आज हमारी भाषा के विलक्षण गद्यकार फणीश्वरनाथ रेणु का जन्मदिन है. उनको याद करते हुए यह आत्मीय गद्य लिखा है युवा लेखक गिरीन्द्रनाथ झा ने. आप भी पढ़िए और उस महान लेखक को याद कीजिये- जानकी पुल.
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फणीश्वर नाथ रेणु …मेरे लिए यह नाम ही कथा है। ऐसी कथा, जिसमें न जाने कितनी कहानियां एक संग चलती है और मेरा ‘मैं’ उन कहानियों में अंचल की उपजाउ जमीन खोजने लगता है।
पूर्णिया और अब अररिया जिले के औराही हिंगना गांव में आज के ही दिन यानि 4 मार्च 1921 में रेणु का जन्म हुआ था। । मेरे लिए रेणु तन्मयता से किसानी करने वाले लेखक हैं, क्योंकि वे साहित्य में खेती-बाड़ी, फसल, किसानी, गांव-देहात की बातें करते हैं।
फारबिसगंज में उनके एक व्यवसायी मित्र हुआ करते थे- बिरजू बाबू। बिरजू बाबू को लिखे एक पत्र में रेणु कहते हैं- “ गांव-घर, खेत खलिहान अभी बेपानी हो रहा है। मड़ुआ का आंव एक रुपया सात आना किलो, तीस रुपये मन पाट ..खेत में पानी नहीं..नहरी इलाका होने के बावजूद हम सभी इंद्र महाराज के आसरे बैठे हैं। पता नहीं क्या होगा? “
रेणु की यह चिट्ठी पढ़कर लगता है कि वे कथा की तरह किसानी किया करते होंगे। एक किसान जो शिल्पी भी हो..मिस्त्री भी हो ..शायद ऐसे ही थे रेणु। एक चिट्ठी में रेणु लिखते हैं- “मैं उन्हें नहीं समझा सकूंगा कि शिल्पी और मिस्त्री में क्या फर्क होता है। हर शिल्पी की तरह मेरी भी जिज्ञासाएं हैं।“
रेणु को पढ़ते हुए ही मेरे भीतर किसानी-जीवन की ललक पैदा हुई। उन्हें पढ़ते हुए कभी कभी लगता है कि वे खेत देखकर लिखा करते थे। ‘डायरी के दो पृष्ठ’ का ही यह पारा देखिए- “पिछले पंद्रह– बीस वर्षों से हमारे इलाके उत्तर बिहार के कोसी कवलित अंचल में एक नई जिंदगी आ रही है। हरियाली फैल रही है..फैलती जा रही है ‘बालूचरों’ पर। बंजर धूसर पर रोज रोज हरे पीले
और धानी रंग मोटे ब्रश से पोते जा रहे हैं।“
अभी –अभी आलू की खेती करने के बाद और अब खेत में मक्का के लहराते फसल उगाने के बाद जब मैं रेणु का लिखा ‘डायरी के दो पृष्ठ’ पढ़ता हूं तो लगता है कि वे धान के बीज की तरह शब्द का इस्तेमाल करते थे। नहीं तो भला कौन धान, गेंहू और मक्के की खेती के लिए यह लिख पाएगा- “बंजर धूसर पर रोज रोज हरे पीले और धानी रंग मोटे ब्रश से पोते जा रहे हैं।“
रेणु की एक कविता है- मेरा मीत सनीचर ! मुझे यह काफी पसंद है। इसमें एक जगह वे कहते हैं- “गांव छोड़कर चले गए हो शहर, मगर अब भी तुम सचमुच गंवई हो..शहरी तो नहीं हुए हो…” गाम को लेकर रेणु का यही अनुराग हमें गंवई बना देता है।
रेणु का लिखा खूब पढ़ते हुए हम गांव को, खेत-खलिहान को …लोक-गीतों को ..चिड़ियां-पंछी को, गाछ-वृक्ष को जीवन के सबसे सुंदर क्षण की तरह महसूस करने लगते हैं। ऐसा लगता है कि इन सभी में कथा है।
परती-परिकथा-कथा-अनंता।
अपने गाम के कबिराहा मठ पर जब भी जाना होता है तब मुझे केवल और केवल रेणु ही याद आते हैं। उनका एक स्केच ‘अपने-अपने त्रिलोचन’ आंखों के सामने नाचने लगता है, जिसमें वे एक जगह कहते हैं- “कई बार चाहा कि त्रिलोचन से पूछूं – आप कभी पूर्णिया जिला की ओर किसी भी हैसियत से किसी कबिराहा मठ पर गए हैं ? किंतु पूछकर इस भरम को दूर करना नहीं चाहता। इसे पाले रहना चाहता हूं..।”
आज रेणु के गाम-घर..खेती-बाड़ी पर लिखते हुए मैं भी भरम को दूर करना नहीं चाहूंगा, मैं भी खेत-खलिहान में रेणु को ..उनके पात्रों को ..उनके शब्दों को खुद में समेटे रखना चाहूंगा। मक्का के खेत में पहाड़ी चिड़ियों के प्रवेश पर रोक लगाने के लिए हंडी को काले रंग से पोतकर हमने जब खेत में खड़ा किया तो सबसे पहले रेणु ही याद आए। मैं इस भरम को दूर करना नहीं चाहूंगा कि रेणु खेत-खलिहान में व्याप्त हैं। अंखफोड़वा कीड़े की तरह ‘भन-भन’ करता हुआ मक्का के खेत में उड़ना चाहूंगा और खेत को संगीत की दुनिया दिखाना चाहूंगा। देखिए न इस कीड़े पर रेणु ने कितना कुछ लिख दिया है। वे कहते हैं- “ एक कीड़ा होता है- अंखफोड़वा, जो केवल उड़ते वक्त बोलता है-भन-भन-भन। क्या कारण है कि वह बैठकर नहीं बोल पाता? सूक्ष्म पर्यवेक्षण से ज्ञात होगा कि यह आवाज उड़ने में चलते हुए उसके पंखों की है। सूक्ष्मता से देखना और पहचानना साहित्यकार का कर्तव्य है। परिवेश से ऐसे ही सूक्ष्म लगाव का संबंध साहित्य से अपेक्षित है।”
दरअसल वे कम शब्दों अपनी पूरी जीवन स्थिति..मन की बात ..छटपटाहट, तनाव आदि कुशलता से रख देते हैं। यही कला उन्हें महान कथा शिल्पी बना देता है। रेणु का गाम-घर आज भी उनकी किसानी को जी रहा है, मुस्कुराते हुए।
अब चलते-चलते रेणु के जन्मदिन पर उनकी एक कविता- पार्कर ‘51 को पढ़िए। दरअसल उनके पास पार्कर ‘51 कलम थी, जिससे उन्होंने अपनी अधिकांश रचनाएं लिखी। 1946 में उन्होंने इस कलम पर एक कवित्त की रचना की थी-
‘गोल्ड क्लिप’ ‘गोल्ड कैप’ सुंदर-सुघड़ शेष
कवियों की कल्पना में जिसकी रसाई है।
रुप है अनूप, शोभा का ही है स्वरुप यह,
देव जिसे पा न सके, सबके मन भायी है।
मानो तुम, जानो तुम इसकी गुणावली,
वेद पुरातन ने बहुबार गायी है।
भूषण भनत शिवराज वीर तेरे पास,
‘फिफ्टी वन’ पहले पहल अब आयी है।
रेणु ने पूर्णिया के बंजर धरती से अनुराग कराया. गिरीन्द्र रेणु और कोसी के इस धरती दोनों से ही अनुराग को प्रगाढ़ करते हैं.
बहुत बढ़िया। थोड़ा और मिलता पढ़ने को तो मजा आ जाता। साधु-साधु।
पढ़ा हुआ माने,ज्ञानवर्धक आलेख था,जल्दी ख़त्म हो गया