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मैं गाऊँ तेरा मंत्र समझ

डॉ. संजय पंकज का यह लेख आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री की कविताओं की अच्छी व्याख्या करती है. बस दुःख यह होता है कि शास्त्री जी को केवल मुजफ्फरपुर वाले ही क्यों याद करते हैं- जानकी पुल.
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महाकवि आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री जीवन मूल्यों तथा आस्था के विराट भारतीय स्वर हैं। इनके व्यक्तित्व का निर्माण महान भारत की समृद्ध विरासत के सकारात्मक तत्वों को सहेजते हुए हुआ है। आचार्य श्री ऋषि-कवि-परंपरा के एक ऐसे शिखर व्यक्तित्व हैं जिनकी प्रज्ञा में व्यापक संसार का सुरीला आरोह-अवरोह निरंतर होता रहता है। इनकी रचनात्मक संवेदना में हर चेतनशील अस्तित्व का आभास मात्र ही नहीं बल्कि उसका होना हम साफ-साफ देख सकते हैं। साँसों की आवाजाही की तरह चेतन की सक्रियता की जीवंत ध्वनि हम सुन सकते हैं। जहाँ कहीं भी जीवन है; और है निरंतर उसका स्पंदन, जब भी जाती है दृष्टि महाकवि आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री की उस ओर तो सहज-स्वाभाविक रूप से इनके मर्म में हलचल पैदा होती है। अपने सुप्रसिद्ध गीत बाँसुरीमें उन्होंने अपने मर्म की आकुलता को सधी और सिद्ध लय का रूप देकर गहन संस्पर्श से भर दिया है। जिस आवेग, आवेश और आकुलता से निकली होगी पंक्तियाँ उसी तरह से संवेदनशील मन-प्राण में प्रवेश भी कर जाती हैं-मसक-मसक रहता मर्मस्थल मर्मर करते प्राण/कैसे इतनी कठिन रागिनी कोमल सुर में गाई/किसने बाँसुरी बजाई।’’

आचार्य श्री जीवन भर जन्मजात प्रतिभा और आस्था के बूते सरलता के साथ कठिन को ही साधते रहे। सांसारिकों का नितांत भौतिकवादी और व्यावहारिक राग उन्हें भाया नहीं तभी तो संसार को अपने ढंग से जानते-समझते हुए अपने लिए एक अलग ही रास्ता बनाया। अपने सुर को साधते हुए उसी सत्य को राग-विस्तार देते रहे जिसके लिए बड़े-बड़े साधक जन्म-जन्मांतर के संचित पुण्य के सहारे उसे प्राकर लेने का उपक्रम करते रहते हैं। शास्त्री जी को सत्यसंधान करने के लिए न तो बहुत भटकना पड़ा और न ही माथा-पच्ची ही करनी पड़ी। विलक्षण प्रतिभा, दृष्टि और श्री-सम्पन्नता लेकर आचार्यश्री पैदा ही हुए। सांसारिक रूप से उनका जीवन अभावग्रस्त और दु:खमय रहा मगर आन्तरिक और आध्यात्मिक रूप से वे विपुल वैभव से सम्पन्न रहे। चाहे-अनचाहे उनका अन्तस्तात्विक स्वरूप उनके सृजन में प्रकट होता रहा-अलग-थलग सभी सुरों से टेर मेरी अनसुनी-सी/मत्त प्राणों की उमंगें तसिकता में चुनी-सी;/गूँथना हूँ चाहता निर्जन नयन के जल-कणों को/सत्य पर छाए हुए मधु-स्वप्न के स्वर्णिम क्षणों को।’’

महाकवि आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री सम्पूर्णत: साहित्य और कला के लिए ही समर्पित रहे। मानवीय मूल्यों में अटूट विश्वास करने वाले कविश्रेष्ठ अनगढ़ को ही गढ़ते रहे और स्वयं भी सदा अनगढ़ और विलक्षण बने रहे। एक आस्थावादी कवि के रूप में जब कभी भी उन्हें देखा जाएगा तो उनका समग्र सृजन आस्था के ही संसार में ऊँचाइयों का दर्शन कराता मिलेगा।
मानवीय मूल्य तथा सांस्कृतिक चेतना की आध्यात्मिक ऊँचाई ही आस्था है। मनुष्य की पहचान उसकी संस्कृति, उसकी मूल्यवत्ता, उसकी हार्दिकता और आन्तरिक गुणवत्ता के कारण ही होती है। निश्चित रूप से इन तमाम विशिष्टताओं का सार आस्था में ही निहित है। व्यक्ति की प्रतिबद्धता अगर आत्मा के साथ है तो जो भी अभिव्यक्ति होगी उसमें एक दृढ़ता और संकल्प की खुशबू अवश्य ही सन्निहित होगी। आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री अपनी रूप-चितेरेकविता में गाते हैं-सुरभि छिपी सुकुमार सुमन में,/जीवन की छवि उन्मन मन में,/सरल कामना भाव गहन में,/नाद-वर्ण में अनुभव मेरे !/रूप-चितेरे, रूप-चितेरे!!’’

सत्य, प्रेम, करुणा और अहिंसा भारतीय जीवन-दर्शन के ही नहीं बल्कि साहित्य के भी मूल्य हैं। यह विदित है कि किसी भी राष्ट्र की पहचान उसकी भाषा, अभिव्यक्ति और संस्कृति से ही होती है। हमारा साहित्य इन सम्पूर्ण संदर्भों का पूँजीभूत रूप है। ये मूल्य आस्था भी हैं। संस्कृत वाङ्गय से लेकर आज के राष्ट्रवादी साहित्य तक में आस्था की बड़ी ही सशक्त धारा प्रवाहित है। सत्य, प्र्रेम, करुणा की व्यापकता में सम्पूर्ण सकारात्मक गुण अन्तर्निहित हैं। जीवन के सारे उदात्त भाव, तत्व-चिंतन और आस्था-प्रदीप इसी के परिवेश में रूपाकार प्राकरते हैं। आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री की सृजनशीलता में इन्हीं तत्त्वों के आत्मीय राग सर्वत्र उपलब्ध होते हैं। अपसंस्कृति, यांत्रिकता और अमानवीयता के विरुद्ध गीत-कविता के माध्यम से आचार्यश्री जिस आत्मज्योति को हर जाग्रत आत्मा में जलाना चाहते हैं निश्चित रूप से उसके पीछे उनका सत्याग्रही और निष्कलुष मन है। वे आह्वान और चाहना करते हैं-कितना अच्छा मानव का मन शुद्ध, प्रेममय होता !/मिSी का संसार सुवासित, दीहेममय होता !/किन्तु हाय ! ईष्याã-स्पद्धाã विवृत-वदन यह काल/अन्तज्र्योति-वलय पर रचता है परिवेश अराल !/भौतिकता का दंभ, दर्प नित बढ़ता ही जाता है,/और यन्त्र मानव के सिर पर चढ़ता ही जाता है !

जो भी मन, प्राण, चेतना से जुड़ा हुआ अस्तित्व है उसके प्रति हमारी सम्पूर्ण रचनात्मक आस्था बार-बार आकार लेती रही है। गीत के शिखर व्यक्तित्व महाकवि आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री की काव्यास्था उन्हीं के स्वर में कुछ इस तरह प्रकट होती है-बात मान की या कहो ईमान की/गान में चाहता, मैं झलक प्राण की।’’ गीतों में प्राण की झलक देखने की ललक वाले कवि के भीतर कैसी गहरी जीवन-आस्था है यह द्रष्टव्य है। 

महाप्राण निराला ने सरस्वती वंदना के गीत वर दे वीणा वादिनी वर देके साथ ही अर्चना और आराधना जैसे गीत संग्रहों में भी गाया है। आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री ने अपने श्यामा संगीतमें विद्या की अधिष्ठात्री माँ सरस्वती को ही नहीं केवल बल्कि माँ के सर्वस्वरूप और उसकी वात्सल्यमयी अछोर ऊँचाई तथा सर्वव्यापकता को भी महाभाव में गाया है। लिखा भी है-जिन्होंने हो तुझे देखा नयन वे और होते हैं/कि बनते वंदना के छंद क्षण वे और होते हैं।’’ माँ वाणी की अभ्यर्थना करते हुए कवि का यह स्वर जिस रागात्मक आस्था-प्रवाह को सहेजे हुए है, वह बार-बार दुहाराने योग्य है-मैं गाऊँ तेरा मंत्र समझ, जग मेरी वाणी कहे, कहे।/आँख्ों सार्थक हो पाकर; तेरी आभा का आभास।/ मेरा मन निश्चल, एकतान हो; भूल दिशा आकाश।/मेरी तो कला वही जिसमें, हो तेरा सतत निवास।/मैं गढूँ प्राण प्रतिमा तेरी, दुनिया पाषाणी कहे, कहे।’’ 

जानकीवल्लभ शास्त्री जीवन-संघर्ष से मुँह मोड़ने वाले कवि नहीं हंै। दु:खों से टूटने वाले भी नहीं। दु:ख आये इसकी परवाह नहीं। बस चाहना यही है कि उसे झेलने की शक्ति बनी रहे। निराला कहते हैं-बाधाएँ, चिंताएँ आती ही हैं; आयें/अन्ध हृदय है; बन्धन निर्दय यह लाये/मैं ही क्या ? सब तो ऐसे ही छले गये/देख चुका, जो-जो आये सब चले गये।’’ 

आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री दु:ख का स्वागत करते हैं। दु:खों का पहाड़ आये, हौसला अगर बुलंद रहे तो उसे उखाड़ फेंकने की पूरी गुुंजाइश रहती है। तभी तो कवि का यह प्रार्थना-स्वर-दु:ख यदि इतने दिये/दो शक्ति मेरा मन न हारे।’’ जीवन-संबल ही नहीं, जीवन-आस्था का महामांत्रिक राग बन जाता है। मन पुख्ता और पुष्ट रहे तो मनुष्य क्या कुछ नहीं उपलब्ध कर सकता है ? मन की साधना ही तो मनुष्य को यथार्थ स्वरूप देती है। मन से ही आस्था भी अडिग और अचल रहती है। आचार्यश्री कहते हैं-जो मन वन-वन भटका करता उसका क्या विश्वास/जीवन का व्रत एक चाहिए, एक चाहिए नेम/एक सखी बस क्षमा हो, एक सखा हो प्रेम।’’

मन को प्रेम और क्षमा से निर्मल तथा उदात्त बनाने वाला व्यक्तित्व ही उद्बोधन और प्रतिमान बनता है। शौर्य, साहस, ओज, पराक्रम, दृढ़ता आस्था की ही उपलब्धियाँ हैं। हिन्दी कविता का यथार्थ भारतीय स्वर तो यही है-गीत नहीं मैं गीता गाता !/दुर्बल मन अर्जुन जब साहस का गांडीव फेंक पछताता !/मैं कहता यदि कसी कमर है/ डर क्या यह संसार समर है/जूझो आत्मा अजर-अमर है/ज्ञान-कर्म का महा मिलन ही/ है मंजुल मंगल फल लाता।’’ आस्था के स्वर में कोई मृत्युभय नहीं होता है। भारतीय कविता का उत्कर्ष निडरता और ईमानदारी का स्वर है। कवि और कविता का संस्कार उसकी आस्था से ही निर्मित होता है। जिस कवि के काव्य-लोक में आस्था-आलोक भरा हुआ है वही कालजयी होता है। उसी का स्वर शाश्वत प्रवाही स्वर होता है। विश्व कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने गीतांजलिमें गाया भी है-आलो ओगो, आलो आमार/आलो भुवन भरा।’’ हिन्दी गीत-कविता आलोक की आस्था से भरी हुई है। सर्वजन कल्याण का भाव इसमें सन्निहित है। वसुधैव कुटुम्बकम्का आर्ष स्वर आधुनिक हिन्दी कविता के बीच आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री में इस समदर्शिता तथा वैराट्य में दीखते हैं-विश्व भर का हो भला/विश्व भर को प्राहो/नव ज्ञान; नित नूतन कला।’’ शिवत्त्व से भरा हुआ आचार्यश्री का काव्य-संसार किसी एक युग को नहीं, बल्कि युग-युगों को आत्मसात किये हुए है। समृद्ध परम्परा, सुदृढ़ वर्त्तमान और स्वर्णिम भविष्य का महान आस्थावादी स्वर प्रवाहित करता हुआ उनका काव्य नित-नयी उड़ान के साथ मानक गढ़ता हुआ आगे-आगे बढ़ता चलता है-मेरे पथ में न विराम रहा।’’ महाकवि का यह भाव और समर्पण सर्वथा देखने योग्य है-कल्याणी प्रतिमा हो मेरी/मधुर वर्ण-विन्यास न केवल/नित्य सत्य बरसे सुन्दर स्वर/लय कौशल अभ्यास न केवल।’’

अराजक और अनास्था की विषम स्थिति में भी मूल्यों की तलाश करने वाले बड़े आस्थावादी रचनाकार हैं आचार्यश्री जिन्हें हम सांसारिकता से विमुख हो संतुलित और समग्र संसार की रचना करने की बेचैनी से भरे हुए देखते रहे हैं। आस्था के क्षरण के कारण ही आदमी की संवेदना कुंद होती चली जा रही है। मनुष्य मनुष्य को सखा नहीं समझकर वस्तु समझ रहा है। जड़ संवेदन होते हुए समय में आस्था के स्वर को संकल्प और दृढ़ता के साथ निरंतर तेज से तेजतर करना होगा। इसके लिए हमें मनीषा और वाणी के समक्ष सम्पूर्णत: समर्पित होने की जरूरत है। इस समर्पण में धरती और अम्बर दोनों की व्यापकता होनी चाहिए। आचार्यश्री के इस आस्थापूर्ण विराट समर्पण को हार्दिक प्रणाम-श्वेत शतदल पर सुशोभित अरुण चरणों में/नील अम्बर हरित धरती संग मैं नत हूँ।’’ 

‘प्रभात वार्ता’ से साभार 
 
      

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