फ़िल्में आती हैं, हफ्ते-दो हफ्ते उनके ऊपर चर्चा होती है, फिर फिल्म विमर्शकार भी उस फिल्म को भूल जाते हैं और किसी अगली फिल्म के हो-हल्ले में लग जाते हैं. लेकिन असली मूल्यांकन तो वह होता है जो उस फिल्म के प्रचार-प्रसार, हो-हल्ले के थम जाने के बाद किया जाए. उसके ट्रेंड को लेकर बात हो, उसके प्रभाव का आकलन किया जाए. ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ कई अर्थों में एक ‘कल्ट’ फिल्म है. बहरहाल, मैं कोई फिल्म समीक्षक नहीं हूं, फिल्म समीक्षक तो दूर मैं तो आम तौर पर फ़िल्में भी कम देख पाता हूं. ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ पर ठहर कर सुचिंतित तरीके से यह लेख लिखा है, सिद्धांत मोहन तिवारी ने. उसके एक-एक पहलू पर. अच्छा लगा तो सोचा साझा किया जाए- प्रभात रंजन.
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किसी फ़िल्म को दूसरी अमरीकन फ़िल्म से जोड़ने में क्या फायदा, जब वह फ़िल्म खुद-ब-खुद ही अपनी प्रस्तावना कह रही हो. गैंग्स ऑफ़ वासेपुर भी ऐसी ही एक फ़िल्म है. गैंग्स ऑफ़ वासेपुर जैसी फ़िल्में भारतीय सिनेमा में मील का पत्थर तो साबित हो जाती हैं, लेकिन उन फ़िल्मों से होकर गुजरने वाले कई सारे प्रश्न एक बड़े समूह और ‘गैंग्स’ द्वारा दबा दिए जाते हैं, ऐसा इसलिए क्योंकि वे प्रश्न अपने ‘कंटेंट’ में ऑथेंटिक और अपने लहज़े में आरोप और पराक्रम के साथ आते हैं. गैंग्स ऑफ़ वासेपुर के विषय में कई सवाल अधूरे हैं, कई-कई बातें इन सवालों के बीच ही दब कर रह गईं. मैं यह बात बार-बार याद दिलाता हूँ कि ठेठ पैसा-युक्त हिन्दी सिनेमा से प्रश्न करना ज़रा भी ज़रूरी नहीं है, लेकिन क्या ऐसे सिनेमा और सिनेमाकारों से भी कोई बात न की जाए, जहाँ इतिहास, राजनीति, समाज और तमाम किस्म के तंत्रों का हिज़ाब मिला करता है? जो सिनेमा, ‘सिनेमा बनाने की कला’ की प्रथा का निर्वहन करता है? जिस सिनेमा के दर्शक दिन-ब-दिन बढ़ते जा रहे हैं? जिस सिनेमा की नीतियाँ सरकार और सत्ता से विमुख होकर बात करती हैं? तो क्या, हम अनुराग कश्यप, तिग्मांशु धूलिया, प्रकाश झा और विशाल भारद्वाज से कोई बात न करें?
“गैंग्स ऑफ़ वासेपुर” एक शोर की तरह की तरह आई. इस शोर का बहरापन इतना था कि फ़िल्म का आधा हिस्सा देखते ही तमाम हथियार, गोला-बन्दूक और कट्टा-कलम खिंच गए, इस बात का जोर ज़रा भी नहीं बन पाया कि कम से कम फ़िल्म तो पूरी देख लें. गैंग्स ऑफ़ वासेपुर जैसी फ़िल्म के बारे में बात करने के लिए अध्यायगत होने की ज़रूरत है, क्योंकि इस फ़िल्म के बारे में एक ही बार में कुछ भी कह देना जल्दबाज़ी होगी और इंटरनेट पर इस जल्दबाज़ी का बाज़ार तो हम देख ही रहे हैं. इस फ़िल्म की जो सीमाएं हैं, वो इसके कथानक से ही नही इसके फिल्मांकन से भी जुड़ी सीमाएं हैं. “गैंग्स ऑफ़ वासेपुर” की कहानी वासेपुर और धनबाद की कहानी न होकर ‘सत्या’ और ‘कंपनी’ जैसी फिल्मों की कहानी हो जाती है, यह हर उस फ़िल्म की कहानी हो जाती है, जहाँ एक आदमी बाप-भाई के खून के खिलाफ़ खड़ा हो जाता है, वह ‘घातक’ या ‘घायल’ का सनी देयोल हो जाता है और कात्या के खात्मे के लिए ग़दर मचाता फिरता है. वहाँ मीनाक्षी शेषाद्री सरीखी अभिनेत्रियां उन्हें लड़ाई के लिए जोश दिलाती हैं. लेकिन, मैं फिर से अपनी बात पर आता हूँ, कि अध्यायगत होने की ज़रूरत है.
धनबाद फ़िल्म की आवाज़ नहीं, फ़िल्म की चुप्पी साबित होती है. फ़िल्म का लोकेल धनबाद-धनबाद चीखने के बाद धनबाद से ही हट जाता है. फ़िल्म की तमाम लड़ाईयाँ होती तो धनबाद और वासेपुर में हैं, लेकिन लड़ाईयों का जगह और उसके स्पेस से कोई साक्षात्कार नहीं मालूम होता है. अनुराग ने इसे फिल्माया बड़े बेहतर तरीके से है. अनुराग कश्यप के हाथ इसलिए खुले हुए हैं क्योंकि उन्हें पढ़ने का बल प्राप्त है, इसलिए वे देव डी या ब्लैक फ्राइडे में स्थान को कथा से जोड़ पाते हैं, लेकिन इस फ़िल्म में यही मूल गलती अनुराग से होती है, जहाँ जगह कहानी से नहीं जुड़ पाती है. गैंग्स ऑफ़ वासेपुर की शुरुआत जिस कोयले की बानगी से होती है, वह कोयला आगे आने वाले पूरे कथानक से गायब है, वह कोयला अपने छिटपुट वजूद में भी कहीं मुमकिन होता नहीं दिखता है. रूपांतरण का एक अजीब-सा दौर आता है, जिसमें कोयला कोयला न दिखकर लोहे के स्क्रैप और तालाब की मछली की तरह दिखने लगता है, और बाद में तो कोयला होटलों, सट्टों और टेंडरों में तब्दील हो जाता है. अनुराग यदि चाहते तो फ़िल्म एक भाग में खत्म हो सकती थी, फ़िल्म अगर कोयले की लड़ाई पर आधारित होती तो, लेकिन धनबाद-वासेपुर-कोयला तो बहुत सारी चीज़ों में बदल जाते हैं.
मेरी यह समझ नहीं आ रहा है कि अनुराग कश्यप ने यह सारा वितान रचने के लिए एक इस्लामी माध्यम ही क्यों चुना, इसे दलित विमर्श या पिछड़ों की बात रखने का मुद्दा भी बनाया जा सकता था. मैं अपनी बात से मुस्लिम आवाज़ को दबाने की बात नहीं कर रहा हूँ, मैं खुद हमदर्द हूँ, लेकिन इसके दूसरे मायने भी निकल रहे हैं, मुसलमान के होने से फ़िल्म के दूसरे परिणाम भी सामने उपज रहे हैं. लेकिन इसके साथ ही, मुसलमान होने की जो ताजगी और नूरियत है, वह इस फ़िल्म को इसके शीर्ष की ओर ले जाने का काम करती है. तो यह बात तो है कि यह फ़िल्म एक छिपे तरीके से मुसलमानों की भावनाओं पर कुठाराघात करती है, लेकिन मुस्लिम तहजीब और समाज को सफलता से दिखा जाती है. यह मानना गलत न होगा कि वासेपुर का मुसलमान बरास्ते अनुराग कश्यप जब होकर आता है, तो वह स्क्रीन पर स्थापित करने पर व्यक्तिगत अभिशप्तता का शिकार नहीं होता है, वह क़ौमी बेगानेपन का भी शिकार नहीं होता, उसे देखने और समझने की जो सबसे सहज बौद्धिक चेतना है, उसे गैंग्स ऑफ़ वासेपुर पहनती है. अनुराग कश्यप के साथ एक यह बात भी अच्छे तरीके से जुड़ी है कि अनुराग किसी भी किरदार को कैरेक्टर सर्टीफिकेशन का फ़िज़ूल मौका नहीं देते, संभवतः उसकी नौबत ही नहीं आने देते. यही इस फ़िल्म में भी हुआ, किसी भी मुस्लिम को नमाज़ी न दिखाकर यह फ़िल्म मुस्लिम तंत्र की जटिल और बोधगम्य संरचना को सुलझा देती है. फिर भी यह कथानक मुसलमानों से सही समझौता नहीं कर पाता. रामाधीर सिंह बनाम सरदार खान और रामाधीर सिंह बनाम फैज़ल खान की लड़ाईयाँ, यदि असल में ऐसी लड़ाईयाँ बनारस, धनबाद या ऐसे किसी खांटी लोकेल में घटित होतीं, तो सही तौर पर क़ौमी चोला धर लेतीं, लेकिन यहाँ ऐसा नहीं हुआ. वह लड़ाई केवल साँप का फन कुचलने की लड़ाई ही बन कर रह जाती है जो कि अक़सर खटकता है. साँप का फन भी क्या? फन का बस एक बुखार किस्म का है, उसकी व्यंजनाएं भर ही हैं बस. उनसे किसी भी किस्म का जहर निकलता नहीं मालूम होता, सारी हत्याएं और गैन्गवार्स एक डर में किये जाते हैं. रामाधीर सिंह डरकर मारता है, सरदार खान डराने के लिए मारता है और फैज़ल खान बदले के हिसाब में हत्याएं करता है.
फ़िल्म बदले की आग में सीमित नहीं रहती है, यह बदले से कहीं आगे निकल जाती है. फ़िल्म के शुरुआती आधे हिस्से में सरदार अपने बाप का बदला लेने के लिए मारना चाहता है, लेकिन वह मारने के कई मौके चूकता रहता है. जिस दृश्य में ‘मंत्री जी’ की कार का पुर्ज़ा-पुर्ज़ा अलग किया जाता है, उस हिस्से में सरदार खान रामाधीर सिंह को मार सकता है और शायद उसे मारना भी चाहिए लेकिन बिहार के लाला, पता नहीं क्यों, मंत्री पर जोरू के मार के घाव सूंघते हैं. वे कहते हैं कि “एतना गोली मारेंगे कि आपका ड्राईवरो खोखा बेच के अमीर हो जाएगा”, तो गोली मारने की धमकी देने के बजाय वह बाप का बदला क्यों नहीं ले लेता, यह एक अबूझ प्रश्न है. अगर इसका उत्तर यह है कि एक मंत्री को कैसे इतनी आसानी से मारा जा सकता है और वो भी सरे-राह तो यह बात एक धोखे की तरह आती है, क्योंकि दूसरे हिस्से में फैज़ल खान बड़े ही वीरतापूर्वक तरीके से मंत्री रामाधीर सिंह को मार गिराता है. बदले की लड़ाई संभवतः बदले की ही लड़ाई होती है, लेकिन फ़िल्म में बदले की लड़ाई दब जाती है और वहाँ कमाई शुरू होती है. एक तरफ़ सरदार खान जहाँ तमाम तरह के ठेके उठाना शुरू कर देता है, रंगदारियाँ वसूलने लगता है और स्क्रैप की दलाली में हाथ गरमाने लगता है वहीँ दूसरी तरफ़ उसका बेटा फैजल खान हथियारों की खरीद फ़रोख्त, ठेके और दूसरे तमाम मुमकिन तरीकों से पैसे जुटाने लगता है. इसका कठिन रूप तो यह है कि समूची बात होटलों और चुनावों तक जटिल होती जाती है. तो सारी लड़ाई कमाई की हो जाती है, कमाई भी क्या, वह बंदरबाँट है, लेकिन इस बन्दरबाँट का जवाब अनुराग कश्यप के पास काफ़ी अच्छे तरीके से है, जिसे वे समय के छलावे से दिखाते हैं. यह छलावा नहीं, सच है. समूची फ़िल्म ‘तेरी कह के लूँगा’ के टेक को समर्पित होती जाती हैं लेकिन कहीं भी कह के लिए जाने के वाकये नहीं है. सरदार खान नगमा खातून से रामाधीर सिंह की कहके लेने की बात करते हैं, इस किस्म की सुहागराती, जज़्बाती और ख़ूनी वायदे अकसर सच हुआ करते हैं, लेकिन हास्यास्पद सच तो ये है कि सरदार खान बिना कहे-लिए अपनी दे जाते हैं.
विश्व सिनेमा में कुछ फिल्मों के नाम रखने की एक प्रथा-सी है, इस फ़िल्म के नाम में भी उसी प्रथा का निर्वहन किया गया है. “गैंग्स ऑफ़ न्यूयॉर्क”, “गैंग्स ऑफ़ सोनोरा”, “गैंग्स ऑफ़ द वाटरफ्रंट”, “गैंग्स ऑफ़ द डेड”, “गैंग्स ऑफ़ लन्दन”(जो कि एक प्रसिद्ध गेम है), “गैंग ऑफ़ रोज़ेज़” और शायद कुछ और भी. लेकिन इस नामकरण प्रथा की सबसे प्रचलित फ़िल्म साबित हुई “गैंग्स ऑफ़ न्यूयॉर्क” जिसे दो बार, १९३८ और २००२ में, बनाया गया. तो इस लिहाज़ से अनुराग कश्यप की यह ‘एक’ फ़िल्म भी इस फ़ेहरिस्त में शामिल की जाती है. मुझे नहीं पता कि इसके नाम के साथ क्यों ‘वन’ और ‘टू’ जोड़ा जा रहा है, जबकि यह दोनों सीक्वेल नहीं है. यह एक ही फ़िल्म है, जिसे दो भागों में पैसा बनाने की नीयत से रिलीज़ किया गया है (ऐसा अनुराग खुद कहते हैं). इस फ़िल्म की सभ्यता दरअसल उस सभ्यता का अनुसरण करना चाहती है, जिसमें रहकर गॉडफ़ादर और पल्प फिक्शन जैसी फ़िल्मों का निर्माण होता है, लेकिन उस सभ्यता को मैं “अमरीकन ऐस्सेंट ऑफ़ फ़िल्म” मानता हूँ. ड्रग्स, कालाबाजारी, बेतरह हत्याएँ, स्त्री का निर्मम किरदार और पौरुषी अंधापन हमें इस ठेठ ऐस्सेंट से मिलता है, लेकिन ‘वासेपुर’ इस ऐस्सेंट में क्यों आवाजाही करना चाहती है, यह बात विचाराधीन है. धनबाद-वासेपुर-कोयले को ‘अमरीकन कसीनो’ या ‘मेक्सिकन स्टैण्ड ऑफ़’ से जोड़ना क्यों और किस हद तक सही है? क्या ऐसा करना ज़रूरी है? किस लिहाज़ से ज़रूरी है ऐसा करना? क्यों आजादी के पहले शुरू हुई बात सिनेमा दर्शकों को स्टोरी टेलिंग का नया चेहरा दिखाना चाहती है? क्यों एक फ़िल्म ज़बरन कल्ट साबित होना चाहती है?
फ़िल्म के शुरूआती हिस्से में पीयूष मिश्रा का वॉयस ओवर है, जहाँ वे कहते हैं कि “क़ौमें सिर्फ़ दो ही होती हैं, एक हरामी और दूसरी बेवकूफ़…..अब कब कोई हरामी बेवकूफ़ी पर उतर आता है और कब कोई बेवकूफ़ हरमज़दगी का तालाब बन जाता है, पता ही नहीं चलता.” अब इसी के बाद से कन्फ्यूज़न का पहला झोंका आता है, जहाँ हरमज़दगी और बेवकूफ़ी का सर्टिफिकेट जारी करने के बाद पीयूष मिश्रा कहते हैं कि “यह वासेपुर की कहानी थोड़ी टेढ़ी है” और इसके बाद वे तमाम लड़ाइयों के बारे में बताते हैं, लेकिन वासेपुर में हरमज़दगी और बेवकूफ़ी में कोई अंतर नहीं स्पष्ट कर पाते हैं. वासेपुर की पूरी कहानी में इस किस्म के नैरेटिव का कोई रोल नहीं है, यह नैरेटिव इतना खोखला साबित होता है कि फ़िल्म में हरामी और बेवकूफ़ दोनों ही नहीं मिलते हैं, मिलते हैं तो सिर्फ़ कुछ लोग जो गलतियां कर जाते हैं. मुझे यह जानने में दिलचस्पी है कि नैरेटिव में अनुराग कश्यप ‘हरामी’ और ‘हरामजादे’ का उपयोग करते तो हैं, लेकिन क्या वे शाब्दिक अर्थ के सन्दर्भों में यह उपयोग करते हैं या सिर्फ़ गालियाँ देने के लिए. अगर इसका जवाब ‘गालियाँ देने के लिए’ है तो यह क़ौमी सर्टीफिकेशन करने वाले अनुराग कौन होते हैं? और अगर यह “अर्थगत सन्दर्भ” के लिए है, तो कथानक में कौन-सा ऐसा बाप या बेटा है जो हरमज़दगी के इस टेस्ट को सत्यापित करता हो? तो, जो भी हो यह वाक्य ही गलत सिद्ध होता है, और यह साफ़ तौर पर मालूम होता है कि यह लाईनें सिर्फ़ प्रभाव के लिए हैं. इस नैरेशन में पीयूष कहते हैं कि ‘सब खत्म हो गए’, लेकिन एक तरफ़ हमारा सामना एनडीटीवी से भी है, जो “रीयल गैंग्स ऑफ़ वासेपुर” नाम से एक विज्ञापन-रुपी वृत्त-चित्र बना देता है जिसमें उन बातों का प्रमाण उपस्थित है जो गैंग्स ऑफ़ वासेपुर में फिल्माई गई हैं. यह दोनों फ़िल्में, यानी गैंग्स ऑफ़ वासेपुर और रीयल गैंग्स ऑफ़ वासेपुर, इतिहास का मरोड़ है या इतिहास फ़िल्म को मरोड़ रही है, यह बात समझ में नहीं आती. क्योंकि यह दोनों फ़िल्में खुद एक दूसरे के प्रति विरोधाभासी हो जाती हैं.
“गैंग्स ऑफ़ वासेपुर” में स्त्री भोग का विषय है. मुझे इस बात से बेहद अचम्भा होता है कि स्त्री किरदारों को लेकर यह फ़िल्म कितनी ज़्यादा अजीब व्यवहार करती है. साधे पाँच घण्टे की फ़िल्म में मुझे केवल सरदार खान के बाप शाहिद खान को ही देखकर लगा कि वह अपनी बीवी से प्यार करता था. बीवी की मृत्यु के बदले के लिए उसने दोषी पहलवान को मार गिराया. लेकिन फ़िर भी यहाँ प्रेम के एक्सटेंट का अभाव है. पहलवान का सिर कूँचा जाना, शायद इसलिए कम था कि खदान के एक मजदूर की पत्नी की प्रसव के दौरान मौत हो गई थी, ज़्यादा इसलिए था कि एक कमज़ोर और कुचले गए वर्ग के आदमी के दोस्त को खदान के भीतर घुसने नहीं दिया गया और एक कमज़ोर और कुचले गए आदमी की पत्नी की मौत हुई थी. फ़िर आप सरदार खान को देखिये, पहली पत्नी के होते हुए भी वह एक दृश्य में दूसरी औरत के साथ हमबिस्तर होते हुए धरा जाता है, और पत्नी के प्रवेश के वक्त वह उस औरत को छोड़ देता है, और पत्नी से पुनः संवाद स्थापित करने लग जाता है और “जोरू क मार” से बचते हुए भागने लगता है. इस तरह से वह एक ही समय पर दो औरतों का भोग करता है. आगे देखिये, उसकी नज़र दुर्गा पर पड़ती है जो किसी भी नज़र से बेतरतीब नहीं जान पड़ती है. उसका जमकर दोहन करने के बाद सरदार खान के मन में यह बात आती है कि वह दुर्गा से शादी कर ले. इधर दुर्गा को बच्चा ठहरता है तो वह एक नादान-सी रुलाई रोती है, जिसमें उसे पहली वाली की तरह बच्चा पैदा करने की मशीन नहीं बनना है. तो ये एक तरह का पहला वाकया है जहाँ एक औरत अपने पक्ष में आवाज़ रखती है, अपना शरीर सुन्दर बनाए रखनी की बात रखती है. वो अलग बात है कि ये आवाज़ भी दब जाती है. नगमा खातून भी एक तरह की आवाज़ उठाती है जब वह अपने ममिया ससुर के साथ सम्बन्ध बनाने को राज़ी होती है लेकिन यहाँ पर भी नासिर अहमद का भोगी किरदार सामने आता है. सुल्तान की बहन और दानिश खान, यानी सरदार के बड़े बेटे, की पत्नी की शादी के लिए पूरा खान ख़ानदान अपनी पुरानी लड़ाईयां भूल जाता है, जिन लड़ाइयों में कई जानें गईं. एक कामातुर प्रेम उपस्थित है दानिश खान और उसकी ‘मेहरारू’ के बीच जिसके कारण वह बार-बार काम छोड़कर भागता फिरता है. लेकिन दूसरे हिस्से में सुल्तान बेदर्दी से अपनी ही बहन का सुहाग उजाड़ता है और फ़िर उसके सिर में भी गोली भर देता है. फैज़ल खान भी अपनी लगभग पहली-सी मुलाक़ात में अपनी प्रेमिका के हाथ पर हाथ रख देता है, जहाँ ‘परमीसन’ वाला किस्सा होता है और बाद में उसके घर में जाकर पहली दफ़ा सेक्स के लिए एक मुंहफट पहल करता है. सुहागरात के वक्त भी दो बार बिस्तर के चरमराने की जुगलबन्दी होती है, जिससे सम्बन्ध की अधीरता का पता चलता है. फ़िर फैज़ल खान की पत्नी बार-बार उसे लड़ाइयों और बदलों की याद दिलाती रहती है, जिससे शायद ये अनुमान लगाया जा सकता है कि मोहसिना फैज़ल की जीवन संगिनी होने का प्रयास कर रही है, सिर्फ़ कोई सामान भर नहीं. मुझे यह नहीं समझ आता कि वासेपुर का मर्द इतना अधीर कैसे है? उसमें किसी भी किस्म का ठहराव क्यों नहीं है? उसमें किसी भी चीज़ की लत कैसे इतनी जल्दी लग जाती है?
जब आप फ़िल्म में किसी स्थान या घटना का वरण करते हैं तो उस वक्त सावधानियां बरतने की ज़रूरत है. कई बार पटकथा लेखक और निदेशक के मूलभूत संस्थानों और स्थानों की आवाजाही बिन बुलाये ही हो जाती है. पहले हिस्से में एक दृश्य है, जहाँ सुल्तान सबूत जुटा रहे पुलिस वाले के गर्दन पर चापड़ रखकर कहता है कि “ई वासेपुर है, इहाँ कबुत्तर भी एक पंख से उड़ता है और दूसरे से अपना इज्जत बचाता है.” और यह कहकर वह इज्जत बचाने वाली जगह पर हाथ रख देता है, मुझे नहीं पता कि यह बात कितने लोगों को पता होगी, कि मूलतः यह संवाद उत्तर प्रदेश के एक प्रचलित चुटकुले का वासेपुरिया एडाप्टेशन है, जहाँ यह बात बलिया के कबूतरों और लोगों के बारे में मज़ाक में बोली जाती है. यह बात भी जान ली जाए कि मैं खुद बलिया से गहरे तौर पर जुड़ा हुआ हूँ, इसलिए मैं नहीं चाहता कि यह बात किसी को दुःख पहुँचाए. “गैंग्स ऑफ़ वासेपुर” की गालियों की बेतरह भर्त्सना की गई है, लेकिन मैं ऐसे आर्रोपों को निराधार मानता हूँ. मेरा मानना यह है कि इस किस्म की क़ोई फ़िल्म गालियों के बगैर शायद लिखी या बनायी ही नहीं जा सकती. यह एक निराधार प्रश्न है कि गालियों को एक्सप्रेशन मीडिया क्यों बनाया जाये. लेकिन मेरा आरोप है कि गलत और कुसमय गालियों को एक्सप्रेशन मीडिया क्यों बनाया गया? कुछ उदाहरणों से बात शायद स्पष्ट हो सके. पहले भाग के जिस दृश्य में सरदार खान पहलवान को मारता है, वहाँ पहलवान पहली दफ़ा सरदार खान को ‘भोसड़ी के’ कहता है. पहलवान का ऐसे गाली देना कुछ अटपटा-सा लगता है, वहाँ दूसरी अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल संभव हो सकता था क्योंकि इस संस्कृति में ‘भोसड़ी के’ या ‘भोसड़ी वाले’ या ‘भोसड़ो के’ का इस्तेमाल अमूमन यारी-दोस्ती और मज़ाक में किया जाता है, जो सिर्फ़ पुरुषों को ही दी जाती है जिसका अर्थ है कि ‘तुम्हारे पास शिश्न नहीं, योनि है’ अर्थात ‘तू लड़की है’. इसके बाद सरदार खान भी पहलवान को पेचकस घोंपते वक्त कई बार इस गाली का इस्तेमाल करता है, जो इस अटपटेपन को एक नया बल देता है. अगला उदाहरण उस दृश्य से है, जहाँ रामाधीर सिंह सरदार खान की अस्थियाँ निकाल लाने को कहता है और फ़िर झूठ पकड़कर कहता है कि “भोसड़ी के! अब तो सच बोल दे भोसड़ी के!”, फ़िर से मेरा सवाल उस लहज़े को लेकर ही है जहाँ गालियाँ भी ऑथेन्टिक नहीं रह जातीं. यदि इससे सही तरीके से इस्तेमाल में लाया गया होता तो ‘भोसड़ी के’ की जगह कोई और गाली फिट की जा सकती थी. मुझे ये बात ज़्यादा परेशानी में धकेल देती है कि मनोज वाजपेयी और तिग्मांशु धूलिया अभिनय-कुशल होने के बावजूद गालियों को खुद सही तरीके से क्या नहीं कह सकते थे? जो शायद लचरपन कम कर देता. जबकि नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी मेरी इस परेशानी को अपने पर लेकर खत्म कर देते हैं.
यह बात भी सर्टिफिकेशन ही है, लेकिन अपनी इस बात पर मैं कायम रहूँगा कि हिन्दी सिनेमा के इतिहास में “नदिया के पार” के बाद हिन्दी सिनेमाई संगीत को यह ऊँचाई मिली है, जिसकी बानगी ‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ में मिलती है. इसके लिए हमें वरुण ग्रोवर, स्नेहा खनवलकर और कुछ हद तक पीयूष मिश्रा का शुक्रगुजार होना चाहिए. पहले कुछेक गीत बिहार और उत्तर प्रदेश को संबोधित दिखाई पड़ जाते थे, लेकिन या तो वे नाकाफ़ी होते और या तो भोजपुरी होते, जो दुहरे अर्थ के वाहक होते. लेकिन संगीत की इस इबारत का क्या, जो स्नेहा और वरुण लिख रहे हैं. यह संगीत ना ही बिहार – यूपी को संबोधित है और ना ही किसी ख़ास जनता को. यह न तो लोकगीत है और न ही देसगीत है. यदि इसके लिए कुछ नाम संभव हुआ तो ज़रूर दूँगा, मेरे लिहाज़ से वह नामकरण भी एक अधूरी साधना की माफ़िक होगा. लगभग सारे गीत एक छिपे अर्थ के साथ आते हैं. उनका जो इकहरा और हमें दीखता अर्थ है वह एक करुण संगीत है और जो छिपे अर्थ हैं वे आल्हा-मादल-लोरिक और ऐसी ही दूसरी कहानियों की तरह राजनीति और तमाम युद्धों-संघर्षों की कहानियां कहते हैं. एक सीमेंट कंपनी के विज्ञापन की नकल करते हुए मैं कहना चाहूँगा कि इस संगीत में जान है. भले ही इसकी जो रचना प्रक्रिया रही हो, लेकिन जो असल काम हम देख-सुन रहे हैं, वह इसकी रचना-प्रक्रिया से काफ़ी आगे निकल जाता है. एक गीत है “ओ वुमनिया”, मेरे ख़याल से वुमनिया सीधे-सीधे वीमेन का अपभ्रंश रूप है, इसे इस तरह से बनाने के पीछे वरुण और स्नेहा के खुराफ़ात सामने आते हैं. वुमनिया की जगह पर सही तौर पर लौंडिया, छोकरिया या दूसरे देशज शब्द इस्तेमाल में लिए जा सकते थे, बिहार और अपने यहाँ भी ‘वुमनिया शब्दावली’ की भाषा अनुपस्थित है, लेकिन इसे ज़िद ही समझें कि जहाँ पर एक गाने में स्त्री को लेकर भरपूर मनमानी की जा सकती थी, जिसे लोकगीत का चोंगा बहुत बेहतरीन तरीके से पहनाया जा सकता था, वहाँ पर आपकी संभावनाओं को चकित करते हुए एक कंटेम्पररी स्वाद उपस्थित होता है. फ़िल्म के सन्दर्भ में बात की जाए तो यह समझ नहीं आता है कि इस शब्दावली में वुमनिया ‘औरत’ को संबोधित है या ‘वीर औरत’ को! “जिया हो बिहार के लाला” गाने वाले मनोज तिवारी एक अच्छी और खुशनुमा आवाज़ के साथ आये हैं, शायद ऐसा इसलिए है कि उनसे इस तरीके से गवाना संभव हो पाया है क्योंकि मनोज तिवारी के पहले के गाने और उनकी पहले की आवाजों में इतना द्वन्द और इतनी पारदर्शित कभी भी नहीं थी, जितनी बिहार के लाला को ‘असीस’ देने में है. इस फ़िल्म के गानों को रचने में वरुण और स्नेहा की रिसर्च ख़ासी कारगर रही. एक तरफ़ ट्रेन में “आई एम ए हंटर” होता है, जिसमें अंग्रेज़ी में गाने की कठिनाई समझ आती है, जो उस मुफ़लिसी को संबोधित है, जिसमें फैज़ल खान पिस्टलों के जखीरे के साथ सफ़र कर रहा है और साथ ही दूसरी तरफ़ फ़िल्म में “भूस के ढेर में राई का दाना” खोजने की खांटी लड़ाई है, जो सरदार खान के भगोड़ेपन को ध्यान बँटाकर दिखाता है. दूसरे आधे हिस्से में शारदा सिन्हा की खनक है, मेरे लिए ‘खनक’ कम से कम इस्तेमाल में लाए जाने वाले शब्दों की श्रेणी में आता है, लेकिन फ़िर भी शारदा सिन्हा के लिए इसका होना अनिवार्य है. “तार-बिजली से पतले हमारे पिया” तो एक पुराने शादी-ब्याह में गाये जाने वाले गीत का हिस्सा है, लेकिन इस गीत का सिर्फ़ मुखड़ा इस्तेमाल कर आगे की लाइनों को राजनैतिक जामा पहना कर वरुण ने क़ाबिल-ए-तारीफ़ काम किया है. साठ-सत्तर के दशक में बिहार की हालत जो थी, जिसमें पिया कोयले के भाव बिक जाते हैं, उसके सर्वेसर्वा और पालनहार को यह पंक्ति (भी) संबोधित है “लोकनायक जलाए यह कैसा दिया”. इसी गीत का एक तेज़ तर्रार और ब्रीथलेस संस्करण है ‘इलेक्ट्रिक पिया’, मुझे नाम पढ़कर ही समझ आ गया था कि संभवतः यह तार-बिजली से किसी न किसी रूप में जुड़ा होगा, और ऐसा हुआ भी. ‘मूरा’ दूसरे आधे हिस्से का थीम गीत है, यह हर वक्त फैज़ल को परेशानियों से निकालता है, उसे हर उस चीज़ से बचाता है जो उसे घेरे रहती हैं, उसे बार याद दिलाता है कि उसे बाप-दादा-भाई सबका बदला लेना है. और साथ ही फैज़ल के चरित्र का बखान करते एक गीत आता है “काला रे”. फ़िल्म के संगीत को फ़िल्म की समीक्षा में जगह देने में ख़ास परेशानी का सामना करना होता है, और जब आपका सामना ‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ जैसी फ़िल्म से हो जिसका कैनन इतना विराट है और आपके पास कहने के लिए ढेर सारी बातें हों. फ़िर भी कुछ बातें पीयूष मिश्रा के संदर्भ में ज़रूर जोड़ी जानी चाहियें, पीयूष मिश्रा बेशक संगीत की एक अच्छी समझ रखते हैं, लेकिन उनका गायन जे.एन.यू. और एन.एस.डी. की रियासतों का द्योतक है, यह वही गायन है, जिसकी अनुकृति हम रिपर्टरी के मशहूर नाटक “जानेमन” में सुनते हैं और जो हम किसी को बिहार-प्रधान फिल्म में नहीं सुनाना चाहते हैं. एक किस्म का जो खांटी, ज़रूरी और कर्कश लहज़ा है उनकी आवाज़ का, वह अकसर गाने के चलन के साथ अजीब खिलवाड़ करने लगता है. पीयूष मिश्रा की आवाज़ इस स्केल पर दुखी कर देती है. कई जगहों पर वे सुर से भटक जाते हैं, जैसे “वासेपुर दो” में उनके गाए बहरे-तबील ‘आबरू’ को सुनिए, किसी छिटपुट जगह पर वे अकेले ही गाते मिलते हैं. इस गाने में उनके प्रति-पक्ष का गायक ज़्यादा सफल मिलता है. “गुलाल” के गानों में वे इसलिए सफल होते हैं कि वहाँ ऐसा संगीत है जो दबाव और दमन का अनुवाद है, वहाँ ऐसे गाने हैं जहाँ एन.एस.डी. और जे.एन.यू. की विरोध में उठी आवाज़ों का समवेत स्वर उपस्थित होता है. और ऐसे गानों में पीयूष मिश्रा की साफ़गोई का पता चलता है. “गैंग्स ऑफ़ वासेपुर” के समूचे संगीत में यही एक आवाज़ हमेशा खटकती रहती है, क्योंकि यह आवाज़ फिल्म और उसके परम्परागत संगीत से अलग भागती है. इस आवाज़ में तद्भवों और अपभ्रंशों का एक ख़ालिस अभाव मिलता है. इस फ़िल्म और दूसरी फ़िल्मों में भी पीयूष मिश्रा की आवाज़ सुनने में तो यही लगता है कि किसी किस्म का फ़तवा जारी किया जा रहा हो, कोई सज़ा सुनाई जा रही हो. इस बारे में ज़्यादा बात करना भी “गैंग्स ऑफ़ वासेपुर” के संगीत को मयस्सर नहीं है, फ़िल्म में पीयूष मिश्रा की सांगीतिक उपस्थिति एक जटिल और क्लिष्ट निर्णय है. गायन-पक्रिया की एक मूलभूत समस्या पीयूष मिश्रा से जुड़ी हुई है. उनके गाए किसी भी गीत को उठा लीजिए, वह चाहे मेलोडी हो(इक बगल में चाँद होगा), चाहे संघर्ष और विरोध गीत हो(राणा जी म्हारे गुस्से में आयह) या प्रेम-प्रणय गीत हो(बीड़ो दूजी थाली का), कुछ स्वरों के बाद सभी गीत एक ख़ास उतराव ग्रहण करते हैं, जिससे वे एक ख़ास समय पर एक जैसे लगने लगते हैं, ब्लैक.
पूरी फ़िल्म में तीन लोगों ने ही काम किया है, नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी, तिग्मांशु धूलिया और मनोज वाजपेयी. नाम देने के इस क्रम को इस फ़िल्म के सन्दर्भ में अभिनय कुशलता का क्रम भी माना जाए. नवाज़ुद्दीन की पिछली फ़िल्में भी देख चुका हूँ, ये बात तो कही ही जा सकती है कि इरफ़ान खान के बाद एन.एस.डी. ने एक अच्छा अभिनेता हमें दिया है. नवाज़ुद्दीन संवादों और कथानक के साथ बहुत साधारण तरीके से पेश आते हैं, जिससे वे किरदार की कठिनाई को पार पा जाते हैं. तिग्मांशु थोड़ा निर्मम तरीके से पेश आते हैं, जिससे वे अनुराग कश्यप (फ़िल्म – शागिर्द) के मुक़ाबिले एक अच्छे अभिनेता साबित हो जाते हैं. कई-कई बार वे चेहरे से ही काम निकाल लेते हैं और संवाद के लिए कोई स्पेस नहीं छोड़ते हैं. पीयूष मिश्रा को फ़िल्म का हिस्सा न मानकर जस्टिफिकेशन का हिस्सा मानना चाहिए, वे फ़िल्म में हैं ही क्यों? क्या सिर्फ़ अपन
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तन्हाई का अंधा शिगाफ़ : भाग-10 अंतिम
आप पढ़ रहे हैं तन्हाई का अंधा शिगाफ़। मीना कुमारी की ज़िंदगी, काम और हादसात …
सिद्धांत जी…मैं आपसे असहमत नहीं हूं.. मैंने सिर्फ इतना ही कहा है कि ये तमाम बातें टुकड़ों में कही जा चुकी है…असहमति इस भाव पर है कि आप पहले की तमाम टिप्पणियों को खारिज कर रहे हैं… आपको दूसरों की राय सर्टिफिकेट जारी करना प्रतीत होती है और अपनी राय गंभीर और बुनियादी सवाल…
यदि मुझे पंकज त्रिपाठी का अभिनय इस स्तर का लगा होता तो मैं उसे ज़रूर लिखता. पंकज के साथ दिक्क़त यह है कि वे थोड़ा अतिवादी हो जाते हैं, पंकज त्रिपाठी के व्यक्तित्व की मौजूदगी का अंदाज़ लगता रहता है, सुल्तान खान की मौजूदगी से ज़्यादा. और मेरा आशय अभिनेता से ही है, नायक से कतई नहीं.
एक आपत्ति यह है कि एन.एस.डी. ने, जिसे रा.ना.वि. भी लिखा जा सकता था, इरफ़ान और नवाज़ के बीच कई अच्छे अभिनेता सिनेमा को दिये हैं..पड़ताल कीजिये..इसी सिनेमा में सुलतान के किरदार में पंकज त्रिपाठी हैं..क्या वे कमतर हैं…हां अभिनेता से आशय नायक से हो तो और बात है.
"ये तो आप सर्टिफिकेट जारी कर रहे हैं. इस फ़िल्म के बहुत से दर्शकों के साथ ऐसा ही हो रहा है और वे भी यही कर रहे हैं."
इस टिप्पणी और ऊपर छपे लेख में कोई तालमेल नहीं बैठ पा रहा है…!!!
आश्चर्य है कि मेरे प्रश्नों को सर्टिफिकेट की तरह लिया जा रहा है और जहाँ तक मुझे लग रहा है कि आप उसी लहज़े में दूसरी बात कह रहे हैं. आस्वादन और विडम्बनाओं को गोली मारिये, मेरे प्रश्नों के जवाब के साथ एक दर्शक समूह खड़ा हो, तब बात बनेगी. अनुराग की रचना-प्रक्रिया पर बात न होकर रचना पर बात हो तो ज़्यादा सही है.
जब फिल्म सर्टिर्फिकेट हासिल करने के लिए बनायी जायेगी तो लोग चाहे-अनचाहे सर्टिर्फिकेट ही जारी करेंगे.. जैसा कि तमाम दूसरे लोगों ने किया और आपने भी .. इस फिल्म की विडंबना भी यही है कि इसे आस्वादन के लिए नहीं बस टिप्पणियां हासिल करने के लिए बनाया गया.. मैं दूसरे लहजे में अपनी ही कही बात को दुहरा रहा हू
जल्दबाज रियेक्शंस की जगह आपने ठहर कर लिखा है. मुझे लगता यह ही साहित्यकार का काम है, पत्रकार के काम से अलग…
ये तो आप सर्टिफिकेट जारी कर रहे हैं. इस फ़िल्म के बहुत से दर्शकों के साथ ऐसा ही हो रहा है और वे भी यही कर रहे हैं.
बहुत ज्यादा जगह घेरते हुए, भाषाई कबूतरों को उड़ाते हुए, कहा वही गया है जो इससे पहले कई और लोग टुकड़ों में कह चुके हैं.
गैंग्स ऑफ वासेपुर कला सिनेमा के व्याकरण से आतंकित अनुराग ने दूसरे लोगों को भयभीत करने के लिए बनायी है. जब रचना का उद्देश्य रचनाकार खुद का सिक्का जमाने के लिए करता है तो ऐसी गड़बड़ बहुधा हो जाया करती है…