वरिष्ठ कवि-आलोचक विष्णु खरे ने कवि चंद्रकांत देवताले को अकादेमी पुरस्कार मिलने पर एक टिप्पणी लिखी थी. उस ‘टिप्पणी में उन्होंने हमारे एक प्रिय और सम्मानित कवि की प्रशंसा के साथ–साथ एक तिरस्कार भाव दिखाते हुए यह भी कहा कि लीलाधर जगूड़ी, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल और अरुण कमल को “निर्लज्ज षड्यंत्रों‘ से अकादेमी पुरस्कार दिया गया जिसे उन्होंने “मैचिंग बेशर्मी‘ से स्वीकार कर लिया और यह कि वे इसे “अक्षम्य‘ मानते हैं।‘ इसका प्रतिवाद जानकी पुल को वरिष्ठ कवियों लीलाधर जगूड़ी, राजेश जोशी, वीरेन डंगवाल, मंगलेश डबराल के हस्ताक्षर से प्राप्त हुआ है. हम उसे अविकल प्रस्तुत कर रहे हैं- जानकी पुल.
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कोलकाता से प्रकाशित दैनिक ‘प्रभात वार्ता‘ और फिर ‘जानकीपुल’ ब्लॉग में पिछले दिनों कवि–आलोचक विष्णु खरे की एक टिप्पणी दिखाई दी, जो उन्होंने चंद्रकांत देवताले को साहित्य अकादेमी पुरस्कार को दिये जाने की घोषणा का अभिनंदन करते हुए लिखी है। टिप्पणी में उन्होंने हमारे एक प्रिय और सम्मानित कवि की प्रशंसा के साथ–साथ एक तिरस्कार भाव दिखाते हुए यह भी कहा कि लीलाधर जगूड़ी, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल और अरुण कमल को “निर्लज्ज षड्यंत्रों‘ से अकादेमी पुरस्कार दिया गया जिसे उन्होंने “मैचिंग बेशर्मी‘ से स्वीकार कर लिया और यह कि वे इसे “अक्षम्य‘ मानते हैं।
चंद्रकांत देवताले को पुरस्कार दिये जाने पर गहरी प्रसन्नता व्यक्त करने के साथ हम विष्णु खरे की इस अपमानजनक, मनगढ़ंत, अवांछित और कुंठाग्रस्त टिप्पणी पर गहरी आपत्ति दर्ज करते हैं। विष्णु खरे ने इस टिप्पणी में कवियों को आपस में मिला–जुलाकर देवताले और विनोद कुमार शुक्ल से कहीं बराबर तो कहीं कमतर भी बतलाने की कवायद की है जिसे हास्यास्पद मानकर नजरअंदाज किया जा सकता है, लेकिन आश्चर्य यह है कि “षड्यंत्र‘ और “बेशर्मी‘ से संबंधित अपनी धारणा का कोई कारण या औचित्य उन्होंने नहीं बताया। इस सिलसिले में उनसे संपर्क करने पर सिर्फ यह जवाब मिला कि ‘यह एक लंबी बहस है। उपर्युक्त सभी कवि अकादेमी पुरस्कार के हकदार थे, लेकिन विनोद कुमार शुक्ल और चंद्रकांत देवताले के बाद।‘
इस कथन से ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता कि हमें अकादेमी पुरस्कार दिये जाने के पीछे कोई
“साजिश‘ या उसे ग्रहण करने के पीछे कोई “बेशर्मी‘ थी। विनोद कुमार शुक्ल और चंद्रकांत देवताले हमारे अत्यंत प्रिय और सम्मानित कवि हैं, लेकिन उनकी कविता की सार्थकता का पैमाना यह नहीं हो सकता कि उन्हें अकादेमी पुरस्कार कब मिलता है। विष्णु खरे जिस हड़बड़ी में त्वरित फैसले देना चाहते हैं, साहित्य में वह भी काम नहीं आता। विष्णु खरे शायद विस्मरण के शिकार भी हैं, इसलिए हम उन्हें याद दिलाना चाहते हैं कि जब वीरेन डंगवाल को पुरस्कार मिलने पर कुछ लोगों ने जबरन एक अनावश्यक विवाद करने की कोशिश की तो उन्होंने अपने जर्मनी प्रवास से ही वीरेन के भरपूर और उत्साहवर्धक समर्थन का एक वक्तव्य भेजा था जो “समयांतर‘ पत्रिका के पन्नों में दर्ज है। जगूड़ी, मंगलेश और राजेश के पुरस्कार के समय भी उन्होंने ऐसे कोई सवाल नहीं उठाये। ऐसे में विष्णु खरे की धारणाएं कुंठित व्यक्ति के तर्कहीन और अविश्वसनीय विचार लगते हैं।
विष्णु खरे को या तो अपनी राय के पक्ष में ठोस प्रमाण देने चाहिए या फिर एक गैर –जिम्मेदार और असत्य वक्तव्य के लिए खेद प्रकट करना चाहिए।
लीलाधर जगूड़ी, राजेश जोशी, वीरेन डंगवाल, मंगलेश डबराल
बहुत अपरिहार्य होने पर ही आये इन सभी कवियों के वक्तव्य का स्वागत है आशा है श्री खरे जी इसे सकारात्मक लेंगें हिंदी जगत की भावनाओं को समझेंगे और उनका खेद ज्ञापन भी जल्दी ही आएगा !
मैं इस बयान का स्वागत करता हूँ…इस निराश उम्मीद के साथ कि तब भी लोग बोलें जब उनका नाम न आया हो..पास्टर निमोलर की कविता न पुरानी हुई है, न अप्रासंगिक
खिसियानी बिल्ली आखिर खम्भा ही तो नोचेगी .और अगर खिसियाहट गहरी हो तो फिर वह यह भी नहीं देखती की खम्भा मल-मूत्र से तो सना नहीं है?
इस विवाद पर मेरी टिप्पणी १३जनवरी को प्रभात वार्ता मै छप चुकी है.हो सके तो देखिए. प्रभातरंजन ने उसे अपने ब्लॉग पर नहीं लगाया है.
आग्नेय
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Giriraj Kiradoo
January 12
जब विष्णु खरे पूरे आठ नौ बरस साहित्य अकादेमी (१९७६-८४) के उपसचिव थे तब वह हिंदी साहित्य की उन्नति के लिए काम करती थी, जब वे भारत भवन जाते थे तो भारत भवन भी ऐसा करता था, अगर आलोचना का संपादक बन जाने के उनके प्रयास सफल हो गये होते तो वह पत्रिका भी पेरिस रिव्यू होती, जब वे बिना किसी भाषा को जाने उससे अनुवाद करते हैं तो मूल पाठ भी गौरवान्वित हो उठता है, वे जब सेठों के पुरस्कार लेते हैं वह भी हिंदी के सब पुरस्कारों के बड़ा हो जाता है. हिंदी का घनघोर दुर्भाग्य वे उपसचिव से सचिव नहीं बन पाए, आलोचना के संपादक नहीं बन पाए और ऐसे विलक्षण प्राणी को वह साहित्य अकादेमी पुरस्कार नहीं मिल पाया जो 'अशोक-मंगलेश-अरुण-अलका' जैसे सब प्रतिभाहीनों को मिल गया – यह राष्ट्रीय शर्म का विषय है. इस पर हमें अर्जुन सिंह की स्मृति में एक व्याख्यान आयोजित करना चाहिए. और साहित्य अकादेमी के कैंटीन का नाम विष्णु भोजनालय करवाने के लिए और अगला साहित्य अकादेमी पुरस्कार उन्हें दिलवाने के लिए कल से ही धरना देना चाहिए.
(इधर जानकीपुल पर शाया लेख में उन्होंने उपाध्यक्ष तिवारी जी, जिनके पूर्णकालिक अध्यक्ष बनने को अब बहुत लोग पक्का ही बता रहे हैं, के कार्यकाल के किसी फैसले पर कुछ नहीं कहा है. यानी एक वो जो थी हसरत अब भी है… 🙂
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Ashok Kumar Pandey गुरु जब खरे साहब अमेरिका जाते हैं तो वह हतभागा देश साम्राज्यवादी नहीं रह जाता…तुम्हारी कसम उत्ते वक़्त तक वहां समाजवाद आ जाता है…
January 12 at 11:50pm · Edited · Unlike · 4
Ashok Kumar Pandey और तुम्हें यह नहीं पता कि 'सहृदय साहित्य सेवी सेठ' उन टुच्चे साहित्यकारों से बेहतर होते हैं जिनकी टुच्चई यह होती है कि वे सिर्फ कार्यक्रमों में जाते नहीं कार्यक्रम आयोजित भी करते हैं और उसमें विष्णु खरे को नहीं बुलाते हैं…
January 12 at 11:52pm · Like
Giriraj Kiradoo सॉरी, 'धरना' नहीं देना चाहिए, 'षड़यंत्र' करना चाहिए
January 13 at 12:04am · Like · 3
Anirudh Umat giriraj …..done good …kamaal tippani ..khari .
January 13 at 12:29am via mobile · Unlike · 2
Durgaprasad Agrawal वाह गिरिराज! शाबास!
January 13 at 8:21am · Unlike · 2
Anil Janvijay अगर विष्णु खरे साहित्य अकादमी के सचिव हो जाते तो वह दुनिया की सबसे बड़ी साहित्य अकादमी बन जाती, वैसे ही जैसे वे लाखों रूपए लेकर जब वाणी प्रकाशन के सलाहकार बने तो वाणी प्रकाशन हिन्दी का सबसे बड़ा प्रकाशन बन गया। विष्णु जी को अभी भी वाणी का कुछ लाख रुपया लौटाना है, जिसे वो अपना पारिश्रमिक मानकर दबाकर बैठे हैं।
January 13 at 1:59pm · Unlike · 4
Giriraj Kiradoo इस जानकारी के लिए धन्यवाद, अनिल भाई.
January 13 at 2:24pm · Like · 1
Anil Janvijay एक और जानकारी यह भी है कि इनका एक ही कविता-संग्रह दो अलग-अलग नामों से दो विभिन्न प्रकाशनों से छपा है।
January 13 at 3:03pm · Edited · Like · 3
Anirudh Umat anilji …is trh ek…ek..boond kyon ?…
January 13 at 4:09pm via mobile · Like · 1
Bodhi Sattva मैं अनशन तो नहीं करूँगा। लेकिन अकादमी भोजनालय का नाम विष्णु जी के नाम पर करने की पैरवी जरूर करता हूँ। और जो सबसे अच्छी मिठाई हो उसका नाम विष्णु भोग रखना विष्णु खरे जी के सम्मान का सबसे बेहतरीन तरीका होगा।एक सुझाव यह भी है कि विष्णु पुराण का नाम विष्णु खरे पुराण कर दिया जाए। इससे विष्णु जी द्वारा सुझाए-दिखाए गए कवि आलोचक धर्म की रक्षा होगी।
January 13 at 6:21pm · Unlike · 1
बहुत अच्छा लगा कि आप चारों ने यह गरिमा-भरा प्रतिवाद रखा है. फेसबुक पर और अन्यत्र विष्णु खरे का प्रतिवाद करते हुए बार बार लगता था कि आप लोगों को कुछ कहना चाहिए. लेकिन काश आप लोग सिर्फ अपने पर आने पर ही नहीं बोलते. वे इधर ऐसे कई कारनामे कर चुके हैं जो 'अक्षम्य' हैं. कई मित्र उनसे लगातार बहस कर रहे हैं तीस बरस तक एक पुरस्कार से संबद्ध रहने के बाद उसे नष्ट करने के इरादे से एक सनसनीबाज़ कुंठित लेख के लिए,हुसैन पर अनर्गल लिखने के लिए, बिना तथ्यों की परवाह किये चरित्र हनन के लिए (इस लेख से पहले, निरंजन श्रोत्रिय),अपने समकालीनों के बारे में स्तरहीन, रुग्ण टिप्पणियाँ करने के लिए. मैं नहीं जानता नरेश सक्सेना और अरुण कमल कभी कुछ कहेंगे या नहीं. पर आप लोग लगातार बोलते तो जो तमाशा वे हिंदी का बना रहे हैं मुसलसल इस पर कुछ रोक लगती गो यह भी है कि अब वे खुद ही पर्याप्त तमाशा हो चुके हैं (बिना तमाशा हुए, किये अब उनके लिए अटेंशन पाना असंभव है )और अब उनके कहे पर हंसी तक नहीं आती.
श्री विष्णु खरे जी को "निर्लज्ज षड्यंत्रों'"मैचिंग बेशर्मी' जैसा प्रयोग किसी भी कवि के संबंध में नहीं करना चाहिए। क्योंकि लीलाधर जगूड़ी, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल और अरुण कमल जैसे कवि केन्द्र साहित्य अकादमी पुरस्कार से पुरस्कृत होने बिलकुल योग्य है। मेरा विचार यह है कि चन्द्रकांत देवताले जैसे वरिष्ठ कवि को ज़रूर कुछ पहले ही यह पुरस्कार देना चाहिए था। २००० में प्रकाशित इतनी पत्थर रोशनी और २००४ में प्रकाशित उजाड़ में सग्रहालय जैसी रचनाएँ भी पुरस्कार योग्य कृतियाँ थीं।
शिवशम्भू जी, आपकी टिप्पणी किसने उड़ा दी? जानकी पुल पर से आज तक किसी की टिप्पणी नहीं उडाई गई है भाई. तकनीकी माध्यम है कई बार कमेन्ट हो ही नहीं पाता. अगर कोई टिप्पणी उडाई जाए तो भी यह सबको पता चल जाता है कि किसी की टिप्पणी उडाई गई है. ऐसे असावधान वक्तव्य यहां आकर न दिया करें. जानकी पुल सबका सम्मान करता है. आपको भी इसकी जनतांत्रिकता का सम्मान करना चाहिए. विष्णु खरे साहब के उस लेख पर कितनी टिप्पणियां हैं जो उनसे असहमति दर्ज करती है, फिर आपकी टिप्पणी क्यों उड़ा दी जायेगी?
ek jaruree ashamti ke liye aabhaar.
मै आपके इस प्रत्युत्तर लेख से सहमत हूं मैने श्री विष्णु खरे जी की आपत्तियां पढी है उनकी दृष्टि मे एक उथलापन महसुस किया और लेख के विरोध मे एक बात भी लिखी जो संभवत: उडा दी गई बहरहाल साहित्य मे ऎसा ओछापन आपत्ति जनक है और खलता है ।
चारों कवियों का यह विनम्र वक्तव्य पूरी तरह समर्थन किए जाने योग्य है. कवियों के महत्व के आकलन का विष्णु खरे द्वारा प्रस्तावित समीकरण यों भी बहुत गंभीरता से नहीं लिया जा सकता. अच्छा है कि इन कवियों ने अनावश्यक बहस से बचते हुए, उतने भर में कविकर्म की गरिमा को भी बचा लिया है.