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क्या ‘उसने कहा था’ हिंदी की सर्वश्रेष्ठ प्रेम कहानी है?

१९१५ में प्रकाशित ‘उसने कहा था’ हिंदी की एक ऐसी कहानी है जिसके पाठ में आज भी आकर्षण बना हुआ है. चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ की इस कहानी का एक नया पाठ किया है दिल्ली विश्वविद्यालय के युवा शोधार्थी अमितेश कुमार ने. रोचक पाठ है- जानकी पुल.
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“ फ़्रास और बेल्जियम – 68   वीं सूची – मैदान में घावों से मरा – नं. 77 सिख राइफ़ल्स जमादार लहना सिंह”

‘लहना सिंह’ इस घावों  भरे शरीर से  बाहर निकल कर एक मिथकीय चरित्र में तब्दील हो जाता है। हिन्दी साहित्य में उसकी उपस्थिति अब लगभग सौ सालों की होने को आ गयी है। इन सौ सालों में उसका शरीर अभी भी बेल्जियम के उसी मोर्चे पर पड़ा हुआ है और आत्मा हमारे जेहन में छाई हुई है। इस पात्र की कहानी ‘उसने कहा था’ ने इसके कृतिकार को अप्रतिम ख्याति दिलवाई। इस एक कहानी से उन्होंने अपना नाम हिन्दी साहित्य के इतिहास में सुरक्षित करवा लिया। यद्यपि उन्होंने साहित्य की अन्य विधाओं को भी समृद्ध किया है।

1915 ई. में ‘सरस्वती’  में ‘उसने कहा था’ का प्रकाशन इस समूचे काल खंड की अदभुत और चमत्कृत कर देने वाली घटना है। आज इतने वर्षों बाद भी इस कहानी की पठनीयता अक्षुण्ण और अप्रभावित रही है।[1]इसकी पठनीयता के निरंतर प्रासंगिक बने रहने के कारण कहानी का बार बार पुनर्पाठ होता रहा है। प्रेम और कर्तव्य के अप्रतिम उदाहरण बन चुके इस कहानी की जिन संदर्भों में अधिक चर्चा होती रही है वह यों है-

·     प्रेम और कर्तव्य की बलिवेदी पर शहीद लहना सिंह का अद्भुत नायकत्व
·   हिन्दी कहानी के विकास के प्रारंभिक अवस्था में ही एक परिपक्व कहानी के रूप में इस कहानी का लिखा जाना ।
·   शिल्प के तौर पर पांच दृश्यों को एक साथ रख कर कहानी की रचना और इसका दृश्यात्मक प्रभाव  कि मानों सब कुछ आंखों के सामने घट रहा हो।
·         फ़्लैशबैक अथवा पूर्व दीप्ति का प्रभावी प्रयोग।

इसमें प्रथम की चर्चा अत्यधिक हुई है। प्रेम कहानियों का जिक्र ‘उसने कहा था’ के बगैर पू्री नहीं होती।

इस एक लीक को पकड़कर चलते रहने से कहानी के अन्य अर्थ दब गये हैं जो अपने समय के बहुत महत्त्वपूर्ण संदर्भों के साथ शाश्वत प्रश्नों को भी समेटे हुए हैं। इन संदर्भों और प्रश्नों की पड़ताल के लिये कहानी को बारबार तोड़कर उसमें छिपे अर्थों को बाहर निकालना आवश्यक हो जाता है। कहानी का विखंडन करते हुए इसे इसकी सरंचना की जकड़ से मुक्त करने से हमें वे महत्त्वपूर्ण सूत्र मिल सकते है जिन्हें कहानीकार और कहानी की सरंचना ने दबा हुआ छोड़ दिया है।

‘उसने कहा था’ का विखंडन करते हुए हमें सबसे पहले उसके परपंरागत अर्थ से मुक्त होना पडे़गा। इससे हम अपनी दृष्टि को एक खास दिशा में संचालित होने से रोक पायेंगे। विखंडन भी ‘है’ की सत्ता के अस्वीकार से ही शुरु होता है।[2]इस सत्ता को नकारने से ही हम अर्थ की  लीला को पकड़ पायेंगे।

‘उसने कहा था’ कहानी का प्रारम्भ बिलकुल सिनेमाई अंदाज में होता है। जैसे कैमरा भीड़ की चहल पहल को दीखाते हुए बाजार का दृश्य स्थापित करता है और फ़िर लड़के लड़की के मिड शाट और क्लोज अप पर ले आता है। लांग शाट से क्लोज अप की यह सिनेमाई तकनीक उस समय तक तो धुंधली ही थी। कहानी शुरु करते ही वाचक हमें अमृतसर  के सलीकेदार तांगे वालों के बीच से गुजारते हुए एक दुकान पर ले आता है। तांगे वालों के जिक्र में ही शहर का मिजाज, नफ़ासत और अन्य शहरों से उसके फ़र्क का पता चल जाता है। यहां के तांगे वाले ( जो अन्य शहरी की तुलना में लगभग असभ्य माने जाते होंगे) भी अपने सब्र का बांध टूटने पर भी सलीका नहीं छोड़ते और जबान की ‘मीठी छुरी’ चलाते हैं।

“क्या मजाल है कि जी और साहब सुने बिना किसी को हटना पडे। यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती नहीं; चलती है, पर मीठी छूरी की तरह महीन मार करती है”।

इन्हीं तांगे वालों के बीच से निकल कर लड़का और लड़की एक दुकान पर आ मिलतें हैं। जहां उनका परिचय होता है और प्रथम परिचय में ही लड़का पूछ बैठता है “तेरी कुड़माई हो गयी” लड़के की यह  साहस और बेबाकी लड़की को ‘धत’ कह कर भागने पर मजबुर कर देती है। लड़का लड़की का इस तरह बात करना उस समय के समाज में कुछ अजीब जरुर लगता है पर यह बातचीत अकारण नहीं है;
“ तुम्हें याद है, एक दिन तांगेवाले का घोड़ा दहीवाली की दुकान के पास बिगड़ गया था । तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाये थे”।

प्राण रक्षा का यही भाव लड़के से निर्भीकता से पुछवा देता है, “तेरी कुड़माई हो गयी” लड़की का यह ‘धत’ लड़के की आस बंधा देता है। इस घटना के बाद भी दोनों लगातार मिलते रहते हैं, लड़के ने यह प्रश्न मजाक में कई बार पूछा और लड़की ने हर बार ‘धत’ कहा और एक दिन उसने जब ‘हां’ कहा और ‘रेशम से कढा हुआ शालु’ दीखाया उस दिन लड़के की हालत दर्शनीय हो गयी;
“ रास्ते में एक लड़के को मोरी में धकेल दिया, एक छाबडी़वाले(खोमचे वाले) की दिन- भर की कमाई खोई, एक कुत्ते पर पत्थर मारा और एक गोभीवाली के ठेले में दुध उडे़ल दिया। सामने से नहा कर आती हुइ किसी वैष्णवी से टकराकर अन्धे की उपाधि पायी तब कहीं घर पहुंचा”।

लड़के का यह विक्षिप्त व्यवहार उसकी हताशा का परिणाम है और उस अपराध बोध का भी जिसमें कभी वह लड़की से अपने बारे में नहीं पूछ पाया। उसे अंदाजा नहीं था कि यह सिलसिला इतने कम दिनों में ही  खतम हो जायेगा।

कथा के पहले खंड में प्रेम का अंकुरण और अंत हो जाता है। इस प्रेम का पता ना लड़की को लग पाता है ना लड़के को। तभी तो लड़का अपने व्यवहार का कारण नहीं समझ  पाता। यहां हम कहानी में लड़के की मनोस्थिति को जान लेते हैं परंतु लड़की के मन की दशा क्या है यह नहीं जान पाते। क्या लड़की इस प्रेम से भिज्ञ है जिसके वशीभूत हो वो हर दूसरे तीसरे दिन टकरा जाते थे। क्या वह ये जान पाती है कि उसके शालु को देख कर लड़के के मन में क्या तुफ़ान  उठा है। वह उदास है या नया शालु मिल जाने की बाल सुलभ चपलता से उत्साहित। यह प्रश्न अनुतरित नहीं हैं, कहानी में इसके उत्तर आगे मिल जाते हैं।

कहानी में दृश्य परिवर्तित हो जाता है, हम अमृतसर की गलियों से  सीधे फ़्रांस और बेल्जियम के मोर्चे पर पहुंच जाते हैं। कहानी के पहले खंड के रुमानी एहसास को लिये हुए हम बम-गोलियों की आवाज और बारूद की महक के बीच पहुंच जाते हैं। जहां विषम परिस्थितियों में कुछ सैनिक उस देश के लिये लड़ रहें हैं जिस देश ने उनके देश को गुलाम बनाया हुआ है। वो ऐसे युद्ध में अपना योगदान दे रहें हैं जो आधुनिक मनुष्य के इतिहास का सबसे पहला भयानक युद्ध है और इससे उनका सीधे सीधे कोइ ताल्लुक नहीं। कहानी में इन सैनिकों की कोई ‘राष्ट्रवादी निष्ठा’ भी है इसका जिक्र नहीं है। ऐसे युद्ध में जिसके कारको में ‘राष्ट्रवाद’ प्रमुख है, ये सैनिक ‘परराष्ट्र’ के लिये लड़ रहें हैं किसी पेशेवर सैनिक की तरह  साम्राज्यवादी आकांक्षाओं की पुर्ति के औजार बने हुए कड़ाके की ठंड मे ये सैनिक जर्मनों के खिलाफ़ मोर्चा संभाले हुएं हैं। युद्ध ऐसा भयावह है;
“ घंटे दो घंटे में कान के पर्दे फ़ाड़ने वाले धमाके के साथ सारी खंदक हिल जाती है और सौ सौ गज धरती उछल पड़ती है। इस गैबी गोली से कोई बचे तो कोई लडे़ । नगरकोट का जलजला( भुकम्प), सुना था,यहां दिन में पचास जलजले होते हैं”।

लहनासिंह, वजीरसिंह, सुबेदार हजारासिंह, और घायल बोधासिंह अन्य सैनिको के साथ इस खंदक में पडे़ हुए मोर्चे के खतम हो जाने का इंतजार कर रहें हैं। पंजाब से दूर गैर मुल्क के लिये लड़ रहे इन सैनिकों की छवि इस मुल्क के लिये मुक्तिदाता की है।
“तुम राजा हो , मेरे मुल्क को बचाने आये हुए हो”

“बिना फ़ेरे घोडा़ बिगड़ता है और बिना लडे़ सिपाही” सो सभी धावे के इंतजार में बैठे हैं। उनकी बहादुरी का पैमाना धर्म से भी आबद्ध है। “सात जर्मनों को मारकर ना लौटूं तो मुझे दरबार साहब की देहली नसीब न हो”।  अपने बातचीत से वे युद्ध के माहौल को भी जीवंत बनाये रखने की कोशिश करते हैं तो भिन्न देश के चाल चलन के साथ अपने व्यवहार से सामंजस्य बैठाने का प्रयास भी। “ देश- देस की चाल है । मैं आज तक उसे समझा न सका कि सिख तमाकु नहीं पीता। वह सिगरेट देने में हठ करती है, ओंठ से लगाना चाहती है और पीछे हटता हूं तो समझती है कि राजा बुरा मान गया, अब मेरे मुलुक के लिये नहीं लडे़गा”।

सिपाहियों के संवाद में लड़ने का उनका जोश, प्राणरक्षा का माद्दा, विषम  परिस्थितियों मे हौसला बनाये रखने के  लिये हंसी-गीत और परस्पर प्रेम का भान हो जाता है। विदेशी भूमि पर लड़ते हुए घर लौटने की इच्छा भी बलवती है। इसलिये ये लडा़ई  जल्दी से जल्दी खतम कर देना चाहते हैं। परदेश में तो इन्हें मरना भी गंवारा नहीं;
“ मेरा डर मत करो। मै तो बुलेल की खड्ड के किनारे मरुंगा। भाई कीरत सिंह की गोद में मेरा सिर होगा और मेरे हाथ के लगाये हुए आम के पेड़ की छाया होगी”।

मेम के सिगरेट पीलाने का हठ, बोधा की तीमारदारी और आम का पेड़ कहानी में ऐसे सूत्र है जो इसका अर्थ खोलते भी हैं और कहानी को आगे बढाते हैं। कहानी के इस भाग से पहले भाग का कोइ लिंक नही बनता और हम यह जानने की कोशिश भी नहीं करते  कि हम अमृतसर के बाजार से यह कहां आ गये। हम नैरेटर के वर्णन में खोये इस उम्मीद में रहतें हैं कि इनमें शायद वह लड़का भी हो।

‘उसने कहा था’ का धर्मवीर भारती द्वारा किया गया नाट्य रूपांतर रंग- प्रसंग 35 में प्रकाशित हुआ है। यह रूपांतरण भी एक व्याख्या ही है। इसमें भारती ने एक उदघोषकीय प्रस्तावना के साथ कहानी के इसी खंड को पहला दॄश्य बनाया है और इसके अगले वाले दृश्य में पहले खंड को लहना की स्मृति में घटित होते दीखाया है। लेकिन  वाचक  किसी अबूझ पहेली  की  तरह उस घटना को छोडकर फ़िर युद्ध के मैदान में ही रह जाता है।

लड़के और लड़की का क्या हुआ? यह प्रश्न हमारे मन में दबा रहा जाता है और हम दृश्य में आगे बढते हैं।

 आगे दृश्य में घायल बोधा सिंह और दुश्मन पर नजर डाले हुए लहना सिंह पहरे पर है। घायल बोधा सिंह को वह जबरदस्ती अपनी जरसी पहना देता है। यहां पर  एक प्रश्न उठता है कि आखिर क्यों लहनासिंह अपनी परवाह न करते हुए बोधा सिंह की रक्षा करता है। “बोधा को उसने जबरद्स्ती जरसी पहना दी और आप खाकी कोट और जीन का कुर्ता भर पहन कर पहरे पर आ खडा़ हुआ। मेम की जरसी की कथा केवल कथा थी”।

लहनासिंह की टुकडी़ पर हमला होता है जिसे लहनासिंह अपनी बहादूरी और प्रत्युत्पन्नमतित्व(जिसे हम आज ‘आइ.क्यु’. के नाम से जानते हैं) से हमले को विफ़ल कर अपने साथियों की जान बचाता है। सिखों की बेवकुफ़ियों से भरे चुटकुलों के दौर में एक सरदार की बुद्धिमता का यह  उल्लेख जरूरी  है जो लगभग मिथ  की तरह बनती  जा रही  सामाजिक सोच का निषेध करता है। लहनासिंह केवल  मोर्चे पर नकली वेश में आये जर्मन फ़ौजी की ही नहीं अपने गांव में आये जासूस की भी पोल खोल चुका है। “ माझे के लहना को चकमा देने के लिए चार आंखे चाहिये”। लहनासिंह अपने कर्तव्य को युद्ध के मोर्चे पर ही नहीं समाज में भी सक्रिय रखता है। उसके सरोकार गहरे तौर पर अपने समाज से जुडे़ हुए हैं। अपनी जमीन के प्रति  इस जुडा़व के कारण ही लहना मौत की एक रुमानी कल्पना करने में सक्षम है। आम के पेड़ यहां एक ऐसे समाज का प्रतीक बन जाता है जिसे उसने अपने लहु से सिंचित किया है पर उसकी छाया उसे नसीब नहीं होती।

जर्मन लपटन साहब का अपनी हेनरी मार्टिनी से क्रिया कर्म लहना कर तो देता है पर उसकी गोली से अपने जांघ को नहीं बचा पाता। लपटन साहब के पीछे आयी जर्मन की फ़ौज दो तरफ़ा हमले में घिर जाती है। “पीछे से सूबेदार हजारा सिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने लहना सिंह के साथियों के संगीन चल रहे थे”। युद्ध का यह वर्णन इतना सजीव है मानो वाचक युद्ध के मैदान से रिपोर्टिंग कर रहा है और सब कुछ हमारे आंखो के सामने आ जाता है। मिड शाट में परिवेश ही नहीं दर्द और पीडा़ भी वाचक क्लोज अप्स के जरिये हमें दिखा देता है। पन्द्रह सिख और तिरसठ जर्मनों के  प्राण लेकर यह लडा़ई थमती है। दो विपरीत कौम जिनकी आपस में कोई शत्रुता नहीं, जिनकी जमीनें भी एक दूसरे से सात समंदर की दूरी पर है, एक दूसरे को संगीन की नोंक पर ले रहें हैं। अगर ये युद्ध के मोर्चे पर ना मिल कर कहीं और मिले होते तो क्या एक दूसरे को देखकर दुआ सलाम करते या बिना देखे आगे बढ़ जाते। युद्ध ने अनजाने में ही उन्हें अपरिचितों का प्राणहंता अकारण बना दिया है। मनुष्य को मनुष्य के खिलाफ़ खडा कर दिया है। आधुनिकता की वस्तुपरकता भी युद्ध का कोइ विकल्प नहीं प्रस्तुत कर सकी और उतर आधुनिकता के अंतवाद में भी युद्ध के अंत की कोइ घोषणा नहीं है। युद्ध के इस अमानवीयता का दबा उल्लेख हम इस कहानी में आसानी से पा सकते हैं।

बहरहाल, लहनासिंह पसली में लगी एक गोली पर मिट्टी का लेप चढाकर अपना उपचार कर लेता है लेकिन किसी को खबर नहीं लगती कि उसे ‘दूसरा भारी घाव’ लगा है। युद्ध का वर्णन करते करते वाचक प्रकृति का  वर्णन  करने लगता है। अंतर्पाठीयता का यह समावेश युद्ध से घायल हमारे कोमल मन की विश्रांति के लिये हो सकता है या मौत के समय की नीरव स्तब्धता के वर्णन के लिये। “ लडा़इ के समय चांद निकल आया था। ऐसा चांद जिसके प्रकाश से संस्कृत कवियों का दिया हुआ क्षयी नाम सार्थक होता है। और हवा ऐसी चल रही थी जैसी की बाणभट्ट की भाषा में ‘दन्तीवी्णोपदेशाचार्य’ कहलाती”।

लडा़ई के बाद राहत उपचार का कार्य शुरु होता है। सूबेदार लहना को गाडी़ पर जाने के लिये सूबेदारनी और बोधा की कसम देता है पर लहना सिंह नही जाता  और सूबेदार को भेज देता है। जिसकी  कसम की रक्षा के लिये उसने इतना उपक्रम किया उसी की कसम उसको दी जाती है। इस समय लहना की क्या स्थिति है इसका वर्णन लिखित रूप मे नहीं है। लहना कहता है; “सुनिये तो सूबेदारनी होरां को चिट्ठी लिखो तो मेरा मत्था टेकना लिख देना और जब घर जाओ तो कह देना कि मुझसे जो उन्होंने कहा था, वह मैंने कर दिया”।  लहना ने किस तरह अपनी समूची पीडा़ को एकत्रित कर उसको जज्ब कर के यह बात कही होगी इसका वर्णन  निश्चित ही लिखित में नहीं हो सकता।  सूबेदार के लाख पूछने की बाद भी सूबेदारनी ने क्या कहा था, लहना नहीं बताता। पाठकीय उत्सुकता चरम पर है। यह अंत से पहले का क्लाइमेक्स है। शीर्षक का रहस्य अब खुलने लगता है। मृत्यु का समय समीप है और लहनासिंह को सारी बातें याद आ रही हैं; अमृतसर, लड़की, कुड़माइ, धत, रेशम का शालु उसका विक्षिप्त व्यवहार और क्रोध। लेकिन क्रोध का कारण अब भी उसे पता नहीं चल पाता।

77 राइफ़ल्स में जमादार लहनासिंह लाम पर जाते वक्त सूबेदार के गांव जाता है। सूबेदारनी जहां उसे बुलवाती है, ये वहीं ‘रेशमी बुटों वाली शालु पहने लड़की’ का बदला हुआ रूप है। एक साधारण स्त्री की तरह अपने पति और पुत्र की चिंता में ग्रस्त उनकी रक्षा का वचन वह लहनासिंह से लेती है। ये वचन वह लहनासिंह से ही ले सकती है। यहां पता लगता है कि प्रीति का जो भाव लहनासिंह के मन में पनपा था वो सूबेदारनी के मन में भी था इसीलिये वह लहनासिह से अपनी पीडा़ को साझा करती है। जाहिर है उसने सूबेदार को बस यहीं बताया है कि वह लहना को जानती भर है।
प्रथम विश्वयुद्ध के समय भारत में ब्रिटिश शासन  ने फ़ौज भरती का अभियान चलाया था, पंजाब इससे सबसे ज्यादा प्रभावित था।

“हजारों भारतीयों को नितांत अपरिचित भूमि पर मरने के लिये भेज दिया जाता था।….सिद्धांत रूप में तो सैनिक भर्ती स्वैच्छिक थी, किंतु व्यवहार में यह लगभग जोर जबरदस्ती का रूप धारण कर लेती थी। पंजाब में 1919 के उपद्रवों के पश्चात कांग्रेस द्वारा की गयी जांच–पड़ताल से ज्ञात  होता है कि वहां के ले. गवर्नर माइकेल ओ डायर के शासनकाल में लंबरदारों के माध्यम से जवानों की भरती होने के लिये बाध्य किया जाता था”।[3]

 अर्थात कि युद्ध में जबरदस्ती भरती और फ़िर लाम पर भेजना । लाम पर भेजने का मतलब मौत। भारत के सामाजिक जीवन में एक स्त्री का जीवन  क्या होगा जिसका एक मात्र पुत्र और पति मरने के लिये चला जाये इसकी कल्पना सहज संभव है। सूबेदारनी आंतकित है तभी उसे एक आशा की किरण लहना सिंह के रूप में दीखायी देता है और उससे वह मांग बैठती है;
“ तुम्हें याद है, एक दिन तांगे वाले का घोडा़ दहीवाले के दुकान के पास बिगड़ गया था। तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाये थे। आप घोड़ों की लातों में चले गये थे। और मुझे उठाकर दुकान के तख्ते पर खड़ा कर दिया था। ऐसे ही इन दोनों को बचाना। यह मेरी भिक्षा है। तुम्हारे आगे मैं आंचल पसारती हूं”।

कैशौर्य प्रेम का यह प्रतिदान देने में लहना कैसे चूकता । वह सूबेदार और बोधासिंह के प्राण रक्षा तो कर देता है लेकिन अपने वतन से दूर वीरगति को प्राप्त होआ है जहां ना बुलेल की

 
      

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13 comments

  1. अमितेश बधाई के पात्र हैं. बहुत अच्छा विश्लेषण किया है उन्होंने. जानकीपुल का आभार.

  2. युवा शोधार्थी- अमितेश कुमार: बेशक एक बेहतरीन विश्लेषक! मेरी बधाई ….

  3. LAHNA,YH TERI PREMKATHA MERI GADDARI KI KAHANI HAI…. TERA BALIDAN HUA AUR MERA PYAR AAJ BHI PYAR KI DUNIYA ME KALANKIT. (USNE KHA THA) YH KEVAL TERI PREMKATHA HAI.YHAN MAIN KAUN THI?…………. SUBEDARNI KA HALAFNAMA TABDEEL NIGAHEIN – MAITREYI PUSHPA(2012)

  4. लाजवाब…अमितेश भैया 🙂

  5. आलोचना के छठे-सातवें अंक में प्रकाशित रमेश उपाध्याय का 'उसने कहा था' पर लेख इसे पढते हुए याद आया. अमितेश को बधाई.

  6. अमितेश के विश्लेषण से पता चलता है कि किस तरह पाठ की स्थापित रूढियां किसी कलाकृति की जटिल अर्थवत्ता का सरलीकरण और अवमूल्यन करती हैं . मानवीय सम्वेदना ( पता नहीं , इस कहानी में इस सम्वेदना को 'प्रेम ' की संज्ञा देना कहाँ तक उचित है ) और मनुष्य -विरोधी हिंसा का मुखामुखम और सम्वेदना की जीत इस कहानी की वह असली जमीन है , जो बहुत कर के अब तक पाठकों और आलोचकों की निगाह से ओझल रही है . अमितेश पाठकों का भरोसा हासिल करने में कामयाब हैं .

  7. गुलेरी जी की कालजयी कहानी 'उसने कहा था' पर युवा शोधार्थी अमितेश कुमार के अभिनव प्रयोग के लिए बधाई और आपका सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार

  8. प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान एवं बाद में लिखा गया साहित्य कालजयी है |मोपांसा ,गोर्की,विलियम फौकनर ,हेमिंग्वे, आदि के उपन्यास/कहानियाँ अद्भुत अप्रतिम हैं |महान स्वीडिश कवियत्रीनेली जाख्त (मूलतः यहूदी)ने प्रायह यहूदियों पर हुए अत्याचारों को ही अपनी कविताओं का मूल विषय बनाया है इमरे कर्तेज़ तो स्वयं द्वितीय युद्ध की विभीषिकाओं के भुक्त भोगी रहे |ये कहा भी जाता है कि विश्व का सर्वश्रेष्ठ साहित्य इन युद्धों के समय ही लिखा गया लेकिन जहाँ तक दक्षिण एशिया में युद्धोपरांत लिखे गए युद्ध विषयक साहित्य की बात है तो युद्ध भले ही ना सही (मानें ) लेकिन यहाँ गुलामी के दौरान और पश्चात भीष्म साहनी,उत्पल दत्त,यशपाल, प्रेमचंद,आदि की रचनाएं हिन्दी साहित्य की मील की पत्थर रही हैं |इप्टा के योगदान को भी भुलाया नहीं जा सकता |ए के हंगल,उत्पल दत्त आदि ….|साहित्य में अंकों का कोई महत्व नहीं होता दस किताबें बीस पुरुस्कार,या साहित्य सम्मेलनों में उपस्थिति की गिनती ….कम लिखना पर अच्छा लिखना यही साहित्य और साहित्यकार के टिकाऊपन का सूत्र रहा है चन्द्र धार शरमा गुलेरी ने बहुत कम कहानियाँ लिखी हैं लेकिन उनकी ये एक कहानी कथाकारों और कथाओं की भीड़ में आज भी उतनी ही श्रेष्ठता और कथ्य शिल्प आदि के लिए पढ़ी और याद की जाती है |अमितेश जी का विश्लेषण महत्वपूर्ण एवं सटीक …

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