महादेवी वर्मा की काव्य-पुस्तक ‘दीपशिखा’ १९४२ में छपी थी. उसका ऐतिहासिक महत्व है क्योंकि इसकी कविताएँ महादेवी जी की हस्तलिपि में है और हर पृष्ठ, हर कविता के साथ उनके बनाए रेखाचित्र हैं. उसके कुछ पृष्ठ हमें कवयित्री आर. अनुराधा ने भेजे हैं अपनी एक संक्षिप्त भूमिका के साथ. आपके लिए- जानकी पुल.
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महिला कॉलेज लखनऊ में पढ़ी रंभा को उनकी शादी के मौके पर कॉलेज की सखियों इंदिरा कौल और कांता कौल ने कुछ किताबें भेंट कीं। यह 1946 की बात है। अब देश-विदेश में फैले परनाती-नातिनों, परपोतो-पोतियों की आमा बन चुकी 84 साल की रंभा नैनीताल में रहती हैं। उनके पिटारे में उस समय के कई ‘आधुनिक’ कवियों के संग्रहों के वही पुराने संस्करण अब भी मौजूद हैं। उनमें से से एक है- महादेवी वर्मा की ‘दीपशिखा’ का 1942 में छपा पहला संस्करण। इस संस्करण की खास बात यह है कि कविताएं महादेवी की हस्तलिखित हैं और हर पृष्ठ, हर कविता में उन्हीं के बनाए रेखाचित्रों की पृष्ठभूमि है। लिथो तकनीक से उन हस्तलिखित रचनाओं के पहले संस्करण की प्रतियां छापी गई थीं।
हिंदी में ऐसे साहित्यकार बहुत कम हुए जिन्होंने शब्दों और चित्रों दोनों ही तरीकों से भावाभिव्यक्ति की हो। महादेवी वर्मा उनमें से एक हैं। उनके काव्य संग्रह ‘दीपशिखा’ के अलावा ‘यामा’ में भी रेखाचित्र शामिल हैं, पर उसके कुछेक पृष्ठ ही चित्रकला से सुसज्जित हैं। महादेवी का मानना था- “कलाओं में काव्य जैसी श्रव्य कलाओं की अपेक्षा चित्र जैसी दृश्य कलाओं की ओर मनुष्य अधिक आकर्षित रहता है, क्योंकि चित्र एक ही साथ मानव के नेत्र, स्पर्श और मन की तुष्टि कर सकता है।“ संग्रह ‘दीपशिखा’ की हर कविता स्त्री की व्यापक दृष्टि से मानवीय भावनाओं को सामने लाती है और हर कविता के मुख्य भाव को रेखाचित्र के जरिए भी व्यक्त किया गया है।
दीपशिखा के चित्र द्वि-आयामी और एक-रंगी (मोनोक्रोम) रेखाचित्र हैं, जिनमें एक ही रंग के अनेक ह्यूज़ का इस्तेमाल किया गया है। महादेवी खुद कहती हैं- “दीपशिखा में मेरी कुछ ऐसी रचनाएँ संग्रहित हैं जिन्हें मैंने रंगरेखा की धुंधली पृष्ठभूमि देने का प्रयास किया है। सभी रचनाओं को ऐसी पीठिका देना न सम्भव होता है और न रुचिकर, अतः रचनाक्रम की दृष्टि से यह चित्रगीत बहुत बिखरे हुए ही रहेंगे।”
35 कविताओं और रेखाचित्रों वाली इस पुस्तक में भूमिका में वे कहती हैं- “दीपशिखा के चित्र तो एक ही रंग में बने थे अतः उनके भाव-अंकन में आयास भी अधिक हुआ और इस अभाव-युग में उनके मूलरूपों की संतोषजनक प्रतिकृति देना भी असंभव हो गया।“
भूमिका के ठीक सामने के पृष्ठ पर महादेवी का चित्र उन्हीं के द्वारा इलाहाबाद में स्थापित प्रयाग महिला विद्यापीठ में चित्रकला के शिक्षक रहे शंभुनाथ मिश्र ने बनाया है।
हालांकि अपनी विलक्षणता के लिए ‘दीपशिखा’ का प्रथम संस्करण हमेशा अमूल्य रहेगा, लेकिन औपचारिक रूप से सामयिक होना चाहें तो अभी 26 मार्च को महादेवी वर्मा की 106ठी जयंती बीती है।
पुस्तक के चित्र मुझे श्रीमती रंभा की बेटी सुश्री आभा साह के सौजन्य से मिले हैं, जो मुंबई में रहती हैं। आभा साह को हम सब आंटी कहते हैं, पर वे हमारी मित्र ज्यादा हैं और आंटी कम।
-आर. अनुराधा