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हृषिकेश मुखर्जी की सिनेमाई


हृषिकेश मुखर्जी की सिनेमाई के अनेक अनछुए पहलुओं को लेकर दिलनवाज ने बहुत अच्छा लेख लिखा है- जानकी पुल.
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मध्यवर्गीय मनोदशाओं के संवेदनशील प्रवक्ता हृषिकेश मुखर्जी हिंदी सिनेमा में विशेष महत्व रखते हैं। सामान्य मुख्यधारा से एक स्तर ऊंचा मुकाम रखती हैं हृषिदा की फ़िल्में। उनका सिनेमा एक रचनात्मक संवाद का दस्तावेज सा मालूम होता है, जिसमें मानवीय आचरण व व्यवहार की अनदेखी मीमांसा व्यक्त हुई है। उनके पात्र व कहानियां जीवन की एक विवेचना होकर भी उससे काफी निकट हैं। बनावटी प्रसंगों एवं तत्वों से प्रेरित कथानक यहां दिखाई नहीं देते।
उनकी सफलता जीवन के सहज- सरल स्वरूप में बसती है। हृषिदा का सिनेमा मानसिक बिम्बों को अलग- अलग नजरिए से व्यक्त करता है । हरेक पहल  सबसे पहले घटनाओं को सरल तरीके से रखना चाहती है। उनकी फ़िल्में आंखों में खुशी और गम के आंसू सींच सकती है। आज के हिंसक-बर्बर एवम दिशाहीन समुदाय ने शायद ऐसी फ़िल्में कभी नहीं देखी हैं। मनोभावों की सतरंगी दुनिया  से रू-ब-रू होना है तो हृषिकेश मुखर्जी की ओर लौटें।  यदि किसी के भीतर का इंसान अब भी नहीं मरा तो सुधार का एक मार्ग इधर से होकर भी है।
वहां आपको वो सबकुछ मिलेगा, जो आज बडी मुश्किल से पर्दे पर नजर भी आता है। ना जाने क्यूं माध्यम का हरेक फ्रेम बनावट के आगोश में चला जा रहा। दरअसल उस दौर की वापसी अब कठिन है। सकारात्मक विषयों की ओर लौटना स्वागत योग्य हो सकता है, ऐसा विचार निर्माताओं में है लेकिन अनुकूलन का स्तर बहुत निराश करता है। हृषिदा की दुनिया दरअसल उस स्वर्णिम दौर का जहान रहीं जब मुख्यधारा का स्वरूप बाज़ार द्वारा उतना अधिक तय नहीं हो रहा था। उनके सिनेमा में मनोरंजकप्रस्तुति एक स्तर के अनुशासन के अधीन थी। उन्होंने बताया कि फ़ीचर फ़िल्मों में मनोरंजन से आशय से क्या होना चाहिए। आज इस शब्द के भीतर से अपने-अपने मुराद निकाले जा रहे हैं।
उनकी फ़िल्मों से एक सकारात्मक उम्मीद सी है कि फ़िल्मकार दर्शकों का बेहतर मनोरंजन करता है। इनसे गुजरते हुए विचार बलवती होता है कि सामाजिक सेवा-भाव से प्ररित सिनेमा अनेक लोगों का कल्याण कर सकता है। हृषिकेश मुखर्जी के सिनेमा में सेवा-भाव की संवेदना दिखाई देती है। उनमें एक संवेदनशील हृदय का निवास था, जो फ़िल्मों को अर्थपूर्ण सम्प्रेषण का प्रारूप मानता था। उनकी फ़िल्मों में लोक-समाज को कुछ देने की कुव्वत थी। दर्शकों ने इन प्रस्तुतियों को तहेदिल से कुबूल किया। जो इस बात की मुक्कमल वजाहत है कि हृषिदा में सेवा भाव था। उनकी कहानियों में लोग अपनी जिंदगियों का अक्स देख सके थे। आनंद सहगल (आनंद) का ही उदाहरण लें जिसकी जीवनी से ना जाने कितने लोगों को सकारात्मक जिंदगी की प्रेरणा मिली। न केवल आनंद बल्कि अनाडी से अनुपमा और अनुराधा से लेकर सत्यकाम फ़िर आशीर्वाद तथा मिली-गुड्डी-खूबसूरत भी जीवन के निकट थी।
हृषिदा की कहानियां किसी अनजान देश की नहीं, इसलिए आम दर्शक इससे एक रिश्ता बना लेता है। सिनेमा को संवाद का एकतरफा प्रारूप कहा जाता है, लेकिन फिर भी दर्शकों की आशाओं से परे नहीं। हृषिकेश मुखर्जी जैसे संकल्पवान फिल्मकार इसी सकरात्मक राह पर चले। उन्होंने सिनेमा को लोक-सेवा के अस्त्र के तौर पर देखा था। वो नजरिया सिनेमा को रचनात्मक आडम्बरों की परिणति नहीं मानता था। अनावश्यक हस्तक्षेप से वस्तुओं का आनंदमय रूप कृत्रिम प्रारूप में परिवर्तित हो जाता है। अतिवादी नज़रिए को सीमा में रखकर निर्माण का वास्तविक आनंद उठाया जा सकता है । हृषिदा ने बताया कि भव्य लोकेशन व सेट्स फीचर- फ़िल्म को प्रभावी नहीं बनाते। फ़िल्मों की विवेचना उपयोगी संवादनज़रिए से करने पर हमें यह मर्म समझ में आता है। जीवन की विभिन्न परतों के संयमपूर्ण व उत्तम निरीक्षण से दिल को छू जाने वाली फ़िल्में बनाई जा सकती हैं । उनके सिनेमा में दिल को जीत लेने की कुव्वत थी (आज के परिप्रेक्ष्य में दिल जीत लेना की मुराद सुविधा के हिसाब से है) इन फ़िल्मों को जब देखेंगे इश्क हो जाएगा, क्योंकि मीरका अंदाजे बयान ही कुछ ऐसा था। कुछ यश चोपडा साहेब को हिंदी सिनेमा का मीरकहते हैं। मेरे नजरिए से हृषिकेश मुखर्जी भी मीर हैं। उसकी ओर लौटना एक जोश-ए-जुनून को पाना है। क्योंकि उसमें किसी के मन में इंसानियत के लिए मुहब्बत जगाने की बात थी।
सितारों की पोपुलर छवियों को चुनौती देकर हृषिदा ने अच्छा काम किया। इस पहल से स्टार का दर्जा रखने वाले कलाकारों को शिल्प का रूतबा समझ आया। लाईमलाइट की दुनिया में अमरता का मार्ग अर्थपूर्ण प्रस्तुतियों से मिलता है। साठ और सत्तर दशक में बेशुमार फ़िल्में बनी। यह सिलसिला आज भी रफ्तार से जारी है। कलाकारों की एक लंबी फेहरिस्त है। स्टार भी इसमें आते हैं। समझदार सितारे भव्य से अधिक महत्त्वपूर्णफिल्मों पर जोर देते रहे हैं। इस स्तर की प्रस्तुतियों में निभाया गया किरदार स्मृतियों में काफी समय तक रहता है। कभी-कभी दर्शक इसे आजीवन भूला नहीं पाता। हृषिदा ने चोटी के कलाकारों को लीक से हटकर किरदार दिए। जो आगे चलकर उनके लिए काफी महत्त्वपूर्ण भूमिकाएं साबित हुईं। इस तरह उन्हें सितारों की छवि से हटाकर किरदार का महत्त्व बताया। इस खासियत की वजह से हृषिदा को काफी सम्मान मिला। राजेश खन्ना, अमिताभ, धर्मेन्द्र,शर्मिला टेगोर और रेखा के समूचे कैरियर में इन हृषिकेश मुखर्जी की फिल्मों का बडा महत्त्व है। इन फ़िल्मों ने इन्हें सामान्य से कुछ हटकर चुनौती दी। परिवर्तन के नजरिए से एक आशावान पहल।
विज्ञान के छात्र होने के नाते उन्होंने स्वयं को भावी विज्ञान शिक्षक रूप में देखा होगा, किंतु कौन जानता था कि एक अलहदा मंजिल उनका इंतज़ार कर रही है। रसायन में स्नातक हृषीकेश ने कुछ समय के लिए गणित और विज्ञान पढाया भी, पर जाना कहीं और था। फोटोग्राफी में रूचि ने न्यू थियेटर्स कोलकाता साथ काम करने का एक छोटा अवसर दिया, लैब सहायक का काम मिला। काम करते हुए फ़िल्म उद्योग के बारे में बहुत कुछ सीख लिया। एक करीबी मित्र इसी कंपनी में संपादक का काम भी देख रहा था, खाली समय मित्र के पास बैठकर ज्ञान में इजाफा करने का शौक हुआ। संगत में संपादन प्रक्रिया के बारे में समझ हुई। शीघ्र ही वह विषय पर उपयोगी मशविरा देने की सीढी तक पहुंचे। इस तरह संपादक मित्र को अक्सर काम में सहयोग करते। संयोग से हृषीदा की काबलियत ने बिमल राय का ध्यान खींचा, जल्द ही तपिशके लिए साईन कर लिया गया। अपनी क्षमता को लेकर हृषीदा में हालांकि आत्मविश्वास की थोडी कमी थी, फिर भी अवसर की चुनौती को स्वीकार किया। इस क्षेत्र में सफल होने बाद, वह एक बार फिर शिक्षा की ओर आकर्षित हुए, उच्चशिक्षा के लिए स्टुडियो छोडने का अप्रत्याशित निर्णय लिया। लेकिन बिमलदा ने उन्हें रोका।
बिमल राय उन दिनों कलकत्ता से बंबई जाने की योजना बना रहे थे। बाम्बे टाकीज से उन्हें बुलावा भी था। उन्होंने हृषीकेश को भी चलने कहा जिस पर हृषीदा बंबई(मुंबई) आ गये । यहां आने बाद फिर मुडकर नहीं देखा। बिमल राय ने अपनी प्रोडक्शन कंपनी बिमल राय प्रोडक्शनकायम कर उसके बैनर तले दो बीघा जमीन का निर्माण किया। फ़िल्म को देश-विदेश में जबरदस्त सराहना मिली। कम ही लोग जानते हैं कि दो बीघा जमीन सलिल चौधरी की एक रचना पर आधारित है। हृषीकेश मुखर्जी फ़िल्म के मुख्य सहायक निर्देशक व संपादक हैं। बिमल राय के सान्निध्य में रहते हुए फ़िल्म बनाने का ख्वाब दिल में पल रहा था। हृषीदा एक आत्मनिर्भर निर्देशक की पहचान बनाने अग्रसर हुए। बिमल राय की दो बीघा जमीनके निर्माण दरम्यान उनका ध्यान पास के एक मकान ओर आकर्षित हुआ। इससे उनकी कल्पना आंदोलित हुई, दिन गुजरने साथ उस दुनिया के जादू में खुद को गिरफ्त पाया। यह सिलसिला मधुमती तक जारी रहा। फ़िल्म मुसाफिरइसी संक्रमण की एक अभिव्यक्ति तौर पर देखी जा सकती है।
हृषीकेश मुखर्जी जो मधुमती का संपादन दायित्व निभा रहे थे, अक्सर उस मकान को जिज्ञासा से निहारा करते। उन्हें उन लोगों का ख्याल कौंध जाता, जो कभी वहां आबाद थे। उस मकान से दिलीप कुमार एवं हृषीदा को फ़िल्म का आइडिया मिला। इससे प्रेरित मुसाफिरतीन परिवारों की दास्तान को बयान करती है। यह परिवार उस चहारदीवारी में एक के बाद आकर रहे। पूरी कहानी को कथा को तीन हिस्सों में प्रस्तुत करती है ।इनमें केवल मकान की समानता है। फ़िल्म बनाने के यह एक अच्छी थीम बनी, हिंदी सिनेमा में इस मिजाज की कहानी को अब तक नहीं आजमाया गया था। हृषीदा को विश्वास था कि यह प्रोजक्ट बाक्स-आफिस पर नहीं कारगर होगा, लेकिन दिलीप कुमार आश्वस्त रहे कि यह एक सफल उपक्रम है। नतीजतन दिलीप साहेब ने हृषीदा को इसके लिए हिम्मत व प्रोत्साहन दिया।
सुचित्रा सेन एवं शेखर इस त्रयीका पहला, किशोर कुमार- निरूपा राय दूसरा जबकि दिलीप कुमार-उषा किरण-डेजी इरानी का हिस्सा एक वैचारिक समापन को दिशा देता है। जैसा कि हृषीदा का पूर्वानुमान था मुसाफिरबाक्स-आफिस पर नहीं चल सकी, लेकिन फिर भी गुणवत्ता के स्तर पर फ़िल्म अपने समय से काफी आगे थी। निश्चित ही यदि मुसाफिरपर पुनर्विचार किया जाए तो यह एक क्लासिक साबित होगी। इसकी गैर-पारंपरिक थीम हर समय में प्रशंसा बटोरेगी। फ़िल्म ने हृषीकेश मुखर्जी को राष्ट्र्पति का पदक दिया, राष्ट्रीय पुरस्कार निर्णायक मंडली का विशिष्ट प्रशस्ति पत्र भी मिला। यदि आज हम अतीत की ओर मुडकर देखें, विशेषकर टाईपकास्ट हिंदी सिनेमा का जायजा लें तो मुसाफिरको अपनी थीम कारण अलग से पहचाना जा सकता है।
हृषीदा को पहली बडी सफलता राजकपूर-नूतन अभिनीत अनाडीसे मिली। बाक्स-आफिस पर जबरदस्त कामयाब हुई इस फिल्म का निर्माण एल बी लक्षमण ने किया था। उस वर्ष आयोजित पुरस्कार समारोहों में अधिकतर अवार्डस अनाडीकी झोली में आए। शंकर-जयकिशन के सुरीले संगीत से सजी अनाडीएक आदर्शवादी युवा (राजकपूर) की कहानी है। अभिनेता को धनवान लोगों से मोहभंग है। हृषीकेश मुखर्जी का सिनेमा एक निश्चित संवेदनशीलता एवं करूणामय वातावरण का वाहक रहा है। इस संदर्भ में ललिता पवार की भूमिका का उल्लेख किया जा सकता है। वह जबान से कर्कश लेकिन रहमदिल स्त्री हैं।
हृषीदा-लक्ष्मण की दोस्ती अनुराधा की कामयाबी के साथ ऊंचाई पर पहुंची। इसे सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। सचिन भौमिक की एक लघु कहानी पर आधारित फ़िल्म में लीला नायडू-बलराज साहनी की मुख्य भूमिका थी। पंडित रविशंकर के संगीत से सजी अनुराधा के गीत शैलेन्द्र ने लिखे।  संगीत के नजरिए से रविशंकर जी की कुछेक दुर्लभ हिंदी फ़िल्मों से एक है । फ़िल्म एक आदर्शवादी चिकित्सक एवं कलाप्रेमी धर्मपत्नी की मर्मस्पर्शी कथा को बयान करती है। चिकित्सक ग्रामीण लोगों के स्वास्थ्य प्रति बहुत संवेदनशील है, वह अपनी सेवाएं वहां दे रहा है। कलाप्रेमी पत्नी एक सामान्य घरेलू जीवन से फ़िल्हाल संतुष्ट है, सारा समय गृहस्थी संवारने में बिता रही है। किंतु उसके मन में कलात्मक क्षमता को दिशा देने की कसक भी पल रही । इस इच्छा के परिणामसवरूप परिवार (बिटिया व पति) को त्याग कर अपने अमीर पिता के पास लौट आई। वह कलाक्षेत्र में कैरियर बनाने यहां चली आई है। अनुराधा (लीला नायडू) का यह अप्रत्याशित निर्णय भावात्मक ऊंचाई से हमें भाव-विभोर कर देता है। निश्चित ही अनुराधाहिंदी सिनेमा की एक यादगार फ़िल्म है।
अनुराधा बाद हृषीदा ने छाया, मेम दीदी, असली नकली, सांझ और सवेरा, दो दिल, अनुपमा, गबन, आशीर्वाद, सत्यकाम जैसी फ़िल्मों का निर्देशन किया। असली नकली  पूर्वगामी अनुराधा से अलग तरह की फ़िल्म थी। हृषीदा-लक्ष्मण ने सफलता के लिए सबसे पुराने व अचूक फार्मूले का चयन किया। इसका निर्माण का कारण हांलाकि रहस्य सा प्रतीत होता है, लेकिन यह निश्चित रूप से बलराज साहनी-लीला नायडू अभिनीत कथा की बाक्स-आफिस प्रदर्शन से प्रेरित था। विविधता के लिहाज से सत्तर के दशक ने हृषीकेश मुखर्जी को ऊंचा मुकाम दिया। हृषीदा की सबसे बेहतरीन फ़िल्में इसी दरम्यान रिलीज हुईं थी। कहा जा सकता है कि वह एक बेहतरीन दौर– जिसमें आनंद, बुढ्ढा मिल गया ,गुड्डी , बावर्ची, अभिमान,
 
      

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