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वे हिंदी की शर्म में डूबे अंग्रेजीदां बच्चे थे

युवा कवि अच्युतानंद मिश्र को इंडपेंडेंट मीडिया इनिशिएटिव की ओर से दिया जाने वाला शब्द-साधक युवा सम्मान दिया गया है. जानकी पुल की ओर से उनको बधाई. प्रस्तुत हैं उनकी कविताओं की एक बानगी- जानकी पुल.
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1.
जब उदासी ढूंढ रही थी मुझे
                                         
उस दिन
जब उदासी ढूंढ रही थी मुझे
मैं  ढूंढ  रहा था तुम्हे
उस दिन हवा ने
जब जख्मों के नए ठिकाने बताये थे
और चाँद से निकला था भभूका सा
उस दिन मैं किसी नदी के
भीतर का शोक नहीं सुन रहा था
न किसी पहाड़ की ऊंचाई पर
खड़े होकर लाँघ रहा था दुःख को
उस दिन तो मैं बस तुम्हे
छूना चाह रहा था अपनी आँखों से
अपनी नींद में घुलना
चाह रहा था तुम्हे
चाह रहा था की भीतर के
अंधकार में
झलक जाये तुम्हरा चेहरा
सच कहूँ
उस दिन मैं सुखी होना
चाह रहा था
जब उदासी ढूंढ रही थी मुझे
2.
सेंडी याने संदीप राम
                      
उदासी वहाँ दबे पांव
रोज आती
देर रात शराब की मद्धिम रौशनी में
वे उसे खाली ग्लास की तरह लुढ़का देते
और फफक पड़ते
उनकी सुबहें दोपहर के मुहाने पर होती
और तब दोपहर की तेज रौशनी में
अक्सर दूध ब्रेड या अंडा लाते हुए
वे अपने समाज को देखते
जहाँ बाल सुखाती औरतें
बच्चों के भविष्य के बारें में बात करती
भविष्य तार पर लटके कपडे की तरह
सूख रहा था जिसमे
कहीं अथाह रौशनी तो
कहीं बम विस्फोट के खंदकों सा
अंधकार था
कही तेज धुनों में डूबती शामे थी
तो कहीं इत्र के मादक गंध में
बेसुध पड़ी रात
वे अपने गांव से आये हुए लोग थे
गांव में उनके घर थे
घरों में दीवारें थी
जिनमे कैद थें मा बाप
भाई बहन
एक चूल्हा था जिसकी आग
महज़ खाना नहीं पकाती थी
पूरी की पूरी आत्मा को सुखा देती थी
उनमे से कईयों के पास मोटर बाइक थी
कईयों के पास घर
कईयों के पास पिता
वे एक एक की किस्त अदा करतें
वे तेज तेज साँस लेते
चैटिंग करते हुए ग्लास भर
पानी पी जाते
और वहाँ अनुपस्थित किसी अनाम को
अंग्रेजी में थैंक्यू कहते 
वे हिंदी की शर्म में डूबे अंग्रेजीदां बच्चे थे
वे अपने पिताओं की भी शर्म ढो रहे थे
जो उनसे कभी हिंदी में तो कभी
मगही मैथिली और भोजपुरी में बात करते
वे घंटो अंग्रेजी में हँसने का अभ्यास करते
और असफल होने पर
कॉल सेन्टर के नौवें मालें से छलांग लगा देते
छलांग लगाने से ठीक तीन मिनट पहले
जब वे अपनी प्रेमिका के साथ
हमबिस्तर हो रहे होते
वे कहते
आई विल मैरी यु सून
उनके ये शब्द
हवा में तब भी एकदम ताज़े होते
जब वे हवा और पृथ्वी को अलविदा कह चुके होते
पिज्जा हट में पिज्जा खाते हुए
वे अक्सर अपने पिता के बारे में सोचते
जो अक्सर कहते अगली फसल के बाद
मैं आऊंगा मिलने
वे हर बार मन्त्र की तरह इसे फोन पर दुहराते 
पर वे कभी आ नहीं पाते
अब इस बिडम्बना का भी क्या करें
की इधर देश में खूब काम हुआ है
लगातार बनती रही हैं सडकें
बिछती ही रही हैं रेल की पटरियां
और अभागे पिता छटपटाते ही रह गए
मिलने को अपने बेटों से
इन्टरनेट पर बैठे बैठे
कहीं किसी कोने अंतरे में दबी छुपी
किसानों की आत्महत्या की खबरों पर
अगर उनकी नज़र पर जाती
वे बेचैन हो उठते
वे अपने हाथों को रगड़ने लगते
पेट में एकदम से हुल सा उठता
उबकाई सी आती
पर मोबाइल पर जाते जाते
उनके हाथ रुक जाते
और फिर इन्टरनेट पर
वे अपने बैंक अकाउंट को देखते
उन्हें थोड़ी राहत होती
शाम को कैफे में बैठे
जब उनकी नज़र इस खबर पर पडती
की गांव में पिज्जा हट खुलने को है
तो और बढ़ जाती उनकी उदासी
और इससे पहले की उनके हाथ
उनके चमकते मोबाइल पर जाते
मोबाइल एक अंग्रजी धुन बजाने लगता
उधर से अवाज आती
हलो
यु नो सेंडी जम्पड फ्रॉम नाइन्थ फ्लोर
व्हाट!
सेंडी याने संदीप राम ……………
3.
तिवारी जी गुस्से में हैं
लोग गुस्से में हैं
और तिवारी जी गुस्से में हैं
रोटी जैसी हल्की
और मुलायम चीज़ के लिए
दिन भर पत्थर तोड़ने वाले लोग
बैल की तरह दिन रात बोझ ढोने वाले लोग
पटरियों पर कै करते हुए
अपने गुजरे हुए दिन उगलते हुए
लोग गुस्से में हैं
और तिवारी जी गुस्से में हैं
लोग जो कि कानून नहीं जानते
लोग जो कि हुजूम के हुजूम हैं
लोग जो कि मूंगफली के छिलके हैं
लोग कि जिनके इंतज़ार में बिसूरता है कूड़ेदान
लोग जो कि पहाड़ हैं
नदी हैं बाढ़ हैं
गड्ढे हैं नाले हैं 
चश्मे के उपर से देखते हैं तिवारी जी
लोग गुस्से में हैं
और तिवारी जी गुस्से में हैं
फटे हुए पैर को सी कर जीने वाले लोग
सिली हुई बुशर्ट को फाड़कर पहनने वाले लोग
आसमान के नीचे अकड़कर सोने वाले लोग
ज़मीन के नीचे दुबककर सोने वाले लोग
धूल की तरह आंख में चुभने वाले लोग
चश्मा ठीक करते हुए तिवारी जी
लोग गुस्से में हैं
और तिवारी जी गुस्से में हैं
कहीं भी कभी भी
सड़क पर फैक्ट्री के बाहर
अस्पताल के भीतर माकन के पीछे
रोशनदान के आगे भगवान के पीछे
चलने वाले लोग
हरदम हर वक्त जीने वाले लोग
सोचते हैं तिवारी जी
लोग गुस्से में हैं
और तिवारी जी गुस्से में हैं
शहर का शहर मरता है प्लेग से
गांव का गांव डूबता है बाढ़ में
भूकंप  लील जाती है समूची आबादी
लू में धू धू जलती है चमडियां
बरसात में नाले के साथ बह जाते है दुःख
सर्दी में कीड़े की तरह जम जाती  हैं इच्छाएं
फिर भी जुलुस में
तमाम लोग मार तमाम लोग
कसैले मुंह से अखबार निगलते हैं तिवारी जी
लोग गुस्से में हैं
और तिवारी जी गुस्से में हैं
अगर ये घरों पर आ गए
सड़कों पर छा गए
अगर भूल से अपने खून का रंग पहचान गए
कहीं थोडा ठहरकर पटक दिया शहर को
कही घर की छतों पर चढ गए हुजूम के हुजूम
आंख खोलते हैं तिवारी जी
और पसीने पसीने हो जाते हैं
लोग गुस्से में हैं
लेकिन तिवारी जी!
और तिवारी जी गुस्से में हैं
4.

म्याँमार की सड़कों पर ख़ून नहीं था

(आंग सान सू की के लिए )

म्याँमार की सड़कों पर ख़ून नहीं था
रोशनी भी नहीं थी वहाँ
हवा बंद थी सींखचों में
और चुप थी दुनिया
चुप थे लोग
कि म्याँमार की सड़कों पर ख़ून नहीं था
म्याँमार के लोगों का ख़ून बहुत गाढ़ा नहीं था
बहुत मोटी नहीं थी उनकी त्वचा
बहुत गहरी नहीं थी उनकी नींद
बहुत हल्के नहीं थे उनके सपने
बहुत रोशनी भी नहीं थी उनके घरों में
म्याँमार की एक लड़की
जो हवा थी
बंद थी सींखचों में
बहुत चीख नहीं रही थी वह
बस सोच रही थी
सींखचों की बाबत
सड़कों की बाबत
लोगों की बाबत
म्याँमार की बाबत
जबकि म्याँमार की सड़कों पर ख़ून नहीं था
ज़रूरत थी हवा की
और हवा क़ैद थी सींखचों में
लोग रहने लगे थे भूखे
करने लगे थे आत्महत्या
बग़ैर गिराए सड़कों पर एक बूंद ख़ून
उलझन में थी हवा
उलझन में थे लोग
और चुप थी दुनिया
और चुप थे लोग
उधर सींखचों में बंद हवा
टहल रही थी
तलाश रही थी आग
भड़काकर जिसे वह जलाना चाहती थी शोला
पिघलाना चाहती थी लोहे के सींखचों को
पर हवा क़ैद थी सींखचों में
लोग बंद थे घरों में
और म्याँमार की सड़कों पर खून नहीं था
यूँ कुछ भी कर सकते थे लोग
आ सकते थे घरों के बाहर
तोड़ सकते थे जेल की दीवारें
हवा को कर सकते थे आजाद
भड़का सकते थे आग पिघला सकते थे सींखचे
पर म्याँमार की सड़कों पर खून नहीं था
                                                         
 
      

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6 comments

  1. कवितायें अच्छी हैं । शुभकामनायें !

  2. कवितायेँ बहुत अच्छी है …यह उत्साहजनक है कि ऎसी कवितायेँ लिखी जा रही हैं । अच्युतानंद मिश्र को बधाई और 'जानकीपुल' का आभार ।

  3. Sandi Waali to La-zawaab hai

  4. बेहद अच्छी कविताएं बधाई

  5. म्याम्मार की सड़कों पर खून नहीं था' विचलित करता है . देशकाल में यह कविता बड़ी दूर तक की यात्राएं करती है , आज के म्यांमार तक सीमित नहीं है . म्यामार की यह रक्तहीन सडक असल में नब्बे बाद का भूमंडल है , और एक अलहदा पीढ़ी का राजमार्ग भी. बधाई,अच्युता.

  6. कविताये तो सभी अच्छी हैं …लेकिन संदीप राम के लिए विशेष बधाई …क्योंकि मैं जिस गाँव में रहता हूँ , उनके पिता बुझी हुई आँखों से रास्ते देखते रहते हैं ….

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