Home / ब्लॉग / तुषार धवल की कविता ‘सुनती हो सनी लियॉन’

तुषार धवल की कविता ‘सुनती हो सनी लियॉन’

तुषार धवल की कई कविताओं में समकालीन समय का मुहावरा होता है. अपने दौर के कवियों में कविता के विषय, काव्य रूपों को लेकर जितने प्रयोग तुषार ने किए हैं शायद ही किसी कवि ने किए हैं. पढ़िए उनकी एकदम ताजा कविता- मॉडरेटर .
=====================

सुनती हो सनी लियॉन ?
किन कंदराओं में तुम रह चुकी हो मेरे साथ
मेरे किस घर्षण की लपट में पकी है तुम्हारी देह
आदिम सहचरी ! सुनती हो सनी लियॉन ?
तुम्हारे मन की उछाल में एक घुटी सभ्यता अपनी उड़ान पाती है
जिसके पिछवाड़े के जंगलों में गदराई महुआ महकती रहती है
मुझे क्यों लगता है कि
पहले भी देखा है तुम्हें जाना है तुम्हें
महसूस किया है 
हर औरत में तुम्हें रखा पाया है हर पुरुष में
एक सेतु एक घोल एक छुपे उच्छवास की तरह
हवा में समवेत !
तुम नाखून से सरहद खुरचती हो
कोई तुम्हें उस पार धकेल कर एक पताका उछाल देता है तुम्हारी तरफ  
और शुरू हो जाता है विमर्श का दिमाग खुजाऊ विलास
एक दूसरे के बीच हम सबके अपने अपने बाज़ार हैं
हमारी साँसों के बीच जो फासला है
उसी में सभी विज्ञापन हैं बहसें हैं
अस्मिता की अस्तित्व की
कहीं भीतर सूना अंधेरा है अचर्चित
अकीर्तित एक ज़मीन जहाँ से तुम हुआ करती हो
हज़ारों हथेलियाँ खुलती हैं कल्पना के महाशून्य में 
करोड़ों अँगुलियाँ तन जाती हैं तुम्हारी तरफ
मूल्य दागते कोरस में नेपथ्य जहाँ तुम्हारी उपज के नक्शे पड़े हैं
और भी पीछे गहरे अँधेरे में
घुसेड़ दिया जाता है 
तुम उतरी हो किसी और अंतरिक्ष से यहाँ
और हमारे पास अभी तुम्हारे माप की दुनियाँ नहीं है
नहीं है हमारे पास तुम्हें देने को भरोसे जैसा कोई भी शब्द
इन अराजक भोग संधियों में
हम कहीं नहीं हैं कहीं नहीं हैं हमारे स्वर जब 
यह हाफाड़ा हुआ बाज़ार लोभी त्वरित तकनीकी तंत्र,
इनके वशीभूत तुम और खोल दी गई विवस्त्र इच्छाएं भाषा के गूढ़ में उतर रही हैं
तुम बाज़ार की हो बाज़ार तुम्हारा है तुम्हीं बाज़ार हो बाज़ार का जो तुम्हें बनाता है
और एक हवा शोषण की वहीं बह रही है दोनों तरफ से
दो ध्रुवों के बीच यह नदी बहती रहती है दोमुँही
शोषक शोषित पाले बदल बदल कर खेलते हैं यह खेल
इस्तेमाल हर चीज़ का हर किसी का नयी मंत्रणाओं का बीज मंत्र है
इन अराजक भोग संधियों में 
हम नहीं हैं इन संधियों में मंत्रणाओं में पर
बहुत कुछ बदलेगा अंधेरी सुबहों में जब आँधियाँ चलेंगीं
यह जानलेवा आकर्षण मौत सी गहरी आँखों का लूट लेने पर आमादा
एक जादू सा सच है जो हमारे अंधेरे जंगलों में टहलने लगा है और महुआ पक रही है 
विमर्शों के पार इतना ही काफी है कि
तुम हो कहीं अपने ढंग से और भी हुए रहने के संघर्ष में एक पूरी स्त्री
तुम्हें देखता हूँ अपने निर्जन में जहाँ मेरा मैं भी पूरा मैं नहीं होता  
एक एक धागा उधेड़ता हूँ तुम्हारे बदन पर पोर पोर पीता हूँ तुम्हारी त्वचा का शहद 
अपनी आकाश जितनी आँखों में भी तुम्हें अँटा नहीं पाता हूँ समूचा
इस वक़्त मैं सिर्फ एक जीभ हूँ अनंत जितनी फैली हुई
एक गीला खुरदुरा ललचाया लचीला माँस तुम्हारी तरलता में डूबता हुआ अथाह
अपने अंधेरे के रास का काजल टाँकता हूँ तुम्हारी बिंदु पर
आलिंगन नहीं सहवास नहीं बस घुलनशील मज्जा हूँ समय की हड्डियों में
तुमसे प्रेम नहीं सहानुभूति नहीं न श्लाघा न ईर्ष्या न निष्काम
यही है कि तुम हो कहीं अपने ढंग से और भी हुए रहने के संघर्ष में एक पूरी स्त्री
और मैं साक्षी हूँ इस समय का जो तैयार हो रहा है अपने नये मुहावरों के लिये
 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

तन्हाई का अंधा शिगाफ़ : भाग-10 अंतिम

आप पढ़ रहे हैं तन्हाई का अंधा शिगाफ़। मीना कुमारी की ज़िंदगी, काम और हादसात …

2 comments

  1. समय इन नए मुहावरों के लिए तैयार न हो तब तक स्खलित होता रहेगा पड़ोस की 'सबिता भाभी' की दहलीज पर………..ओशो ने कहा की किसी जाति के भावात्मक अस्तित्व की गुणवत्ता जानने का सबसे अच्छा पैमाना है, उसकी सेक्सुअल फैंटेसी की गुणवत्ता को जांचना……

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *