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मेरी उँगलियों को जुगनू पहनने पड़ते हैं: मीनाक्षी ठाकुर की कविताएँ

मीनाक्षी ठाकुर की कविताओं में जीवन के एकांत हैं, छोटे-छोटे अनुभव हैं और आकुल इच्छाएं. सार्वजनिक के निजी वृत्तान्त की तरह भी इन कविताओं को पढ़ा जा सकता है, ‘तुमुल कोलाहल कलह में’ ‘ह्रदय की बात’ की तरह- जानकी पुल.
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इन दिनों
इन दिनों
इतना आसान नहीं
अँधेरे में
तुम्हें देखना
मेरी उँगलियों को
जुगनू पहनने पड़ते हैं
इतना आसान नहीं है
ख़ामोश कमरे में
तुम्हारी हँसी समेटना
जैसे होटों को
मछली जाल फेंकने पड़ते हैं
इतना आसान नहीं
क्योंकि
तुम्हारा वजूद
मचलता रहता है
भटकता रहता है
मेरे आस-पास
सि़र्फ़
सांस लेने को
उसे मेरी ज़रूरत हो जैसे
इतना आसान नहीं
क्योंकि
बरसों से तुम
एक घूँट सांस ले जाते हो
बदले में एक पिंरदा दिये जाते हो
मेरे ज़ेहन में
हज़ारों-हज़ार पिंरदे हैं अब
उड़ते रहते हैं
सलेटी पंखों पर तुम्हारा
बेचैन-सा एतबार लिये
इतना आसान नहीं
इन दिनों
तुम्हें प्यार करना
अ़जनबी इन्तज़ार
मेट्रो स्टेशन पर
पीछे मुड़ किस का
रास्ता देख रहे थे
?
ट्रेन पर ट्रेन छोड़ते
जा रहे थे
?
जिन्हें पता भी नहीं
किसका रास्ता देखना है
किसका इन्तज़ार करना है
वो क्यों गले को
अकड़ने देते हैं
?
कमर से पीठ उलटी दिशा में मोड़े
कौन-सी कसरत किया करते हैं
?
यूँ कि देखा जाये तो
देखते रहे हैं पीछे
लेकिन आस लिये कल के लिए
आने वाले कल के लिए
तो सामने क्यों नहीं देखते हम
?
आँखें क्यों नहीं ठहरतीं कहीं पर
किसी भी चेहरे
, किसी शिकन, किसी हँसी पर?
भागते क्यूँ रहते हैं आवारा आँखें लिये
बालों में आँधियाँ उलझाये
गर्दन मचकाये
कमर अटकाये
हम सभी
अपने अपने अजनबी इन्तज़ार लिये
वहम
तुम्हारी हँसी गूँजती है
उस कमरे में
जिसकी दीवारें नीली हैं
मुझे नींद में अक्सर
वहम होता है कि हम
नीले गुम्बद के नीचे सोते हैं
जिसके परछत्तों में
कई कबूतर रहते हैं
उनकी आहटें देर तलक
नीम बेहोशी में
सुनाई देती है मुझे
तुम्हारी हँसी गूँजती है
फिर
अचानक
टूट के
बि़खर जाती है
काँच के हज़ार टुकड़े
अँधेरे में चमक उठे हैं
सुबह कबूतरों के
घोंसलों से सु़र्ख आँसू टपकते हैं
सुबह कई पर उनके मेरे बिस्तर पर
मुरझाये पड़े मिलते हैं
तुम्हारी हँसी के किरचों को
बुहारते हुए कई बरस लग जाते हैं फिर
तुम्हारे हाथ
जिस किसी भी सड़क
बा़जार
, लाइब्रेरी, कॉ़फी हाउस में मिलो
और दिखाओ अपने हाथ
सुना है बेहद ख़ूबसूरत है
सुना है पतली लम्बी उँगलियाँ हैं तुम्हारी
सुना है आँकती हैं वो कई शहरों के सपने
सुना है चिन पर रख के उन्हें जब
गहरी सोच में डूब जाते हो तुम
तो लोग तुम्हारे लौटने का इंतज़ार करते हैं
दूसरी दुनिया से दिनो-दिन तक
सुना है के सिगरेट भी
ज़रा अलसाती हुई
, अँगड़ाई लेती हुई
जलती है तुम्हारे हाथों में
सुलगती है इत्मीनान से
के मुई ज़हर-तीलियों को
तुम्हारा स्पर्श पसन्द है
दिखाना तो अपने हाथ
किसी पुर-सुकून कब्रिस्तान में
पत्थर के ख़ामोश किसी तख़्त पर
किसी ऐसी शय का नाम लिख कर
जो हम दोनों के ही पास ना हो
जिसको हम दोनों ही तरसते हों

जलती हुई दिल्ली की बेरहम किसी सड़क पर
दिखाना अपने फ़नकार से हाथ
अपने होटों पर दो उँगलियों से
हँसने का इशारा मुझे करके
कि ये परेशान शहर भी
मुझे हँसने की इजाज़त दे देगा फिर

शब्दों के स्याह दिवारों के बीच उतर कर
चुन देना अपने हाथों से मेरी ख़ामोशियाँ
वसन्त के सु़र्ख सेमल जो मोटी किताबों में
दबा कर बेफ़िक्र भूल सको तुम
कि थे दो हम एक थी तनहाईयाँ
कि थे हम तुम दूर-दूर पर इतने आशना

दिखाना तो ज़रा अपने हाथ
कहीं भी
, कभी भी
कि तुम्हारी एक लकीर चाहिये मुझे
कि एक लम्बी लकीर देनी है तुम्हें
सुना है बेहद ख़ूबसूरत है तुम्हारे हाथ…
हम एक ही नदी के दो पत्थर हैं
निस्तब्ध हवा में
कटीले माँझे के
धागे से टँगा हुआ
एक दिन
तुम्हारी कमी़ज की क़फ में
ज़िद पर अड़ा हुआ
टर्न टेबल की सुई-सा अटका हुआ
एक दिन
नई चिट्ठी सा पुराने पते पर
वहम के काले बाज़ार में
आवारा भटका हुआ
एक दिन
एक दिन
जो कुछ सुनता नहीं
कुछ कहता नहीं
एक दिन
जो रुका रहता है
अपनी सांसें रोके
एक दिन
जिसे पता है
तुम रात जलाने को
बस कुछ तारे
बटोरने निकले हो
आलोक वर्ष तो हमारे लिए
मामूली-सी शय है
हम एक ही अँधेर नदी के
दो पत्थर हैं
बहते बहते पास
आ ही जायेंगे
एक दिन
बस अभी लौट आओगे तुम
हमारे तन्हां अन्तरिक्ष
को रोशन करने का सामान लिये
क़र्ज
टूटा टूटा-सा
बिखरा बिखरा-सा
क़र्ज लिया हुआ
एक दिन
ठहरा ठहरा-सा
सहमा सहमा-सा
कील चढ़ा
एक दिन
उतार लो इसे कोई
और रख लो सिरहाने अब
जोड़ के सारी ख़्वाहिशें इसकी
ईसा की तरह
तब से कुरबान
हुआ जा रहा है
ब्लैंक कॉल
तुम्हारे लाख मनाने पर भी नहीं मानते मेरे शब्द
बैठे रहते हैं हाथ-पैर सिकोड़े
मेरी अँतड़ियों के अँधे कुएँ में कहीं
सि़र्फ़
मेरी साँसें दबे पाँव फ़ोन के रास्ते
तुम्हे छूकर लौट आती हैं
पहल
बोरिंग नीले-सफ़ेद स्ट्राइप्स पहनने वाले तुम
उस दिन सब़्ज कमी़ज पहन कर आये थे।
उस दिन रह रह कर हँसते थे तुम
जैसे पहली बार हँसने को जी किया हो तुम्हारा
आँखों के नीचे अनगिनत बारीक लकीरें उभर आती थीं
मुझे दो सौ साल पुराने किसी पीपल की महीन जड़ें याद आयीं
मैं उसी पेड़ की घनेरी छाया में झूम रही थी
उस रात बहुत मीठी नींद आयी मुझे
हमारा रिश्ता जुड़ने-सा लगा था अब
जिन्न
वक्त जैसे रेत की आँधी हो चला है
बालों में भर जाता है
आँखों को चुभाता है
अच्छा-बुरा जो सँजो रहता था सब उड़ा ले जाता है
दाँतों के बीच कट-कट बजता रेत
तन-बदन सब रेत हो गया बस मानो
एक मुट्ठी भर के रख लो मुझे
किसी रंगीन बोतल में कहीं
नीलम
जाने किसने फि़जा में नील की शीशी उडेल दी है
पूरी शाम नीली नीली हुई जाती है आज
गहरी नीली पड़ जाती हैं हवा की नसें
उन्हीं के आगोश में उतरती चली जाती हूँ
बातें छोटी होती जाती हैं
, चुप्पियाँ लम्बी
नीला हुआ जाता है मेरा मन
नीला
, सारा तन
आज मत हाथ देना मुझे
दिन के उजाले में खींच लाने के लिए
आज चला जाने दे ज़रा
मौत के उस ख़ूबसूरत झील के पास
ख़ामोशी मेरी अँगूठी का नीलम हो गयी है आज!
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4 comments

  1. bahut sundar jajbaat,badhai.ek nya ehsas hua yah kavitayein pad kar,nai anubhuti,nya vichar……..

  2. sundar prem kavitaen ..shukriya jankipul

  3. behtareen…

  4. 'ब्लैंक कॉल
    तुम्हारे लाख मनाने पर भी नहीं मानते मेरे शब्द
    बैठे रहते हैं हाथ-पैर सिकोड़े
    मेरी अँतड़ियों के अँधे कुएँ में कहीं
    सि़र्फ़ मेरी साँसें दबे पाँव फ़ोन के रास्ते
    तुम्हे छूकर लौट आती हैं'….!!! अलहदा शिल्प की टटकी कवितायेँ हैं सारी..!

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