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क्या सवाल सचमुच किसी लेखक के इलाज कराने और उन्हें बचाने भर का है?

अशोक वाजपेयी ने अपने स्तंभ ‘कभी-कभार’ में कल लेखकों की मदद के लिए एक कल्याण कोष बनाये जाने की अपील की है. अपील तो उन्होंने वरिष्ठ लेखकों से की थी लेकिन प्रथम प्रतिक्रियास्वरूप युवा लेखक विनीत कुमार ने अपनी पहली प्रकाशित पुस्तक ‘मंडी में मीडिया’ की रायल्टी इस मद में देने की घोषणा की है. उनकी यह पहल स्वागतयोग्य है. ऐसे दौर में जब हिंदी समाज कुनबों-कबीलों में बंटा हमेशा युद्धरत रहता है इस तरह की पहल उसकी सामूहिकता, सामाजिकता को बल मिलता है. विनीत कुमार ने घोषणा करते हुए ऐसे ही कुछ सवालों को टटोलने का प्रयास भी किया है. प्रस्तुत है उनका यह लेख जिसे पढकर मुझे उम्मीद है कि कुछ और लेखक भी आगे आयेंगे- जानकी पुल.
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अशोक वाजपेयी ने ‘कभी-कभार’( जनसत्ता, 2 सितंबर) के जरिए वरिष्ठ लेखकों से अपील की है कि वे लेखकों की मदद के लिए एक कल्याण कोष बनाएं. इससे आनेवाले समय में जरुरतमंद लेखकों को मदद मिल सकेगी. इसके साथ ही युवतर लेखकों और वर्चुअल स्पेस पर सक्रिय हम जैसे खुदरा-खुदरी टिप्पणीकारों के प्रति उम्मीद जतायी है कि सोशल नेटवर्किंग आदि का उपयोग कर इसे अभियान की शक्ल दें.

अशोक वाजपेयी से घोर वैचारिक असहमति, उनकी साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों के प्रति गहरा असंतोष और शक-शुबहा रखते हुए भी मैं उनकी इस पहल का स्वागत करता हूं और इस कोशिश के साथ अभी से ही साथ खड़ा हूं. अशोक वाजपेयी की इस पहल का स्वागत इसलिए भी किया जाना चाहिए कि उन्होंने बाकी दूसरे महंत साहित्यकारों की तरह व्यस्ततम और छक्का-पंजा जीवन जीते हुए भी उनसे अलग जरुरतमंद लेखकों के प्रति चिंता व्यक्त की है. फिलहाल लेखन के स्तर पर ही सही इस बात की जरुरत महसूस की है कि हमारे खाते में तमाम तरह की उपलब्धियों के शामिल हो जाने के बावजूद भी नैतिक जिम्मेदारी का कोना अगर खाली रह गया तो आनेवाले समय में मन कचोटेगा.

दूसरा कि ऐसी अपील देखते हुए हम जैसे यूथभ्रष्ट हिन्दी छात्रों का साहित्यिक समाज के प्रति जो मन तेजी उचटता चला गया है, एक बार फिर से भरोसा जमने की प्रक्रिया में शामिल होते महसूस कर पा रहे हैं. ये अशोक वाजपेयी के लिखने का ही प्रभाव है कि साहित्यिक समाज के प्रति शुष्क होती संवेदना गहरी और तरल होती महसूस कर पा रहा हूं. इस लिहाज से लेखकों की मदद शीर्षक से अपीलनुमा लिखा गया छोटा सा लेख उनके पुरस्कृत काव्य-संग्रह और चर्चित कविता से कम प्रभावशाली नहीं है. आनेवाले समय में इसे रोजमर्रा की आपाधापी और जोड़-जुगाड़ की जिंदगी के बीच से बचा ली गई संवेदना के रुप में याद किया जाएगा.

मेरी अपनी समझ है कि साहित्य के प्रति भरोसा और उससे हम जैसे भटके हुए छात्रों के लिए प्रतिबद्धता का पाठ ऐसी ही लेखन सामग्री बनती है न कि वे तथाकथित कालजयी और सार्थक कविताएं जो किताबों के पन्नों तक जितनी ही विश्वसनीय, प्रभावशाली और अर्थपूर्ण लगती है, कवि के निजी जीवन और व्यवहार की परिक्रमा करते हुए जब दोबारा हम तक वापस आती है तो उतनी ही झूठ,विद्रूप और अर्थहीन लगने लग जाती है. जिसके भीतर की तरलता, संवेदना की गहराई और विचारों की परिपक्वता सिर्फ और सिर्फ एक साहित्यिक रचना की संज्ञा पाकर स्थिर हो जाती है. उसके भीतर के सारे हलचल, बेचैनी और उद्बबोधित करनेवाले तत्व कवि की स्ट्रैटजी जान पड़ते हैं जो कि कई बार तो तत्काल और अक्सर आगे जाकर बेपर्द हो जाते हैं. शायद यही कारण है कि जब हम रचना के जरिए बननेवाले परिवेश की तलाश असल जिंदगी में करने की कोशिश करते हैं तो आखिर में आकर निराशा और फ्रस्ट्रेशन के अलावे कुछ अलग नहीं पाते. अशोक वाजपेयी की ये अपील लेखन और परिवेश के बीच के भयावह अंतराल को कुछ हद तक कम करती है.

दूसरा कि उन्होंने लेखकों की मदद के क्रम में वैचारिक असहमति, पंथ और वाद के आधार पर विभाजन करने और उस आधार पर निर्णय लेने का जो निषेध किया है, वो अधिक महत्वपूर्ण है. इसमें ये बात शामिल है कि सारी कोशिशें एक लेखक के जीवन को सहेजने और सहयोग करने की हो न कि किसी पार्टी या दल के कार्यकर्ता भर को. इससे मदद तो जो होगी सो होगी ही, साथ ही बाड़े और पाड़े में फंसा-धंसा हिन्दी समाज एक बार इससे बाहर निकलकर सोच सकेगा. व्यक्तिगत तौर पर इस पहल का समर्थन करना मुझे इसलिए भी जरुरी लगा कि साहित्य की चौखट पर जहां मिनट-मिनट में कालजयी,सार्थक,शाश्वत और प्रतिबद्धता जैसे शब्दों की हांक लगती रहती है, वहां खड़े होकर भी अशोक वाजपेयी वर्चुअल स्पेस तात्कालिकता,उसकी हरकतों में संभावना देख रहे हैं और ये मानते हैं कि इसमें शामिल लोग अगर इस पहल को लेकर सक्रिय होते हैं तो बहुत जल्द ही इसे अभियान की शक्ल में देखा-जाना जा सकेगा.

कालजयिता, सामाजिक प्रतिबद्धता,सार्थक और शाश्वत लेखन जैसे डंडे-बेंत की मार से बचने के लिए हम जैसे खुदरा-खुदरी ब्लॉगरों, टिप्पणीकारों ने वर्चुअल स्पेस की ओर जो रुख किया, अशोक वाजपेयी हमारे इस भगोड़ेपन के प्रति भी उम्मीद रखते हैं, इससे बेहतर और क्या हो सकता है ?आज से चार-पांच साल पहले जिस सोशल नेटवर्किंग और वर्चुअल स्पेस लेखन के प्रति जिन स्थापित साहित्यकारों के मन में दुराग्रह रहा हो, साहित्य के सौन्दर्यशास्त्र और भाषाई तमीज के छिन्न-भिन्न हो जाने का भय व्यापता रहा हो, अब उसी लेखन और सक्रियता में न केवल उम्मीद बल्कि माहौल बनाने की ताकत दिखाई दे रही हो, इसे महज उम्मीद भर तक देखने के बजाय भूल-सुधार का मामला समझा जाए तो क्या गलत होगा ? ये अलग बात है कि जब आज से पांच साल पहले किसी ने ऐसे स्थापित और मूर्धन्य साहित्यकारों के पास किसी तरह की अर्जी नहीं भेजी तो अब सर्टिफिकेट जारी करने का जश्न क्यों बनाएं या फिर ये क्यों भूल जाएं कि झक मारकर ऐसे साहित्यकारों ने वर्चुअल स्पेस पर अपने बिचड़े जहां-तहां जरुर छींट डाले हैं, जो हिन्दी समाज की उसी गुणा-गणित, चेला-चमचई का डिजिटल और वेब संस्करण है और उन्हें ही उम्मीद भरी नजरों से देख रहे हैं..लेकिन…

इन तमाम तरह की धक्का-मुक्की के बीच अशोक वाजपेयी को आश्वस्त तो किया ही जा सकता है कि जब तक उनकी ये पहल महज पब्लिसिटी स्टंट या विरेचन भर का हिस्सा नहीं रहती है, हम खुदरा लेखक उनके साथ हैं. इसी कड़ी में मैंने लेख पढ़ने के तुरंत बाद ही ये तय किया कि-
मंडी में मीडिया( वाणी प्रकाशन,2012) जो कि मेरी पहली किताब है, भविष्य में उसकी जो भी रॉयल्टी मिलेगी, उसे इस कोष में जमा कराउंगा. ये सिर्फ एक साल की मिलनेवाली रॉयल्टी नहीं बल्कि जब तक आती रहेगी, इस कोष के लिए सुरक्षित रखूंगा. मुझे नहीं पता कि ये राशि कितनी होगी और इससे किस हद तक मदद पहुंच सकेंगी लेकिन किताब को लेकर जिस तरह की प्रतिक्रिया मेरे पास अब तक आती रही है, उम्मीद है कि ये चुटकी भर की मदद जरुर हो जाएगी. दूसरा कि इस किताब से संबंधित भविष्य में दूसरे जो भी आर्थिक लाभ होते हैं, उसे भी इस कोष में जमा कराउंगा.

फिलहाल मैं अपनी इस कोशिश को मॉनिटरी न देखकर पूरी तरह भावनात्मक फैसले के रुप में देख रहा हूं. राशि बहुत छोटी या थोड़ी बेहतर हो सकती है जिसका कि मुझे बिल्कुल भी अंदाजा नहीं है लेकिन इस किताब में जो तासीर पैदा करने की कोशिश की गई है, उसमें कहीं न कहीं उन साहित्यकारों के स्वर और मिजाज शामिल हैं जिन्हें हम हिन्दी समाज के लिजलिजेपन और बहुत ही टटपुंजिए स्वार्थ के बीच शामिल होनेवाली गतिविधियों से आजीज आकर भूलते चले गए. हम अपने इस फैसले के जरिए उन साहित्यकारों के शब्दों को फिर से जीना चाहते हैं जो मीडिया,मनोरंजन,टेलीविजन पर लिखते हुए आज भी स्मृतिकोश का हिस्सा बनकर कीबोर्ड के आसपास नाचते रहते हैं.

अशोक वाजपेयी ने लेखकों का सहयोग करने के संदर्भ में कल्याण-कोष,मदद जैसे शब्दों का प्रयोग किया है, मैं अपने को उन शब्दों से अलग करते हुए ये समझता हूं कि मेरे इस छोटे से फैसले से एक तो किसी साहित्यकार का कल्याण संभव नहीं है और न ही इसे मदद की श्रेणी में रखा जाना चाहिए. ये पूर्वज या समकालीन लेखकों की वैचारिक और शाब्दिक संपत्ति का इस्तेमाल करने के क्रम में उनकी बौद्धिक सम्पदा का किराया भर है. मैं इसे अपने बाकी के फैसले की तरह ही निहायत स्वार्थ के अधीन लिया गया फैसला मान रहा हूं. ये किसी भी तरह की म्युचुअल फंड या जीवन बीमा कंपनी में निवेश के बदले किया जानेवाला निवेश है. फर्क सिर्फ इतना है कि इसके लिए मैंने टीवी और रेडियो पर किसी बैंक या कॉर्पोरेट का विज्ञापन देखकर  भरोसा पैदा करने के बजाय अशोक वाजपेयी के लिखे पर भरोसा करके उस हिन्दी समाज के प्रति दोबारा से यकीन की तरफ लौटना चाहता हूं जहां मुझे पैसे से अधिक दूसरी चीजों की जरुरत है.

दिल्ली जैसे शहर में पिछले बारह सालों से छोटे- बड़े कम से कम आधे दर्जन अस्पतालों में भर्ती होने और इलाज कराने का अनुभव रहा है. हमने एम ए के दौरान वो भी दिन देखें हैं जब हम जैसे सैकड़ों छात्रों के बीमार होने पर जेब और अकाउंट में पांच हजार रुपये भी नहीं होते थे लेकिन परमानंद हॉस्पीटल में जैसे पूरा हॉस्टल घुस जाता था और देखते ही देखते न जाने कितने हजार घंटेभर में जमा हो जाते थे और अब अक्सर उन दिनों से भी गुजरना होता है, जब हम खुद कैब को फोन करते हैं, उसी परमानंद और सर गंगाराम की इमरजेंसी तक पहुंचते हैं और बिस्तर पर लेटे-लेटे कार्ड स्विप करके खुद ही एडमिट हो जाते हैं..पत्रकार,लेखक और प्रोफेसर दोस्तों के बीच बीमार हो जाना गुनाह जैसा लगता है और बताना किसी अपराध से कम नहीं. तब लगता है, हम लिखते हुए, पहले से ज्यादा सभ्य होने की प्रक्रिया में शायद ज्यादा अलग-थलग और अकेले पड़ते  जाते हैं.

मेरा ऐसा सोचना शायद गलत भी हो लेकिन इतना तो जरुर है कि जिस बीमार लेखकों की मदद की बात अशोक वाजपेयी कर रहे हैं, उस मदद में सिर्फ और सिर्फ आर्थिक मदद शामिल नहीं है. अभी ओमप्रकाश वाल्मीकि को सिर्फ पैसे नहीं, जूठन का वो पाठक और हिन्दी समाज चाहिए जो धीमी आंच पर दलिया सीझाकर( पकाकर) लाए, उनके हाथ उठने के पहले पानी का ग्लास आगे कर दे. इस हिन्दी लेखक समाज के बीच से कोई बेटी-बहू-भतीजी-भतीजा-भाई बनकर निकल आए. बाबा नागार्जुन को सिप्ला और रेनबेक्सी के बजाय नरम हाथों से तालमखान की खीर मिलती तो शायद कुछ साल और जी जाते. हमने विष्णु प्रभाकर की खांसी डीयू के दर्जनभर छात्र के चले जाने और बतियाने से रुकती देखी है.

मैं फिर कहता हूं किसी बीमार लेखक के इलाज के लिए धन संग्रह करना और उनका सहयोग करना, सिर्फ और सिर्फ एक व्यक्ति को बचाना भर नहीं है, उसके भीतर के लेखक को भी बचाना है और इस बचाने में उनका आत्मसम्मान, उसकी मान्यताएं, पसंद-नापसंद,वैचारिकता और उसके जिया गया अतीत भी शामिल है. अगर ऐसा नहीं है तो किसी भी बीमार लेखक की मदद के लिए दो-चार लाख रुपये जमा करना बहुत आसान है. इतना काम तो फेसबुक की दो-चार स्टेटस भर से हो सकता है या फिर जिन लेखकों ने प्रगतिवाद,प्रयोगवाद और नई कविता छोड़कर उसके पहले के काल या उनकी मान्यताओं को लेकर लिखा है तो चांदनी चौक,सदर बाजार,खारी बावली में पड़े सैकड़ों धन्ना सेठ हैं जो आनन-फानन में दो-चार-दस लाख जुटा देंगे. लेकिन क्या सवाल सचमुच किसी लेखक के इलाज कराने और उन्हें बचाने भर का है ?

आप सोचिए न, जो लेखक जिंदगी भर सत्ता प्रतिष्ठानों और सरकार से लड़ता रहा, खुलकर असहमति व्यक्त करता रहा, आप उनकी मदद के लिए सरकार के आगे गुहार लगा रहे हैं..सुनकर उन पर क्या बीतती है, कभी इस पर गंभीरता से विचार किया गया है ? पूरी जिंदगी वो आपका-हमारा लेखक है, हमारे पाठ्यक्रम का हिस्सा रहा है और जब वो किताबों पर समीक्षा लिखने की स्थिति में नहीं रहता, सेमिनारों में बोलने लायक नहीं रह जाता, सद्यःप्रकाशित किताबों पर फौरी टिप्पणी देने और फ्लैप लिखने लायक नहीं रह जाता, पुस्तकालयों में आपकी किताबें घुसवाने लायक नहीं रह जाता तो वो सरकार और राष्ट्र का लेखक हो जाता है ? आप आखिर लेखक को उस गाय की तरह क्यों समझते हैं जिन्हें जिंदगीभर दूहने के बाद गली में पेट लवर्स के भरोसे छोड़ दिया जाता है ?

अभी ओमप्रकाश वाल्मीकि बीमार हैं और इनके पहले के लेखकों की तरह ही इनकी मदद के लिए भी लोग इधर-उधर लिख रहे हैं, सरकार से मदद करने की गुहार की जा रही है. शिमला में दस दिन,देहरादून में चार दिन साथ बिताने और लगभग उनकी सारी रचनाएं पढ़ने के बाद मैं ये बात दावे के साथ कह सकता हूं कि मदद की ऐसी अपील करके उनके जीवन और मौत के बीच का जो अन्तराल है, उसे अपीलकर्ताओं ने पूरी तरह खत्म कर दिया है. बीमारी उन्हें फिर भी इलाज के लिए मोहलत दे रही है लेकिन ये ऐसा करके उस लेखक को रोज मार रहे हैं. मुझे ये यकीन ही नहीं होता कि साहित्य से जुड़ा कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं होगा जिनकी पहल पर बिना सरकारी और सांस्थानिक मदद के किसी लेखक का इलाज कराना संभव नहीं है.

संभव है ये सब रुपक और लफ्फाजी लगे लेकिन लेखक सचमुच अंत तक लेखक की तरह बना रहना चाहता है और वो चाहता है कि जब भी मरे तो एक लेखक की हैसियत से मरे. मरते वक्त उसकी हड्डियां,दांत,आंख चाहे सलामत रहे न रहे, उसका आत्मसम्मान,वैचारिकी और साहित्य के प्रति भरोसा सही-सलामत रहे. उन्हें जो भी सहयोग किया जाए, कहीं से न लगे कि वो खैरात का हिस्सा है.

असल में एक लेखक को बचाने के पीछे अंत-अंत तक ये भरोसा कायम रखना जरुरी है कि उसने लिख-पढ़कर जो कुछ भी किया, अपने पीछे एक विरासत छोड़कर जा रहा है जिसे मौजूदा और आनेवाली पीढ़ी सहेजकर रखेगी या उसका हिसाब-किताब रखेगी. ऐसे में उस हिन्दी समाज की जिम्मेदारी ज्यादा बनती है जिसने उनके काम और नाम को भोगा और भुनाया है. मसलन हम अपने पापा से इस बात की जिरह भले ही न करें कि आपने मेरे लिए क्या बचाया या बनाया है लेकिन ये सवाल किताबों और लेखों के जरिए ही अपने पूर्ववर्ती लेखकों से तो जरुर करेंगे और उसी तरह अपनी कमाई का एक हिस्सा उन्हें अदा भी करेंगे. मसलन अशोक वाजपेयी ने वरिष्ठ लेखकों सहित आगे चलकर प्रकाशकों से भी इस दिशा में मदद करने की बात की है, इसे अमूर्तन में ले जाने के बजाए क्या इस फैसले पर तक पहुंचना मुश्किल है कि जिन भी दिवंगत लेखकों की याद में जो कुछ भी( रचनावली,पत्रिकाएं जिनमे मोटे विज्ञापन की रकम शामिल है, विशेषांक आदि) निकाले जाएंगे, उसकी रॉयल्टी और मुनाफे का आधा हिस्सा संपादक और संकलनकर्ता न रखकर इस कोष को दें जिससे कि जीवित और जरुरतमंद लेखकों की मदद की जा सकेगी.

इस घोषणा से संभव है कि तब दिवंगत रचनाकारों पर उत्सवधर्मी व्यावसायिक लाभ के मातम मनाने बंद हो जाएं और कई सारी रचनाएं आने से रह जाए लेकिन तब कम से कम हम समझ तो सकेंगे कि हिन्दी समाज क्या सचमुच घोषणाओं से आगे जाकर भी जी सकता है या नहीं ? और फिर जिस लेखक को जीते-जी उसके काम का पारिश्रमिक नहीं मिला, उनकी मौत पर चील-कौए( संकलनकर्ता और अतिथि-विशेष-संपादक) अपनी वजन क्यों बढ़ाएं ?

इसके साथ ही क्या ये संभव है कि अशोक वाजपेयी जैसे बाकी के लेखक-संपादक-कवि-साहित्यकार ये तय करें कि अपनी सबसे चर्चित और बिकनेवाली किताब की रॉयल्टी इस कोष को देंगे और वो जब तक रॉयल्टी मिलती रहे,तब तक के लिए होगी ? 
   
संभव है ये सब आखिर में जाकर ढाक के तीन पात साबित हों लेकिन अगर हम एक व्यक्ति को बचाने के बजाय एक लेखक को बचाना चाहते हैं तो सिर्फ धन जुटाने के बजाय उसके भीतर की चटखनेवाली चीजों को बचाना कम जरुरी नहीं है. उसे ये एहसास कराना कि आपने लिखकर जो कुछ भी और जितना किया, वो अकारथ नहीं है और हम आपकी कोई मदद नहीं कर रहे अपना ही भविष्य सुरक्षित कर रहे हैं. हम अपने को महान के बजाय स्वार्थी करार देकर ही कुछ कर सकते हैं. नहीं तो हम अपनी तरफ से घोषणाएं करके अपनी ही विज्ञापनबाजी करने की फिराक में लगे रह जाएंगे.
 
      

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15 comments

  1. ओम प्रकाश वाल्मीकि जी के सम्बन्ध में कई मित्रों ने IFSC Code की जानकारी मांगी थी. अब उनके अकाउंट नंबर, फोन नंबर के साथ यह जानकारी भी दे रहा हूँ.

    आप जानते हैं कि वह कैंसर से जूझ रहे हैं और आर्थिक संकट से भी. आज उन्हें आपकी ज़रुरत है. बड़ी मुश्किल से उनका अकाउंट नंबर मिला है. आप सब से मेरी अपील है कि संकट के इस घडी में उनके साथ खड़े होइए. आपका छोटा से छोटा सहयोग इस समय उन्हें ताक़त देगा.

    अकाउंट नंबर – 10202565162, SBI Raipur, Dehradun

    पैसे जमा करने के बाद उनके मोबाइल नंबर 09412319034 पर सूचना भी अवश्य दे दें.

    Bank: STATE BANK OF INDIA

    Address: RAIPUR DISTDEHRA DUN,248008
    State: UTTARANCHAL
    District: DEHRADUN (Click here for all the branches of "STATE BANK OF INDIA" in "DEHRADUN " District)
    Branch: RAIPUR
    Contact: 0135-2787141 IP-304426

    IFSC Code: SBIN0003058 (used for RTGS and NEFT transactions)

  2. जी,मैं आप की बात से पूर्णता सहमत हूं. ये हिंदी समाज की जिम्मेदारी बनती हैं कि वो अपने हर एक लेखर को अमूल्य महसूस करवाएं.धन का महत्व इसलिए नही की यह धन उनकी मदद करेगा.बल्कि कोई सही मायनो में एक ईमानदार लेखक हैं तो उसके लिए यह एक अहसास होगा के आप ने हिंदी लेखन के लिए जो कुछ भी किया वो हमारे लिए कभी ना भूलाए जाने वाला हैं और हम इसके लिए आपका आभार प्रकट करते हैं.दरअसल विनीत सर मैं खूद आप की इस बात से काफ़ी प्रभावित हुआ हूं.छात्र होने के नाते फिल्हाल तो योगदान देना असंभव हैं पर यकिन मानिए ऐसी एकजुठता देख कर हिम्मत बन रही हैं.नही,तो आएं दिन आपस में झपट मारी के किस्से और अंतत:मजबूरन सरकार की जी हजूरी जैसे हालात देख कर दिल पस्सीच जाता हैं.आपका आभार.. उम्मीद हैं की आप ही की तरह और भी लेखक इस अभियान से जुड़गे..

  3. प्रतिलिपि बुक्स से प्रकाशित अपनी दो पुस्तकों 'बोलेरो क्लास' और 'मार्केस की कहानी' की कुल रायल्टी मैं इस नेक काम के लिए देना चाहता हूं.

  4. सैल्यूट करता हूं विनीत को. अशोक जी को भी उनके पहल के लिए.

  5. लेकिन हॉं, राजीव रंजन के संदेश के संदर्भ में। जो कुछ किया जाए वह जल्‍दी किया जाए। ऐसा न हो जैसा राजेश जोशी की कविता कहती है:

    जब तक अपील लिखता हूँ
    अपील की जरूरत खत्‍म हो चुकी होती है।

  6. एक मार्मिक आलेख। एक प्रभावी पहल। अशोक वाजपेयी की अपील, विनीत कुमार के आलेख के लिए आभार। इससे निश्‍चय ही लेखकों का एक बड़ा वर्ग सहयोग के लिए आगे आएगा।

  7. वाया अशोक वाजपेयी यहां मौजूद तमाम विनीत दयावानों ने कर लिया कल्याण।
    सब सुविधावाद का खेल है… अपने-अपने नाम का विज्ञापन है…
    न अशोक वाजपेयी कुछ करने जा रहा है न विनीत कुमार और न यहां दया उगलने वाले विश्वविजयी…
    सब यहां मुफ्त के विज्ञापन मंच पर मनोरंजन कर रहे हैं और अपना-अपना प्रचार कर रहे हैं…
    ओमप्रकाश वाल्मीकि मर जाएंगे तब कोष बनाना और अपने-अपने कैंसर के इलाज का प्रबंध करना…

  8. सकारात्मक दिशा में आगे बढ़ रहा संवाद है यह.. विनीत जी का त्वरित रेस्पोंस सराहनीय है.. कुछ सोलिड सा काम हो इस दिशा में, कोष गठित हो और यह बात आगे बढे तो बरौनी रिफायनरी प्रबंधन, बरौनी डेयरी आदि से बात कर कुछ अंशदान दिलाने के लिए भागदौड़ कर सकता हूँ मैं,..निजी तौर पर हजार-दू हजार कभी भी भेज सकता हूँ.. वैसी पत्रिकाओं का मेम्बरशिप लेने को उद्यत हूँ मैं जो इस कोष के लिए अंशदान करे..

  9. अभियान तो जरूरी है मगर सबसे पहले विनीत जी को इस बात की बधाई देना चाहूँगा कि उन्होंने दिल से लिखा है और जबरदस्त लिखा है…

  10. Bahut bhavbheeni pratikriya aur swaagtyogya pahal! lekin yah baat samajh mein nahin aayee ki state ko ham apni karguzaariaan chalaate rahne ke liye chhod kyon dena chahte hain. Aap agar state par dawaab bana kar use uski zimmedaarion ko poora karne ke liye majboor nahin karenge to wah to aur chhutta saandh bana ghoomta rahega. Jo log state par dawaab bana rahe hain, main unmein shaamil hoon aur aagrah karta hoon ki is kaam ki zaroorat ko yon nazarandaaz na kiya jaaye. Beshak, apna kosh banaane ki kaarwayee bhi saath-saath chale.

  11. श्री अशोक वाजपेयी, श्री प्रभात रंजन और श्री विनीत कुमार के कहे में न केवल ज़मीनी ताने-बाने की चिंता है बल्कि यह अंततः: एक उज्ज्वल सांस्कृतिक व मानवीय पहल भी है. मैं राजकमल से प्रकाशित अपनी एक पुस्तक (अखिलेश : एक संवाद) की आजीवन रोयल्टी इस कल्याण कोष को समर्पित करता हूँ, जल्द ही कुछ और किताबों की भी. राशि अधिक नहीं है लेकिन बूँद बूँद से घडा भर सकता है. पिछले साल शायद १० हज़ार के आसपास की रोयल्टी मिली थी.
    पीयूष दईया

  12. जैसे सरकारी और निजी कंपनियां अपने कर्माचारियों की जीवन सुरक्षा के लिए एक फ़ंड रखती है, बहुत सी अकादमियों के पास भी लेखकों के लिए ऎसे फ़ंड है, उन अकादमियों में हमारे लेखक ही तो हैं, वे क्यों नहीं आगे आ कर कोई सार्थक पहल करते। हम लेखकों को, प्रकाशकों राष्ट्रीय स्तर पर क्या ऎसा फ़ंड नहीं बना सकते जिसमें हर माह या त्रैमासिक, वार्षिक पत्रिकाओं के चंदे की तरह एक निश्चित राशि का उसमें अंशदान कर सकें, प्राप्त पुरस्कारों की नकद राशि का भी कुछ हिस्सा उसमें दिया जा सकता है… क्या ऎसे किसी नेक उपक्रम के लिए पहल करने का माद्दा दिल्ली में बैठे हमारे अग्रज वरिष्ठ और इस हेतु क्षमतावाले लेखकों में हैं? मुझे पूरा विश्वास है कि इस पावन यज्ञ में हर छोटा-बड़ा लेखक अपनी क्षमता के अनुसार अपनी आहुति देगा…

  13. एक साधारण पाठक हूँ किन्तु यह पढ़ कर असाधारण खुशी हो रही है कि एक अच्छी और सच्ची शुरुआत लेखकों के लिए की जा रही है लेखकों के ही द्वारा …पूर्व में माननीय अदम गोंडवी जी के इलाज के लिए रोज सरकार से सहायता की याचना और उससे उत्पन्न यातना भी संज्ञान में है सबके ….और आगे भी इस सब की पुनरावृत्ति से बचने का यह सार्थक कदम है …….

  14. बहुत जरुरी मुद्दा है यह …कैसे पहल आगे बढे , इस पर सोचा जाए …

  15. सहायता किस पते पर भेजी जा सकती है? कृपया सूचित करें. मैं अपनी तरफ से एक राशि तुरत भेजता हूँ. फेसबुक पर अपील भी करता हूँ.

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