनकर आंख पर अटक जाता था
जिसे रुमालों से लोग चुपचाप पोछ लेते थे
दूसरों से छुपाते हुए।
यह सिर्फ एक शख्स के जाने का शोक नहीं था
यह बहुत कुछ के बीत जाने का वह साक्षात्कार था
जिससे अमूमन हम आंख नहीं मिलाते।
ऐसी ही किसी शोकसभा में याद आता है
जो चला गया कभी वह बेहद युवा था
उसके साथ बहुत सारे युवा दिन चले गए
कि समय नाम की अदृश्य शिला
चुपचाप खिसकती-खिसकती न जाने कहां पहुंच गई है
कब वह हमारे सीनों पर भी रख दी जाएगी
कि जो गया उसके साथ हमारा भी काफी कुछ गया है
कि उसके साथ हम भी कुछ चले गए हैं
कि एक शोक सभा हम सबके लिए नियत है।
 
      

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11 comments

  1. प्रभात जी,यदि आप लेखकों कवियों के संपर्क सूत्र भी प्रकाशित कर सकें तो यह कितना अच्‍छा हो—एक सुझाव है। हम जैसे दूरस्‍थ लोगों को इससे उस लेखक से संपर्क करने में सुविधा हो सकती है।

  2. एक शोकसभा हम सबके लिए नियत है—–विरल सच का उद्धोष करने वाली पदावली है यह। यहीं होना है खाक हम सबको यहीं होना है पंचतत्‍वों में विलीन अपने अपने यश अपयश, जय पराजय, अंधकार और समुज्‍ज्‍वलताओं को एक दिन अलविदा कह कर हम सबको रुखसत होना है। कविता एकालाप में भी बातचीत के गुणसूत्रों से भरी हुई दिखती है, प्रियदर्शन की कविता यह संभव करती है।

    प्रियदर्शन को साधुवाद। कोई उनका संपर्क सूत्र या मेल का पता बताए ताकि उनसे वार्ता की जा सके।

  3. संवेदनशील सच का मर्मस्पर्शी आत्मीय बयान,रचनाकार के प्रति कृतज्ञता !

  4. ''कुछ दोस्त से कुछ ज़्यादा रहे होंगे और कुछ दुश्मन से कुछ कम
    लेकिन दोस्ती-दुश्मनी छूट गई थी-
    यह सिर्फ एक शख्स के जाने का शोक नहीं था
    यह बहुत कुछ के बीत जाने का वह साक्षात्कार था
    जिससे अमूमन हम आंख नहीं मिलाते।……''
    खुद से रू ब रू कराती और बहुत कुछ सोचने को विवश करती बेहतरीन कविता ..शानदार कविता धन्यवाद प्रभात जी

  5. behad samvedansheel ….urmila sheerish ki kahani EK KAVI KI SHOKSABHA isse bhi kadve sach ko ujagar karti hai.

  6. "उसके साथ बहुत सारे युवा दिन चले गए/ कि समय नाम की अदृश्य शिला/ चुपचाप खिसकती-खिसकती न जाने कहां पहुंच गई है" सही कहा है प्रियदर्शन ने, यह सिर्फ एक शख्‍स के चले जाने का शोक नहीं है। दूर बैठे एक-बारगी मन हुआ था कि उस शोक सभा में पहुंचूं, लेकिन फिर जाने क्‍यों असमंजस में ही दबा रह गया, नहीं जानता कि मैं उनका इतना अंतरंग दोस्‍त था या नहीं, उनसे अपने तंई हमेशा गहरी आत्‍मीयता और अकुंठ अपनापन जरूर मिलता रहा, जिसमें बड़ी भूमिका उन्‍हीं की थी शायद। हां, दिल्‍ली छोड़कर भी अपने को दूर कभी नहीं महसूस किया, फोन पर बात भी यदा-कदा हो ही जाती, दिल्‍ली यात्रा पर जाने पर यह कोशिश भी बराबर रहती कि अरुणजी से मिलना है, मिलकर खुशी तो होती ही, चिन्‍ता और लाचारी और बढ जाती। अरुण का या किसी भी लेखक मित्र का इस तरह अनायास जाना एक तरह का खालीपन तो अवश्‍य दे जाता है, लेकिन यहीं आकर सारे सदिच्‍छाओं की सीमाएं चुक जाती हैं। प्रियदर्शन को आभार, उन्‍होंने अपनी तरह से उन्‍हें याद किया।

  7. सच्ची और खरी बात प्रियदर्शन जी ने कही है..
    एक डरावना और भयानक सच।

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