वरिष्ठ कवि-आलोचक विष्णु खरे ने चंद्रकांत देवताले के साहित्य अकादेमी सम्मान पर एक अच्छी टिप्पणी की है, हालांकि अपनी खास कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना शैली में- जानकी पुल.
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अब जबकि मेरे दोनों प्रिय वरिष्ठ कवियों विनोदकुमार शुक्ल और चंद्रकांत देवताले को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल चुका है, भले ही विनोदजी को उपन्यासके लिए मिला हो – मैं उन्हें हिन्दी का सबसे बड़ा जीवित उपन्यासकार भी मानताहूँ – तो हिन्दी–पुरस्कारों के इतिहास के एक शर्मनाक परिच्छेद का अंत भी हुआलगता है। अशोक वाजपेयी जब केन्द्रीय सरकारी अफसर के रूप में अकादमी कीकार्यकारिणी के नामजद सदस्य थे तो उन्होंने उससे अस्थायी इस्तीफ़े की अंजीरकी पत्ती लगाकर अन्यथा नग्नता से पुरस्कार लिया था। इसे मैं अशोक के चरित्र परएक अमेट दाग़ मानता हूँ लेकिन उसके बाद भी जिन निर्लज्ज षड्यंत्रों से मंगलेशडबराल, लीलाधर जगूड़ी, वीरेन डंगवाल, अरुण कमल और राजेश जोशी को अकादमीपुरस्कार दिया गया और वैसी ही मैचिग बेशर्मी से उन्होंने लिया भी, उसे मैंनेहमेशा अक्षम्य माना है। यदि इन छहों की अब तक की कविता को जोड़ भी दिया जाए तोवह विनोदकुमार शुक्ल और चंद्रकांत देवताले की सम्मिलित कविता के आसपास भी नहींठहरती – हाँ, मंगलेश डबराल, लीलाधर जगूड़ी, वीरेन डंगवाल और राजेश जोशी को मिलादिया जाए तो वे
यह लेख जोड़-घटाना वादी आलोचना का नमूना है गुणा भाग का नहीं.
कुछ पुरस्कार मिलते है और कुछ ले लिये जाते है /यह भी एक आधुनिक कला है /बस आप शिष्ट्मन्ड्ल के सम्पर्क में रहे उनका लगोटा साफ करे /पुरस्कारो की मंडी में आते जाते रहे /बाजार भाव का पता लगाते रहे /हर साल आपके गले मे पुरस्कार मुन्ड लटक जायेगा /हिंदी साहित्य मे कुछ लोग लिखने के लिये नही पुरस्कारों के सलिये अवतरित हुए हैं/
विष्णु खरे के इस आलेख पर सहमति और असहमति दोनों ही हो सकती है, सहमति इस रूप में कि अधिकतर पुरस्कारों के पीछे यही घिनौना सच होता है। रही बात अशोक वाजपेयी की, तो स्वयं वाजपेयी जी भी पुरस्कारों पर सवाल उठाते रहे हैं, दोनों ही के अपने अपने निहितार्थ है, मुझे याद आता है बरसों पहले अरुण कमल को 1998 का साहित्य अकादमी सम्मान मिलने पर अशोक वाजपेयी ने जनसत्ता में अपने डिस्पेच असमंजस में लिखा था’ अव्वल तो पुरस्कार नेमिचंद्र जैन, विनोद कुमार शुक्ल, विष्णु खरे और चंद्रकांत देवताले की पुस्तकों के रहते इस पुस्तक को मिले यह रुचि या मानदण्ड की विभिन्नता का मामला नहीं हो सकता, तब जब जूरी में भीष्म साहनी, केदारनाथ सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी हों। यह खुले तौर पर प्रगतिशील निर्णय है।… पर क्या यह सही है कि उसी पीढी के मंगलेश डबराल का काम अरुण कमल से बेहतर और अधिक रहा है? श्री कमल से पिछली पीढी के रमेशचंद्र शाह, कृष्ण बलदेव बैद, राजेंद्र यादव, और कमलेश्वर को वह नहीं मिला। कुल मिलाकर यह कि इस बार का पुरस्कार गैर साहित्यिक कारणों से किसी सुनिश्चित योजना के अंतर्गत दिया लगता है। यह दूसरी अधिक समर्थ कृतियों को नज़र अंदाज करके दिया गया है।… अगर हमारे जिम्मेदार और वरिष्ठ लेखक-निर्णायक ऎसा निर्णय लेते हैं तो हमें यह जानने का हक है कि उसका ठोस आधार क्या है, कितनी देर, किन कृतियों पर बहस हुयी?"
हिन्दी के एक वरिष्ठ लेखक के रूप में मैं विष्णु खरे जी का सम्मान करता हूं और उनकी कविताओं का प्रशंसक भी हूं। अपने आलोचनात्मक लेखों में जहां तक वे किसी रचनाकार के रचनाकर्म और साहित्यिक मान-मूल्यों पर बात करते हैं, अच्छा और महत्वपूर्ण विवेचन करते हैं, लेकिन ज्यों ही वे लेखकों की परस्पर तुलना करते हए व्यक्तिगत टिप्पणियों पर उतरते हैं, उनका साहित्य-विवेक और संयम दोनों उनके हाथ से छूट जाते हैं, और उस झौंक में किसी पर कुछ भी अप्रिय मनोगत टिप्पणी करते वे कतई संकोच नहीं करते। मैं नहीं जानता इससे उन्हें किस तरह का आनंद मिलता है, लेकिन इससे एक अच्छे हिन्दी लेखक के रूप में न केवल उनकी छवि धूमिल होती है,हिन्दी लेखकों के बीच कटुता का माहौल भी बनता है।
विनोदकुमार शुक्ल और चन्द्रकान्त देवताले निर्विवाद रूप से हिन्दी के बड़े और महत्वपूर्ण रचनाकार माने जाते हैं, और पिछले चार दशकों से उनका इसी रूप मे सम्मान करते हुए हिन्दी का हर संजीदा लेखक-आलोचक-अध्येता उन पर लिखता रहा है। साहित्य अकादमी पुरस्कार या किसी अन्य पुरस्कार को मैं किसी रचनाकार की श्रेष्ठता का प्रमाण नहीं मानता, इन पुरस्कारों की निर्धारित प्रक्रिया और उसके लिए बनी निर्णायक समिति के लोगों को उस प्रक्रिया में जो उपयुक्त लगता है, वैसा निर्णय हो जाता है। कई बार किसी विधा में उसी समय के महत्वपूर्ण रचनाकार केवल इस कारण छूट जाते हैं कि उनकी कोई कृति ही प्रक्रिया में नहीं होती, इसलिए यह दावा तो शायद ही कोई करता होगा कि पुरस्कार ही श्रेष्ठता का प्रमाण है। जैसा विष्णुजी मानते हैं कि महत्वपूर्ण रचनाकारों को छोड़कर उनसे कम महत्वपूर्ण को पुरस्कृत किया गया और वे तो इतने दावे से कहते हैं, जैसे सारे निर्णयों की अन्तर्कथा से वाकिफ हैं। हो भी सकता है, क्योंकि स्वयं साहित्य अकादमी के सचिव भी रह चुके हैं। बेहतर होता वे उन निर्णायकों के असंगत निर्णय पर आपत्ति उठाते, उसकी बजाय, पुरस्कार पाने वाले रचनाकारों पर अप्रिय टिप्पणी करना तो अशोभनीय और अतार्किक ही माना जाएगा। ऐसे में यह भी माना जा सकता है उनकी किसी से व्यक्तिगत नाराजगी भी रही हो। मुझे नहीं लगता कि अपने इस रवैये से विष्णुजी कुछ महत्वपूर्ण या प्रतिष्ठा अर्जित करने वाला श्रम कर रहे हैं।
मेरी उपर्युक्त टिप्पणी के इस वाक्य "और वह भी उसके समान की घड़ी में" में 'समान' को 'सम्मान' के रूप में पढ़ा जाए।
देवताले जी को बहुत बहुत बधाई। उन्हें सच में बहुत पहले यह सम्मान मिल जाना चाहिए था। ….किन्तु यह हिन्दी साहित्य का सर्वमान्य सत्य/तथ्य है कि पुरस्कारों के लिए बिसात बिछाकर होड़ मची रहती है व रणनीतियाँ तय होती हैं। टुच्चे से टुच्चे पुरस्कार के लिए लोग आत्मसमान तो क्या, जाने क्या-क्या दाँव पर लगाने को आतुर बैठे रहते हैं। हजार तरह के पुरस्कार मिल जाने के बाद भी बड़ा बन जाने लायक कद बढ़ता ही नहीं, वह तो वस्तुतः इतना छोटा है कि बड़े होने की ये सारी कवायदें उस पर बेकार हो जाती हैं क्योंकि जिस हीनताबोध/ग्रंथि को कम करने के लिए पुरस्कारों की घुट्टी पी जाती है वह तो ज्यों का त्यों बना ही रहता है। इसलिए योग्य को कब नहीं मिला और अयोग्य को कब/क्यों मिला पर क्या कहा जाए !
यह कौन-सी मानसिकता होती है जो किसी को बधाई देने व अपने ही सुख के अवसर को युद्धभूमि में तब्दील कर देने में विश्वास रखती है ? तथ्यों का सही गलत होना, किसी का बड़ा या छोटा रचनाकार होना आलोचना का काम निस्संदेह है, किन्तु किसी रचनाकार को दूसरे को नीचा कहते हुए बड़ा बताना, और वह भी उसके समान की घड़ी में, बहुत हैरान कर देने वाला होता है। कौन नहीं जानता कि आकण्ठ दलदल है, किन्तु इस दलदल को साफ करने के कई बेहतरीन ढंग व अवसर हो सकते हैं। हर समय 'यह' V/S 'वह' बनाकर युद्धभूमि में सेनाओं के खड़े होने के दृश्य मेरे जैसे पाठक को बड़ा कुत्सित-सा अनुभव लेने को विवश करते हैं।
मैं साहित्य अकादेमी की कार्यकारिणी का पदेन सदस्य लगभग 6 महीनों के लिए 1997 के उत्तरार्द्ध में बना था। मुझे साहित्य अकादेमी पुरस्कार 1994 में मिला था। विष्णु खरे को , जिन्हें अपने तथ्य – संकलन का बड़ा अभिमान है, तथ्य जाँच लेना चाहिये। उनकी इस राय से की मुझे नहीं मिलना चाहिये या इत्तफ़ाक करने वाले कई हैं। अमिट दाग़ किस पर है, झूठ बोलने वाले पर या मुझ पर?
अशोक वाजपेयी
चंदेल जी, मुझे ऐसा लगता है कि विनोद कुमार शुक्ल 'लोकप्रिय' उपन्यासकार शायद नहीं हैं, पर उनका लेखन विलक्षण है. अपनी ही तरह का. मैंने और सुमनिका ने उनके तीन उपन्यासों को पढ़कर आपस में संवाद किया था जो सापेक्ष के वि कु शुक्ल विशेषांक में छपा है. यह संवाद सुमनिका के ब्लाग पर भी है http://www.sumanika.blogspot.in
यह बात मैं ज्ञान चतुर्वेदी के लेखन को कमतर करने के लिए नहीं कह रहा हूं. मैंने उनका उपन्यास नहीं पढ़ा है. हालोंकि इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि हमारी पसंद, तरफदारी और मूल्यांकन तक में मित्रता, परिचय और प्रादेशिकता जैसे तत्वों के प्रभाव आ जाते हैं.
विष्णु खरे ने समूची बात में साफ़गोई बरती है. यह बात क़ाबिल-ए-गौर है. यहाँ 'कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना' वाला जुमला सही नहीं बैठता है.
दुख होता है यह जानकर कि हिन्दी साहित्य भी मच्छीबाजार जैसा है फ़र्क इतना ही है कि सडांध की बूं नही है ,बाकी कोई अंतर नही है और कविता की सारी कवायद केवल और केवल पुरस्कार निहित है, यदि ये पुरस्कार न हो तो शायद कही कोई कविता भी नही होती ।
विष्णु जी ने पहले भी विनोदकुकार शुक्ल को हिन्दी का सर्वश्रेष्ठ उपन्यासकार कहा है. क्या यह मध्यप्रदेशीय होने के नाते है. सच यह है कि नौकर की कमीज ही विनोद जी का उल्लेखनीय उपन्यास है. मध्य प्रदेश की ही बात करें तो ज्ञान चतुर्वेदी उनसे कहीं बेहतर उपन्यासकार हैं.
रूपसिंह चन्देल
हम असहमत भी हो सकते हैं लेकिन विष्णु जी अपनी बात को प्रखरता, तार्किकता और तथ्यात्मकता के साथ ही नहीं,उन खतरों को उठाकर भी कहते हैं जिनसे प्रतिभाऍं भी अकसर किनारा कर जाती हैं। वे हमारे समय के और इस समय की तमाम मुश्किलों के सच्चे व्याख्याकार भी हैं, साहित्य के माध्यम से और उसके बहाने से भी। तमाम निशाने लगाने और निशानदेहियों के युग्म से भी यह एक अच्छी टिप्पणी है।