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फेसबुक पर विद्वानों के अपने-अपने अज्ञेय

·         बात शुरु हुई थी अनिल यादव के इंटरव्यू में आए  अज्ञेय के इस सन्दर्भ से मुझे लगता है कि हिंदी के पास अज्ञेय के रूप में एक अपना रवींद्रनाथ टैगोर था. हमने उसे नहीं पहचाना और खो दिया- देखते-देखते यह फेसबुक पर अज्ञेय को लेकर एक गंभीर बहस में बदल गई. यह पूरी बहस बिना किसी काट-छांट के यहां  प्रस्तुत है- प्रभात रंजन 
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S Prakash SP interview ka koi link …
Anirudh Umat jee bilkul khoo diya …bulky aan baan saan se khoya . aaj tak kho rahe hai ….isi me gume rojgaar hai ….is nabj ko bhi samjen
Isht Deo Sankrityaayan अनिल यादव सही कह रहे हैं. मैं टैगोर के प्रति यथोचित सम्मान के साथ कह रहा हूं, हिन्दी में कई टैगोर से भी बड़े रचनाकार रहे हैं. पर भाई हम रचना की गुणवत्ता से नहीं, रचनाकार को उसकी तथाकथित प्रतिबद्धता से आंकते हैं और जनवादी लेखकों को 2 रुपये के लिए रिक्शे वालों को गरियाते हुए देखते हैं.
Saroj Mishra हर हाल मे निराला अज्ञेय से आगे थे यदि इस तरह देखेंगे तो वरना दोनो की कोई तुलना नही है टैगोर की बराबरी हिन्दी मे केवल निराला ही कर सकते है
Nilambuj Singh हालाँकि तुलना करना मुझे पसंद नहीं, फिर भी ये तो ज़रूर है कि अज्ञेय एक मौलिक चिंतक और गद्य-शिल्पी थे। उनकी तुलना मैं हिन्दी में सिर्फ निर्मल वर्मा से ही कर सकता हूँ।
S Prakash SP आपका आभार इतना जलता इंटरव्यू पढ़वाने के लिए ……
रंजना सिंह एक अज्ञेय ही क्या…..जाने कितनेऐसे भी हुये…जिन्हे साहित्य से ही इतर कर दिया गया….

Etana sahas Anil ji ne kiya wahi bahut hai….par mathadhiso ke matho ko todna etna bhi asaan nahi….sendh-mari bhi ho jaye to kayi aise Anmol-Ratn prastut ho jayenge jinhe sahi dristikon se janana aur padhna Aniwary hi nahi Aparihary bhi hai…
Dhristata ke liye kshama……..

Mool Chandra Gautam hindi valon ko nobel nahin milega
सुनीता सनाढ्य पाण्डेय ज़्यादा कुछ तो जानती समझती नहीं मैं पर इस इंटरव्यू की शीर्षक पंक्ति खूब सटीक लग रही है….
Naveen Raman रवीन्द्रनाथ टैगोर के साथ तुलना करके अज्ञेय को कमतर आंक दिया.अज्ञेय की तुलना किसी से (खासकर हिन्दी में) नहीं की जा सकती(मेरी समझ अनुसार,भले ही मेरी समझ कम हो). अज्ञेय हिन्दी में अपनी तरह के अकेले साहित्यकार है.दिमाग में इतने सवाल उठाने वाले तथा झकझोर देने वाले. सोचने के लिए मजबूर कर देने की अद्भुत क्षमता है अज्ञेय में.
Nand Bhardwaj आधुनिक हिन्‍दी लेखन में निराला, प्रेमचंद, प्रसाद, मुक्तिबोध, राहुल सांकृत्‍यायन, रामविलास शर्मा जैसे और भी बड़े और समर्थ लेखक रहे हैं, जिनका अवदान अज्ञेय जी से कहीं बड़ा है, अगर इन्‍हें रवीन्‍द्रनाथ ठाकुर की तरह अंग्रेजी में विश्‍व-पाठक समुदाय के समक्ष प्रस्‍तुत किया जाता तो उसकी व्‍यापक प्रतिक्रिया हो सकती थी।
DrRaju Ranjan Prasad टैगोर को मैंने कम पढ़ा है. पसंद उससे भी कम आए हैं .
Pankaj Mishra मै इस बहस में अपनी साहित्याल्प्ग्यता के नाते कोई योगदान तो न कर सकूंगा परन्तु इस स्टेटस में छिपी गंभीर एवं सार्थक विमर्श की संभावना के कारण इसका ट्रैक जरूर रखना चाहूँगा …….एक मुकम्मल बहस की उम्मीद में हूँ
Aanil Joshi · Friends with Ranjana Jaiswal and 4 others
nand bhardwaj, i am not agree with your comment. every writer, every artist can’t be compared with another. we love that artist whose creation relates to our life most.
Manoj Tewari अज्ञेय जी (सच्‍चिदानन्‍द हीरानन्‍द वात्‍स्‍यायन अज्ञेय‘) ने जितना लिखा , उतना मेरे पिताश्री ने छात्र-जीवन में ही मुझे पढ़ा दिया था और निस्संदेह वह सब कुछ बहुत ही प्रभावित करता था और जो अमिट है. अनिल यादव एक जुझारू इन्सान है, विपरीत हालात में भी शोध की सुध लेने का माद्दा है उसमे साक्षात्कार के बीच से उठाया गया यह अंशबेवजह अज्ञेय जी कि अन्य से तुलना करवा रहा है गोया कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की बहस हो.
पल्ले पड़ा नहीं. 
रविन्द्र नाथ ठाकुर ” उपर” की विषय-वस्तु हैं लेकिन आम बोलचाल हो या कि साहित्य, निराला को अधिक उद्धृत किया जाता है और उनसे भी ज्यादा दिनकर एवं दुष्यंत कुमार को.
यह पोस्ट मुझे जमा नहीं….. with no intention to hurt anyone.
Bodhi Sattva टैगोर से अज्ञेय की तुलना वही कर सकता है जो दोनों को न समझता हो। टैगोर के सामने अज्ञेय एक कमतर प्रतिभा की तरह दिखते हैं। विधाओं की विविधता हो या रवीन्द्र संगीत हो, उनकी पेंटिंग या एक सजग सामाजिक की भूमिका। पता नहीं किस नजरिए से अज्ञेय तुल्य ठहरते हैं रवीन्द्र के। रवीन्द्र, प्रेमचंद, भारतेन्दु, बंकिम, निराला सब अतुलनीय हैं। किसी से तुलनात्मक अध्ययन का अध्याय मिश्रबंधुओं की याद दिलाता है।
Umashankar Upadhyay अज्ञेय को हिन्दी का रवीन्द्र कहना टैगोर का अवमूल्यांकन होगा । इससे बचेँ ।
Manoj Tewari पहिले बताएं कि यह बेहद मशहूर/ चर्चित पंक्तियाँ कहाँ से ली गयीं .. फिर चले आगे बहस “टैगोर” पर. 
“The story of one night that changed life and fortunes/ and of these passions, a poet was born.”
-Ravindra Nath Thakur “”.
Manoj Pandey हमने उसे नहीं पहचाना और खो दिया- और जिन्होंने पहचाना उन्होंने उन्हें रविन्द्र नाथ नहीं माना
Manoj Tewari Prabhat ji, can u recollect or get these lines? Only ‘like’ will not do. Once you raise an issue , take it to its logistic end.
Prabhat Ranjan i have no idea sir.
Manoj Tewari give me ur number, i wll let u know.
Manoj Tewari जब कहीं कुछ अच्छा लिखा दीखता है तो उसमे शामिल होने की इच

 
      

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4 comments

  1. ऐसा जीवंत बहस।…. एक साधारण पाठक की हैसियत से, टैगोर और अज्ञेय को पढ़ते हुए भाव के स्‍तर पर जो भिन्‍नता व समानता का अहसास होता है, उसे पकड़ने का प्रयास करूं, तो ऐसा लगता है कि टैगोर के यहां यथार्थ और मनोविज्ञान के तमाम संश्‍लेषण के ऊपर एक ऐसा आदर्शवाद सृजित करने का सायास प्रयास है जो शक्‍ल लेते राष्‍ट्रवाद की समकालीन आवश्‍यकता थी। टैगोर के यहां प्राथमिक रूप से वह उर्ध्‍वगामी आदर्शवाद ही हमारे भाव को कैप्‍चर करता है। टैगोर के एक-एक साहित्‍य का जैसे स्‍वतंत्र भाव-बोध है फिर-भी उनका कोई भी साहित्‍य एक सुपरिभाषित भाव-बोध, मानवतावाद की एक सुनिश्चित परिकल्‍पना की ओर गमन करता है। और टैगोर का आभिजात्‍य इस भाव-बोध की जीवनी शक्ति है। अज्ञेय के यहां एक-एक यथार्थ स्‍वतंत्र से मनोवैज्ञानिक संश्‍लेषण से गुजरता है। अज्ञेय के यहां भी आभिजात्‍य वह शक्ति है जिसकी बदौलत कोई भी यथार्थ तात्‍कालिक प्रतिक्रिया के दलदल में गिराने में सक्षम नहीं हो पाता। टैगोर के यहां सांस्‍कृतिक प्रस्‍तावना प्रमुख चिंता है, अज्ञेय के यहां प्रयोग और निजी भावात्‍मकता के धरातल पर संस्‍कृति के एक-एक विरोधाभासों का संश्‍लेषण प्रमुख है। अंतिम रूप से अज्ञेय के यहां भी यथार्थ का मनोवैज्ञानिक संश्‍लेषण सांस्‍कृतिक भावभूमि पर है, और उनका साहित्‍य इतना विशाल है जो समेकित रूप से एक जीवन-दृष्टि प्रस्‍तावित करता है। एक साधारण और अल्‍प अध्‍ययन वाले पाठक के रूप में मै कहना चाहूंगा कि अज्ञेय को पढ़ते हुए रविंद्रनाथ जैसी विराटता की प्रतीति तो होती है।

  2. गजब है ! लेखकों के जीवन और उनके लेखन का ऐसा घुस ड़ म – घुसडा हुआ कि मुझ जैसा मूढ़ ये सोचने पर बाध्य हो गया कि क्या किसी की कृति पढ़ते समय उसके जीवन शैली को भी देखना महत्त्वपूर्ण है ? बिचारे आस्कर वाईल्ड की प्रतिमा अब जाकर इंग्लैण्ड में क्यूँ लगी अब समझ में आया ! धन्यवाद विद्वानों !

  3. बहुत दिनों के बाद आज अपना प्रिय ब्लॉग 'जानकीपुल' देखा और इस परिचर्चा को पढ़कर हिंदी रचनाकारों के जीवंत संसार से रू-ब-रू हुआ। भगवान करे यह तेवर बना रहे। (भगवान का जिक्र मुहावरे के रूप में) यह ठीक है कि ये दोनों रचनाकार आज हमारे बीच नहीं हैं, मगर उन्हें याद करके क्या हम उनकी तुलना-मात्र कर रहे हैं? मुझे, खासकर वीरेंद्र यादव, ओम थानवी और ओम निश्चल की बातों में तेजस्वी तर्कों के स्थान पर एक आत्मीय बौद्धिक संवाद अधिक दिखा। सबसे बड़ी बात, ओम निश्चल साहब ने बहस को जिस तरह समेटा है, वह इतना खूबसूरत है कि उससे उनके प्रति ही नहीं, चर्चा के सभी प्रतिभागियों के प्रति श्रद्धा जागती है। कौन बौद्धिक होगा, जो तर्क-वितकों से दूसरे का जानी दुश्मन हो जायेगा? यह तो बौद्धिक व्यक्ति की खुराक है। प्रभात रंजन को इस आयोजन के लिए एक बार फिर धन्यवाद। इसलिए भी कि इस बहस को में पहले नहीं देख पाया था।

  4. Hamare yaha sahitya ki yah paramapara rahi hai ki jis lekhak ko kuch log uski rachanao ke aadhar pr ek bara lekhak batate hai. kuch log use kahai ka kahi se jorkar ghatiya sabit karane me lage rahate hai…yadi Agyey ke saat aisa kuchh ho rha hai…yah sahitya ke liye…nuksan hi hai……

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