कवयित्री वंदना शर्मा ने एक कवि सम्मलेन की स्मृति के सहारे भवानी प्रसाद मिश्र की कविताई को याद किया है. बड़ा ही आत्मीय गद्य चित्रात्मक भाषा में- जानकी पुल.
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ये साल 1977 बात है मै कोई आठ नौ वर्ष की रही होऊँगी! ये स्कूल जाने के दिन थे! स्कूल का समय उन दिनों दस बजे का कर दिया गया था, हमारा स्कूल कस्बे से एकदम बाहर, कोई एक डेढ़ किलोमीटर दूर था! मोहल्ले के सारे साथी नीली सफेद यूनिफ़ोर्म में लाल जर्सी, काले जूते पहने हुए स्कूल जाते समय सडक के दोनों और लगी दुकानों, ठेलों, रेहड़ियों और मजमों का मुआयना करते हुए खरामा खरामा स्कूल पहुँचते ! दुकानों दीवारों पर चस्पाँ कोई भी पम्फलेट, फ़िल्मी पोस्टर, पर्चा या बैनर हमारी नन्ही किन्तु असीम उत्सुकता कों जगाने के लिए पर्याप्त था ! हम सारे उसे समवेत स्वर पढ़ने में इतना मशगूल हो जाते कि क्षण भर के लिए स्कूल हमारी आगामी योजनाओं से सम्पूर्ण रूप से बिला जाता ! पीछे से आ रही साइकिलों, रिक्शों की घंटियाँ पर चौंकते हुए हम जरा सा सरकते जरुर पर पूरा पर्चा पढकर ही दम लेते ! दरअसल यह उम्र ही जगत भर के सवालों और उत्सुकताओं से लबरेज होती है ! एक सुबह की बात है, बीतती हुई सर्दियाँ थीं! होली से एक पखवाड़े पहले की, उस रोज सामान्य से जरा बड़े और रंगीन पर्चों पर निगाह पड़ी ! कितने तो चेहरे झाँक रहे थे उसमे ! पर्चे का उच्च स्वर पाठ प्रारम्भ हुआ ! आज सोचती हूँ कि इसके पीछे सबसे ऊँची आवाज में और सबसे जल्दी पढ़ डालने का बाल सुलभ कम्पटीशन अवश्य रहा होगा ! यह किसी विराट कवि सम्मेलन का पर्चा था, जो आगामी किसी तारिख में कस्बे में नए बने इकलौते सिनेमा हौळ में होना था ! चेहरों के नीचे मोटे मोटे शब्दों में नाम लिखे थे ! रमानाथ अवस्थी, देवराज दिनेश, शिव ओम अम्बर, सब रस जी, काका हाथरसी, संतोषानंद आदि ये कुछ नाम थे जो आज भी याद हैं ! एक शांत सौम्य चेहरे के नीचे लिखा था भवानी प्रसाद मिश्र, पढते ही मै चौंकी – अरे ! यही हैं न जिनका गीत बड़े भाई अक्सर गुनगुनाया करते हैं ! रह रह कर बोलते हुए- ‘क्या भवानी दादा क्या लिखते हो, जियो‘ खेलते कूदते हुए भी मै भाई के मुहँ से इस गीत को सुन सुन कर एक दो पंक्ति गुनगुनाना सीख ही गई थी ! मेरी खुशी का ठिकाना न रहा, जब विशिष्ट अतिथि के रूप में कस्बे के एकमात्र डिग्री कौलिज के हिंदी विभागध्यक्ष अपने पिता का नाम लिखा देखा ! हम मध्यम वर्गीय संयुक्त परिवार से थे, आर्थिक स्थिति ठीक ठाक सी ही थी क्यों कि चचा और बुआ ही नही पिता जी के एक दो शिष्य भी हम पांच भाई बहनों के साथ ही पढते थे ! किसी भी तरह की तात्कालिक लग्जरी को सोचने तक की हिम्मत न होती थी हमारी ! घर में गीत गाने सुनने के लिए एक इकलौता मर्फी का रेडियो था वार्षिक परीक्षाएं आते ही पिता उसे भूमिगत कर दिया करते थे और हमारे अथाह प्रयासों के बाद भी वह हाथ न लगता था हमारे लिए मनोरंजन के अन्य साधन थे अंत्याक्षरी या छुपम छुपाई या कोड़ियों चियों से खेलना ! ब्याह शादियों मेलों ठेलों में जाने की अनुमति भी पिता का सख्त अनुशासन प्राय: देता ही न था किन्तु कवि सम्मेलन या गोष्ठियाँ एक ऐसा मुद्दा था जिसे सुनने पापा खुद तो जाते ही थे भाइयों के साथ मुझे भी ले जाते थे ! तो खबर बहुत उत्तेजित कर देने वाली थी जैसे तैसे स्कूल निपटा खुश खबरी देने के उत्साह में भरी मै, बड़े भाई के पास पहुँच बोली – ‘पता है न विभोर में एक बड़ा कवि सम्मेलन होने जा रहा है ?’ मुस्कुराते हुए वे बोले-‘पता है तुम्हे जाना है तो कान दबा कर पढ़ती रहो हफ्ते भर, ज्यादा मस्ती की तो पापा ले नही जायेंगे !‘ बात जो उस वक्त धमकी सी लग रही थी सच थी सो पूरे हफ्ते कम से कम पापा के सामने पढते रहने के सिवाय और कोई चारा न था !
आखिरकार वह दिन भी आ पहुंचा ! शाम घिर आई थी ! कवि सम्मेलन सुनने विभोर सिनेमा होल पहुंचा गया ! सामने ऊँचा मंच सजा था ! जनता नीचे सजी सटी कुर्सियों पर जमी बैठी थी नया हौळ था, ठसाठस भरा हुआ ! संचालन सुखबीर जैन कर रहे थे ! ठीक ठीक कितने कवि थे या पाठ का क्रम क्या था, यह तो याद नहीं पर भवानी बाबू का नाम सबसे आखिर में था बतौर स्टार कवि ! किसने क्या पढ़ा यह भी टुकड़ों में थोड़ा बहुत ध्यान है ! सबरस जी ने दुमदार दोहे सुनाये जिनमे से एक पब्लिक के जोरदार ठहाकों के बीच स्मृति में रह गया जो यह था-
भारत वासी जो मरे वही स्वर्ग को जाए,
पता नही यह नरक क्यों विधि ने दिया बनाए
वहाँ क्या भैंस बंधेंगी ?
काका हाथरसी तब तक लोकप्रियता के उस शिखर पर तो नही थे पर काफी सराहे गये किन्तु शिव ओम अम्बर जी द्वारा कवि सम्मेलन में सुनाई हुई ये पंक्तियाँ बेहद लोकप्रिय हुईं जो मेरी बाल स्मृतियों में भी जमी रह गईं –
हर नमाजी शेख पैगम्बर नही होता
पत्थरों में दोस्त अभ्यन्तर नही होता
यह सियासत की तवायफ का दुपट्टा है
यह किसी के आँसुओं से तर नही होता
एक आठ दस साल की बच्ची को इन पंक्तियों में भला क्या पल्ले पड़ा होगा, क्या नही, यह तो आज भी नही मालूम पर तुक, ताल, नारा सा कुछ तो था पंक्तियों में जो बरसों इन्हें गाने गुनगुनाने में एक अजीब सा सुकून मिलता रहा ! कवि सम्मेलन पूरी रवानगी में आगे बढ़ रहा था ! संतोषानंद की बारी आई, तब वह अपने फ़िल्मी करियर के संघर्ष से जूझ रहे थे ! उन्होंने जो गीत सुनाया वह कुछ यूँ था –
‘ मेरी माँ है जब बीमार कैसे होली खेलूं रे ‘
संतोषानंद ने और भी कुछ गीत सुनाये जो अब याद नही ! अब बारी आई कवि सम्मेलन के स्टार कवि भवानी दादा की ! करतल ध्वनि के बीच संचालक सुखबीर जैन ने उन्हें पाठ के लिए आमंत्रित किया ! झक्क सफ़ेद कुर्ते पायजामे में सफ़ेद बालों और भरे शरीर वाले भवानी दादा कविता पाठ के लिए खड़े हुए, माईक सम्भाला ,संबोधन के बाद पहला गीत प्रारम्भ किया जो ये था –
जी हाँ हुजूर मै गीत बेचता हूँ
मै तरह तरह गीत बेचता हूँ
मै किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ !
एक बार फिर साराहॉल तालियों के शोर में दब गया ! सुर ताल और एक अबूझे दर्द के साथ गीत आगे बढ़ता गया-
यह गीत सुबह का है, गा कर देखें,
यह गीत ग़ज़ब का है, ढा कर देखे;
यह गीत ज़रा सूने में लिखा था,
यह गीत वहाँ पूने में लिखा था ।
यह गीत पहाड़ी पर चढ़ जाता है
यह गीत बढ़ाये से बढ़ जाता है
यह गीत भूख और प्यास भगाता है
जी, यह मसान में भूख जगाता है;
यह गीत भुवाली की है हवा हुज़ूर
यह गीत तपेदिक की है दवा हुज़ूर
जनता साथ साथ झूम रही थी गा रही थी कुछ अद्भुत हो रहा है यह तो लग रहा था पर गीत का भाव मेरी बाल बुद्धि सराह नही पा रही थी ! गीत का ”बेचना ” और उसे सरे आम स्वीकारना यह क्या बात हुई ? पर लोग थे कि गीत पर इतने खुश इतने मोहित थे कि पूरा हौळ लगभग हर बंद के बाद तालियों की गडगडाहट से गुंजायमान हो रहा था ! यह क्या गड़बड़ है कुछ देर तक बाल मन को अजीब दुविधा घेरे रही ! आखिरकार पास बैठे बड़े भाई ने मुझे गीत के सही सही मायने समझाए ! भवानी दादा ने आगे जो एक और जादुई गीत शुरू किया, आज भी याद है –
आज पानी गिर रहा है,
बहुत पानी गिर रहा है,
रात-भर गिरता रहा है,
प्राण मन घिरता रहा है,
इसे आगे गाते गाते पंक्तियाँ आईं-
पिताजी जिनको बुढ़ापा,
एक क्षण भी नहीं व्यापा,
रो पड़े होंगे बराबर,
पांचवें का नाम लेकर,
पांचवां मैं हूं अभागा,
जिसे सोने पर सुहागा,
पिताजी कहते रहे हैं,
प्यार में बहते रहे हैं,
आज उनके स्वर्ण बेटे,
लगे होंगे उन्हें हेटे,
क्योंकि मैं उन पर सुहागा
बंधा बैठा हूं अभागा
गाते गाते भवानी जी फूट फूट कर रो पड़े ! सारी जनता रो रही थी ! सब मौन बहता रहा, बहता रहा ! आगे आगे इन पंक्तियों के साथ कौन, कहाँ, कब खो गया यह कोई न जान सका –
मैं मज़े में हूं सही है,
घर नहीं हूं बस यही है,
किन्तु यह बस बड़ा बस है,
इसी बस से सब विरस है,
किन्तु उनसे यह न कहना,
उन्हें देते धीर रहना,
उन्हें कहना लिख रहा हूं,
उन्हें कहना पढ़ रहा हूं,
काम करता हूं कि कहना,
नाम करता हूं कि कहना,…
वह कैसा दर्द था, कौन सी पीड़ा थी अनकही, जिसे उस रात भवानी दादा गा रहे थे, नही जानती पर यह भी कब जान सकी कि उनके साथ साथ एक आठ साल की बच्ची क्यों रो रही थी ! आखिर किस दर्द कों अनुभूत कर अबोध अश्रु बह रहे थे ! बाद में जब वे मंच से उतरे भारी भीड़ ने उन्हें घेर लिया विशिष्ट अतिथि की पुत्री होने के कारण थोड़े प्रयास के बाद हम भाई बहिन उनसे मिले तो दादा ने स्नेह से पूछा – ‘क्या नाम है कौन सी कक्षा में पढ़ती हो ?’ मैंने झिझकते हुए नाम बताया तो बोले-‘ अरे वाह बहुत अच्छा नाम है, इसके मायने पता है न ?’ मैंने हाँ मै गर्दन हिलाई तो उन्होंने ने सर पर बड़ी आत्मीयता से हाथ फेरा और मुट्ठी में छुपी इलायची मेरी नन्ही हथेली पर रखते हुए बोले-‘ जीती रहो खूब नाम कमाओ !‘ उस महान कवि, सुहृद व्यक्ति के सुदृढ़ हाथ का स्नेह भीगा स्पर्श और आशीष आज तक नही भूली हूँ जिसका प्रथम परिचय एक बच्ची के लिए भी इतना प्रभावी, ऐसा मार्मिक, इस कदर कारुणिक, इतना अमिट और इतना दिव्य था कि मै उसे आज तक स्वर्ण स्मृतियों सी संभाल कर रख सकी ! अक्षर के लिए जब मित्रवर प्रियंकर जी ने भवानी बाबू की जन्मशताब्दी पर लेख लिखने का आग्रह किया तो ये कुछ बहुमूल्य स्मृतियाँ मन मस्तिष्क में बेतरह कौंध गईं! उनका आभार कि मै संजोई हुई ऐसी अमूल्य निधियों को पुन: पुन: संवार सकी, संजों सकी!
बहुत प्रभावी
बहुत सुन्दर संस्मरण । भवानी भाई की स्मृतियों की जीवंत प्रस्तुति । बधाई ।
बहुत भला है यह आलेख. अपने बालमन और कविता और कवि को एक साथ जोडता हुआ. जब पहली बार मैंने कवि सम्मलेन में भवानी बाबू को सुना था तो मेरी समझ में में भी कुछ नहीं आया था. मेरी समझ में तो पिता के पढाए बिहारी के दोहे ही नहीं आये थे और न ही जो है रसखानि सो है रसखानि समझ सका था . यह बात अलग है कि कविता सुनने और गुनगुनाने में अच्छी लगती थी. शायद संस्कार ऐसे ही बनते हैं. बचपन से घर पर आते भगवती बाबू, रामकुमार वर्मा, आदि अनेक से सुनते -मिलते न जाने कब कविता समझने -लिखने लगा पता ही नहीं लगा.ऐसी ही कुछ बात तुम्हारा संस्मरण रेखांकित करता है लेकिन यदि मै लिखता तो शायद इतनी खूबसूरती से नहीं लिख सकता था. पढ़ कर बहुत अच्छा लगा. बधाई.
कृपया मेरी उपर्युक्त टिप्पणी में 'बालपन' को 'बालमन' पढ़ें।
बालपन पर अंकित, संचित स्मृतियों का यह आत्मीय भावचित्र सचमुच जीवन्त और भावुक कर देने वाला है।
हा हा … हिन्दी ! ऐसे दिव्य स्मृतियाँ दे सकने वाले कवि कहाँ गए ….. नहीं रहे अब। हमारी नई पीढ़ी की स्मृतियों के लिए कुछ भी शेष, सँजोने लायक नहीं रहेगा अब।
जबरदस्त संस्मरण लिखा है…बचपन की यादों के साथ बाल सुलभ उत्सुकताओं और अबोध मन में संजोएं हुए पलों को याद करना और एक प्रवाह के साथ कागज पर उतार देना जैसे कल की ही बात हो…घर के संस्कार और अबोध मन पर पड़ी संवेदनाओं की गहरी छाप उनकी रचनाओं में नज़र आती है…वंदना जी ने पहली बार में ही जिस तरह से लिखा है उससे आने वाली रचनाओं के प्रति उत्सुकता और अधिक बढ़ जाती है…बधाई और ढेर सारी शुभकामनाएं..
सहज और आत्मीय संस्मरण…| अच्छे लोगों की यादें संजोने के लिए कोई उम्र आड़े नहीं आती…|
बधाई…|
प्रियंका गुप्ता
वाह अतीत को पलटना अलग अनुभूति देता है विरला सा क्षण अतीत के काल निकलना इतना भी आसान नहीं है एक एक अनुभूति वेसी हीजेसे किसी बाग़ में जाएँ तरह तरह के फूलों की खुश्बू मन मोह लेती है पर किस फुल का नाम लिया जाये उसी तरह जिक्र है एक से एक पल छोड़ गए इंसानी संवेदनाओं की अनुभूतियाँ अपने आप में अलग सी कोनो में रहा करती है ..उनके इस तरह अभिव्यक्ति से ही हम पाठकों को नयी व्याख्याओं का मोका मिलता है ….शुक्रिया जानकी पुल … फेवरेट वंदना जी को शुभ शुभ Nirmal paneri
बहुत सुन्दर चित्रात्मक गद्य है. सारे कमेंट्स वंदना के अन्दर छिपे गद्यकार को प्यार कर रहे हैं.महादेवी वर्मा के रिपोर्ताज याद आये .बधाई वंदना और शुभकामनाएँ आपको .
वंदना जी की कवितायेँ अपनी विषयगत निष्ठा और अभिव्यक्ति के नुकीलेपन से हमेशा प्रभावित करती रहीं हैं ….गद्य संभवतः पहली बार पढ़ा आपकी कलम से निकला हुआ ….गज़ब की आत्मीयता से लैस प्रवाहपूर्ण सहज भाषा में उकेरा गया बीते दिनों का चित्र है यह ..बहुत प्रभावी ..आभार जानकीपुल का
वंदना ने बचपन की स्मृतियों को जिस प्यारी मासूमियत के साथ बयान किया है, वह बालसुलभ मासूमियत और सहज प्रवाह पूरे संस्मरण में अंत तक बना रहता है। और यही इस संस्मरण की सबसे बड़ी ताकत और पूंजी है। पहली बार वंदना का गद्य पढ़कर लगता है कि वंदना के भीतर कितना सरस गद्यकार छिपा बैठा है। बधाई…. जियो वंदना, भवानी दादा का आशीष यूं ही फले-फूले।
सुंदर संस्मरण, बेहद सहज और आत्मीय ……..वंदना दी को इस विधा में कुछ और लेख लिखने चाहिए, शुक्रिया प्रभात जी
अपनी स्मृतियों के सहारे उस महान दौर को याद दिलाने के लिए शुक्रिया …