‘खूंटा’ कहानी से विशेष चर्चा में आए अनुज की कहानी में राजनीति और ग्रामीण समाज का बदलता चेहरा बखूबी आता है. यह कहानी बिहार की जातिवादी राजनीति को कई कोणों से देखने-समझने की मांग करती है. कथादेश में प्रकाशित हुई है. आज आपके लिए- जानकी पुल.
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{“यह कहानी देशभर में हो रही जातीय हिंसा की घटनाओं में मारे गए लोगों की विधवाओं एवं उनके बच्चों को समर्पित है”- लेखक}
छावनी के बीचो-बीच बरहम बाबा ज़मीन पर इस तरह चित लेटे हुए थे, मानो निद्रावस्था में हों। ऐसे भी निद्रा और मृत्यु में स्थायित्व का ही तो अन्तर होता है, वरना स्थितियाँ तो दोनों लगभग समान ही होती हैं! लोग चहुँओर से दौड़े चले आ रहे थे। जो भी सुनता भागा आता। लाश तो गाँव में आज पहुँची थी, लेकिन ख़बर तो तीन दिन पहले ही आ गयी थी कि मोटरसाइकिल पर सवार कुछ अज्ञात लोगों ने बरहम बाबा को गोलियों से भून दिया है। भून ही तो दिया था! जिस तरह घनसार की लाल टह-टह रेत में मक्के के दाने पटपटा उठते हैं, छप्पन से निकली छप्पई में बरहम बाबा का शरीर भी जैसे पटपटा उठा था।
हालांकि अख़बारों ने कवर तो खूब किया था, लेकिन ‘पैसिव कवरेज’ के साथ। आम लोगों में भी हलचल वैसी नहीं हुई थी, जैसी प्रशासन को आशंका थी। हलचल तो तब होती जब युवा-शक्ति का साथ होता! लेकिन गाँवों की आधी से ज्यादा युवा-आबादी तो पहले ही महानगरों में पलायन कर चुकी थी, और जो थोड़ी बहुत बच गयी थी, उसकी बरहम बाबा जैसों में अब कोई दिलचस्पी रह नहीं गयी थी। अन्यराजनैतिक समीकरण भी तो बदल गए थे! इसीलिए आज बरहम बाबा की हत्या को कोई राजनैतिक घटना नहीं बल्कि एक पारिवारिक दुर्घटना के रूप में देखा जा रहा था। फिर भी, प्रशासन कोई जोखिम नहीं उठाना चाहता था, इसीलिए धारा-144 जैसे एहतियाती कदम उठा लिएगए थे।
पोस्टमार्टम में भी थोड़ा ज्यादा समय लग गया था। दरअसल लाश को चीरने वाला डोम लाश को छूने से आनाकानी कर रहा था। जब दो-दो डोमों ने सीधे-सीधे मना कर दिया तब जाकर डॉक्टर साहब को खटका लगा था। वे कारण तो ठीक से समझ नहीं पाए थे कि आख़िर डोमों को हुआ क्या है, लेकिन वे चिढ़ ज़रूर गए थे। लेकिन जल्दी ही उन्होंने अपने-आप को संयत किया और एक अन्य डोम को बुलाकर बातचीत की। लेकिन जब इसबार भी उधर से वही जवाब मिला, तब वे तैश में आ गए। जोर की झिड़की लगाते हुए डोम को फटकारा और बोले, “थोड़ा एक्स्ट्रा पैसा चाहिए तो ले लो, तुम लोग उसी समय से ई नाटक क्या बतिया रहा है…!“
डोम ने सहमते हुए दबी ज़ुबान में कहा , “नाटक का कौनो बात नहीं है हुजूर…लेकिन हम इस पापी का लहास नहीं छूएँगे, और ई सब बात का हम भूल जाएँगे कि ई हतियारा सब बाथे और सेनारी में कइसा तांडव मँचाए हुआ था ! अरे दादा रे…, छोटका-छोटका ननकिरवा सब को भी…! बाप रे बाप…! ई सब का कौनो कम नाटक किया था, जो आप हमको कह रहे हैं कि हम नाटक बतिया रहे हैं..? अरे छुअल त छोड़ दीजिए….! जाने दीजिए हुजूर…, हमसे नहीं होगा बस…..!”
लेकिन डॉक्टर साहब ने समझा-बुझाकर एवं चंद झूठे वायदे करके उसे मना लिया था और वह अपनी लाख़ हीला-हवाली के बावजूद लाश चीरने के लिए तैयार हो गया था। आख़िरकार पोस्टमार्टम की कार्यवाही, थोड़े विलंब से ही सही, पर पूरी कर ली गई थी। इन्हीं सब कारणों से घर वालों को लाश सुपूर्द करने में तीन दिन लग गए थे। गाँव में लाश लेकर पुलिस की गाड़ी ही आई थी और जल्दी-जल्दी लाश उतारकर वापस चली गयी थी। यह दारोगा का निजी अनुभव था कि भीड़ के मिजाज का कोई ठीक तो रहता नहीं, इसीलिए वह थोड़ा ज्यादा ही सहमा हुआ दिख रहा था। जल्दी-जल्दी लाश उतारकर चलता बना था।
बरहम बाबा का चेहरा तो ए. के. छप्पन की गोलियों ने पहले से ही बिगाड़ रखा था, पोस्टमार्टम के बाद और भी बिगड़ गया था। पोस्टमार्टम में शरीर को आधे-आध चीर भी तो देते हैं! मारते हैं छेनी और हथौड़ा सबसे पहले कपार पर, मानो लकड़ी का कोई गठ्ठर चीर रहे हों, और माथा तो ऐसे अलगाते हैं जैसे आदमी का सिर नहीं, कोई बेल हो। फिर बारी आती थी छाती, पेट, और भी जाने किन-किन अंगों की । फिर यह सोचकर कि अब जलाना ही तो है, काम के बाद सिलाई भी नहीं की जाती थी ठीक से! बस, जैसे-तैसे निपटा भर दिया जाता था। लेकिन बरहम बाबा का हाल तो और भी बुरा दिख रहा था। ऐसा लग रहा था मानो डोम ने भी अपने तरीके और सामर्थ के अनुरूप मृत शरीर से ही अपने लागों का बदला ले लिया हो। लाश देखने आए लोगों में से ज्यादातर का यह ख्याल था कि बरहम बाबा का दिल शेर का था। डरते नहीं थे किसी से ! पोस्टमार्टम के बाद बिगड़े हुए चेहरे को देखकर यह अंदाजा लगाना मुश्किल था कि मरते वक़्त उनके चेहरे पर कौन-सा भाव रहा होगा, लेकिन पोस्टमार्टम से पहले उनकी लाश को देख चुके लोग इस बात को जानते थे कि भय से फटी आँखों का पता देती उनकी खुली पलकों को किस तरह जबरदस्ती ही बंद करना पड़ा था। चेहरे की रेखाओं को पढ़ लेने वाली बूढ़ी और अनुभवी गँवई आँखें भी इस बात की पहचान कर ले रही थीं कि मौत की भयावकता चेहरे की नस-नस में भिंची हुई थी।
सुनरदेव शर्मा आँसुओं को पोंछता हुआ स्यापा कर रहा था,
“कहाते थे बरहम बाबा अउर बुझाता अलुआ नहीं था कुछो, बतकही शुरू करते थे तो खतमे नहीं होता था, जइसे सारा दुनिया हीत ही बइठा हो, लगेंगे सारा इदिया-गुदिया उकटने, हम बोले थे कि नगिनिया है, बच के रहिएगा….डँसेगी एक-ना-एक दिन…लेकिन ना…सुनना ही नहीं था किसी का…हो गया ना…अब जे बा से कि बुझाया ना…गए ना ऊ धाम, अब त हो गया मन शांत ….!” बोलते- बोलते फफककर रो पड़ा था।
सुनरदेवशर्मा की यह हालत देख देवल चौधरी ने उसके दाहिने कंधे पर हाथ रखा और उसे ढाढ़स बँधाते हुए कहा, “चुप हो जाइए, आप इतने बहादुर आदमी हैं…! आप ही हिम्मत हार जाइयेगा तो फिर अउर लोग को कौन सँभालेगा? जाइये, जा के सरयू सिंह को संभालिए, भोरे से भोकार पारे हुए हैं, चुप्पे नहीं हो रहे हैं…।”
बरहम बाबा की लाश जहाँ रखी हुई थी वह जगह किसी किलाबंद सैनिक छावनी से कम न थी। चूँकि बाबा भी अपने लोगों को सैनिक ही कहते थे इसलिए लोग-बाग़ उनके इस ठिकाने को छावनी कहने लगे थे। पुलिस रिकार्ड में भी इसे छावनी नाम से ही दर्ज किया गया था। बाबा पर लाखों रूपये का इनाम भी तो रखा गया था, जिन्दा या मुर्दा ! लेकिन यह सब दिखावे की बात ही थी। पुलिस-प्रशासन क्या, आम आदमी भी यह जानता था कि बाबा इसी छावनी में रहते हैं। छावनी के पीछे की ओर कुछ बैरक सरीखे कमरे बने हुए थे। छावनी के सैनिक जब किला फतह कर लौटते थे तो इन्हीं बैरकों में शरण लेते थे। इन बैरकों में अत्याधुनिक तकनीक से सुज्जित सुख-सुविधा का हर-संभव पुख्ता इन्तजाम होता था। इसी में मेहमानों के लिए एक तफरीह घर भी बना हुआ था जहाँ उच्च पदस्थ आला अधिकारियों और सत्तासीन मेहमानों की मेहमांनवाजी की जाती थी। रंगीन पेय के साथ-साथ कच्चे गर्म गोश्त का भी इन्तज़ाम रखा जाता था। इसके लिए मलिनों की बस्तियों का ही आसरा होता था। कहते हैं कि पुलिस और प्रशासन के कई-कई आला अधिकारी और सत्तासीन राजनेता भी इसी लालच में बाबा के आगे-पीछे डोलते रहते थे और बाबा की कृपा दृष्टि पाते रहने के लिए छावनी की कारगुजारियों पर परदा डाला करते थे। हालांकि छावनी आर्थिक रूप से भी ख़ूब समृद्ध थी और बाबा सैन्य कार्यों में शाहखर्च भी थे, लेकिन धन का आकर्षण तन के आकर्षण से ज्यादा गहरा नहीं होता था। बाबा भी इस रहस्य को ख़ूब समझते थे इसीलिए उन्होंने सैनिकों को अपनी मौन सहमति दे रखी थी। सेना जब भी आक्रमण को जाती, अपने साथ चार-छ: किलो बाँध ही लाती थी। इसी तरह से नगिनिया भी बाथे से बाँध लाई गई थी। लेकिन छावनी के सैनिक जल्दी ही यह समझ गए थे कि नगिनिया सिर्फ गोश्त-भर नहीं थी।
लखीमपुर बाथे बिहार के मोतिहारी शहर से होकर बहने वाली धनौती नदी के किनारे बसा एक छोटा सा गाँव है जो कभी मलिनों की सबसे बड़ी बस्ती के रूप में पहचाना जाता था। अब तो इस गाँव में केवल बंजर-सी ज़मीन ही दिखती है और लोग इसे चँवर कहने लगे हैं। यहाँ कोई रहना भी तो नहीं चाहता है! नहीं तो एक समय था, जब यह गाँव खूब हरा-भरा हुआ करता था और निचली तथा उच्च जाति के कहे जाने वाले लोग भी यहाँ बड़ी हँसी-खुशी और आपसी सौहार्द के साथ रहा करते थे। राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण जैसे लोग जब पटना के गाँधी मैदान में जातीय भेद-भाव को मिटा देने का आह्वान करते थे, तब पटना से लगभग सवा सौ किलोमीटर दूर स्थित इसी लखीमपुर बाथे गाँव का उदाहरण दिया करते थे और यह जोर देकर कहा करते थे कि पूरे देश को इस गाँव से सीख लेनी चाहिए। लेकिन अब तो यह सबकुछ जैसे अतीत हो गया था ! बाथे में छावनी के सैनिकों ने ऐसा हमला किया कि पूरा गाँव ही उजड़ गया। उजड़ा भी ऐसे कि फिर दोबारा कभी बस नहीं पाया था। बाथे पर हुए इस हमले ने पूरे देश को हिला कर रख दिया था। सच पूछा जाए तो, हिल तो छावनी भी गयी थी, क्योंकि बाबा भी तो इसी हमले के बाद धरे गए थे! आज भी उस हमले की भयावकता को याद करके लोगबाग सिहर उठते हैं।
रात के कोई दस बज रहे थे। हालांकि बड़े शहरों की दृष्टि से देखा जाए तो अभी शाम ही हुई थी, लेकिन गाँवों में तो दस बजते-बजते लोगबाग आधी नींद सो चुके होते हैं! नींद खर्राटे भर रही थी। टिटिहरियों की टिर्र-टिर्र रात को और भी गहरा रही थी। दूर कई-कई कुत्ते रो रहे थे, जैसे गाँव भर के कुत्तों पर एक साथ ही कोई आसमान टूट पड़ा हो! एक कुत्ता रोना शुरू करता और जाकर पंचम पर चुप होता, तो दूसरा उसके रोदन को सप्तम पर लाके छोड़ जा रहा था। रुदाली बने ये कुत्ते जैसे वातावरण को भयाक्रांत करने की अपनी कोशिशों में कोई भी कसर उठा नहीं रहने देना चाहते थे। कुत्ते तो अपना काम ईमानदारी से ही कर रहे थे लेकिन अब के समय में कुत्तों के रोने से भी लोगों पर कहाँ कोई फर्क पड़ता है, बल्कि किसी के भी रोने-गाने से कहाँ किसी पर कोई फर्क पड़ता है! एक समय था जब कुत्ते रोना शुरू करते नहीं थे कि गाँव-घर के लोग चोकन्ने हो उठते थे और इस अंदेशे से घुले जाते थे कि पता नहीं क्या अनिष्ट होने वाला है।
फिर अचानक जैसे खर्राटों में खलल पड़ गई । बरहम बाबा के सैनिकों ने गाँव को चारों तरफ से घेर लिया था। किसी अनहोनी की आशंका से पूरा वातावरण दहल उठा था। रात के अँधेरे की घुप्प चुप्पी के बीच दर्जनों लोगों की दिल दहला देने वाली नारेबाजी गूँजने लगी थी। लोग छोटी-छोटी टोलियों में बँटकर नारे लगा रहे थे; “दादा रणवीर अमर रहे, अमर रहे – अमर रहे…!”
सुनरदेव शर्मा ने अपनी बंदूक को आसमान में लहराते हुए नारे को और भी बुलंद किया,
“बारा के बदला बाथे में,
तिन इन्ची ठोकब माथे में”
छावनी के सैनिकों ने किसी मलिन बस्ती पर यह पहला आक्रमण किया हो, ऐसा नहीं था। सेनारी, मियाँपुर और इक्वारी जैसी मलिन बस्तियों में तो सैनिकों के आक्रमण होते ही रहते थे, लेकिन पिछले दिनों जब शिवहर जिले के बार
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शुरू से अंत तक बाँधे रहे… बरहम बाबा जैसे कई सरदारों को काफी नज़दीक से देखा है। हत्या-अपहरण और लूट को सामाजिक मान्यता मिलते देखा है। वक़्त का दोष था। वक़्त था इक़बाल खो चुकी हुकूमतों का। जिनकी ग़ैरमौजूदगी में बरहम बाबा जैसे लोग हुए।
अभी दो दिन पूर्व ही गाने के शीर्षक वाली एक कहानी पढ़ी थी .. आत्महत्या का विचार उपजा था तब मन में .. सोचा रिस्क लूँ कि न लूँ .. फिर आपकी यह टिप्पणी देखी .. '' बिहार की जातिवादी राजनीति पर एक बहसतलब कहानी है. '' .. बस ..सोचा कि पढ़ ही लूँ .. तुरंत से समझ में आया कि बरहम बाबा बरमेश्वर मुखिया है .. थोडा आगे बढ़ा तो लगा कि मुखिया की मौत से सनकाए किसी भूमिहार ने लिख मारी है यह कहानी .. मुस्कुराया ..आपके बारे में सोचने लगा .. सोचा कि कुछ तो कह ही दूँ आपको ..आप पर सवर्ण व्यवहार का लांक्षण लगाऊं .. फिर सोचा कि देखूं कि आखिर इस भूमिहार लेखक ने परिणति कहाँ करी अपनी कहानी की .. और बस .. वहां से जो ऊर्जा पकड़ी है इस कहानी ने कि बस खुश हो गया .. मैं हमेशा कहता हूँ कि मुझे कहानी में किरदार और परिदृश्य का मनोविज्ञान स्पष्ट दिखे ..मनोवैज्ञानिकता में बेईमानी मतलब कहानी फेल .. सन्दर्भ परिदृश्य को खूब अच्छे से समझते हुए पूरी किस्सागोई में लिखी गयी बेहतरीन कहानी है यह .. जातीय राजनीति का केवल इतिहास भूगोल ही नहीं बल्कि समाज शास्त्र और मनोविज्ञान भी खूब समझते हैं श्री अनुज ..
बहुत बहुत शुक्रिया .. आपका .. और श्री अनुज का ..