युवा लेखक त्रिपुरारि कुमार शर्मा ने नीलेश मिश्रा के ‘याद शहर’ की एक अच्छी समीक्षा लिखी है. आप भी पढ़िए शायद अच्छी लगे- जानकी पुल.
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मशहूर विचारक ‘बेकन’ का कथन है, “कुछ किताबें चखने के लिए होती हैं, कुछ निगल जाने के लिए। और कुछ थोड़ी-सी चबाने और पचाने के लिए होती है।” लेकिन मेरे ख़याल से कुछ किताबें ऐसी भी होती हैं, जो इन श्रेणियों में नहीं समातीं। कुछ किताबें सीने से लगाने के लिए भी होती हैं। ऐसी ही एक किताब हाल में प्रकाशित हुई है। वेस्टलैंड–यात्रा बुक्स से प्रकाशित दो भागों में एक कहानी संग्रह आया है— याद शहर। कथाकार हैं—नीलेश मिश्रा। वही नीलेश, जो फ़िल्मों के लिए गाने लिखते हैं, स्क्रिप्टिंग करते हैं और रेडियो पर कहानी भी सुनाते हैं। वही कहानियाँ अब आप पढ़ सकते हैं और एक ‘याद शहर’ हमेशा के लिए अपने भीतर बसा सकते हैं। ये ‘याद शहर’, आपके भीतर बसे यादों के अपार जंगल को और घना कर देता हैं। ये कहानियाँ, श्रोताओं और पाठकों के दिल-ओ-दिमाग़ की सतह पर ज़रूर एक छाप छोड़ती हैं। ये छाप, पानियों पर खींची गई लकीरों की तरह नहीं हैं, बल्कि पत्थर पर उभरे हुए प्यार के वो क़िस्से हैं,जो वक़्त-बेवक़्त दिल की सियाह-ओ-सुर्ख़ दीवारों पर हर्फ़-दर-हर्फ़ उभरते हैं, और उम्र भर चमकते रहते हैं। जब हम उम्र के किसी पड़ाव पर याद की किसी दरख़्त के नीचे अपनी रूह छीलने बैठते हैं, तो सूखे हुए होंठों पर कुछ लहू-लुहान, नाम चिपकने लगते हैं। वो नाम, जिसे आख़िरी हिचकी का इंतज़ार होता है। वो नाम, जो डूबती हुई साँसों की सफ़ेद कैनवास पर स्लेटी रंग में एक टूटे हुए चेहरे की शक्ल में दर्ज़ होता है।
छोटी-छोटी घटनाओं को एक तरतीब देते हुए कैसे यादों का एक शहर बनकर तैयार होता है? लम्हों की कतरनों से कैसे एक समंदर बुना जाता है? पुतलियों के धागों को जोड़कर किस तरह एक तस्वीर मुक़्क़मल की जाती है? सन्नाटे के टुकड़ों को एक साथ रखकर कैसे आवाज़ रफ़ू की जाती है? याद शहर की कहानियाँ इसका ताज़ा और बेहतर नमूना पेश करती हैं। नीलेश ने यह काम बखूबी किया है। इन कहानियों को पढ़ते हुए महसूस होता है कि कहानी अपने परम्परागत ढाँचे से बाहर निकल आई है। जिस कसौटी पर हम पहले कहानियों को आज़माते थे, वो कसौटी अब किसी काम की नहीं रह गई है। हमें इन कहानियों को परखने के लिए नए पैमाने तलाश करने होंगें। ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में सरहदों का अतिक्रमण हो चुका है। कहानी अपने मेयार से बहुत दूर आ गई है। बने-बनाए अकादमिक पगडंडियों पर चलने से कुछ भी सार्थक हाथ नहीं आने वाला। अगर आप इन कहानियों को समझना चाहते हैं, तो आपको नए रास्ते खोजने होंगे। और ये नया रास्ता बहुत आसान है, क्योंकि ये साहित्यक होते हुए साहित्यिक दायरे से बाहर है।
‘याद शहर-1’ की शुरुआती कहानियाँ जैसे दीवाली की रात, छह फेरे-1, रन आउट से लेकर आख़िरी कहानी छह फेरे-2 तक एक बात जो ध्यान आकर्षित करती है, वो ये कि सभी कहानियों के हिस्से हमारी ज़िंदगी के भी हिस्से रहे हैं। चाहे उनके चेहरे की बनावट अलग-अलग ही क्यों न हो? जब यही कहानी नीलेश रेडियो पर सुनाते हैं, तो उनके सुनने वालों की ज़िंदगी में या उनके आसपास ये कहानियाँ घटित होती हुई नज़र आती हैं। ये कहानियाँ ज़िंदगी की नदी में उम्र की कश्ती बनकर मौजूद होती हैं, जो किसी न किसी किनारे तक पहुंचाने का वादा ज़रूर करती हैं। वादा, जो जलती हुई गर्म दोपहरी में एक गीली बूँद किसी प्यासे के सूखते गले के साथ करती है। वादा, जो शाम का डूबता हुआ सूरज अनकहे इशारों में आने वाली सुबह के साथ करता है। कहानियों में बिछुड़े हुए रिश्ते ऐसे दोबारा से अपनी आँखें खोल देते हैं, जैसे तलुओं में सिमटा हुआ साया छुपकर आईने में अपनी शक्ल देखता है। जैसे, पानी में कोई मछली उभर कर डूब जाए, उसी तरह बहते हुए वक़्त में ये कहानियाँ हमारे ज़ेहन में कौंध जाती हैं।
ये नए समय की नई कहानी है। इसकी न सिर्फ़ बनावट अलग है बल्कि बुनावट भी। चुँकि ये कहानियाँ रेडियो पर सुनाने के ख़याल से लिखी गई हैं, इसीलिए इसमें फ़ॉर्म को लेकर एक बंदिश भी है। यानी ऐसे शब्दों का प्रयोग जानबूझ कर किया गया है कि आप सुनते समय एक तस्वीर बना सकें। बिल्कुल ही आम बोल-चाल की भाषा में लिखी गई ये कहानियाँ आपको न तो बोर करती हैं, नहीं आपसे ज़्यादा समय की माँग करती हैं। इन कहानियों को रेडियो कहानी कहा जाना चाहिए। आप इसे चाय बनाते हुए या सब्ज़ी पकाते हुए भी सुन/पढ़ सकते हैं। इनमें रिश्तों की कई परतें हैं, जो जाने-अनजाने बढ़ती हुई उम्र के साथ हमारी पलकों से चिपक जाती हैं। जब ये रिश्ते आँख की धीमी आँच पर पकने-पिघलने लगते हैं, तो हमें तकलीफ़ भी होती है और एक मीठे दर्द का एहसास भी होता है। एक कहानी में नीलेश लिखते हैं, “दुनिया के सबसे ख़ूबसूरत रिश्ते अक्सर इसलिए टूट जाते हैं क्योंकि हमें जिनसे शिकायत होती है, हम उनकी बात कभी सुनना ही नहीं चाहते और ये आधी-आधी नफ़रतें रिश्तों को पूरा मार देती हैं।”
‘याद शहर-2’ में जो कहानियाँ शामिल हैं, उनमें ‘फ़्रैंड रिक्वेस्ट’ और ‘क़िस्सा-ए-फेसबुक’ बिल्कुल नई तरह की कहानी है। क्योंकि इनका विषय भी नया है और अंदाज़-ए-बयां तो अलग है ही। दोनों कहानियों से यह बात ज़ाहिर होती है कि किस तरह रोशनी में डूबा हुआ इंसान भी अपने को अंधेरे में महसूसता है। ‘कॉलेज रोमांस’ ऐसी कहानी है, जो आपके भीतर रोमांस का एक नया भाव पैदा कर देती है। क्योंकि कहानी में मुख्य किरदार इलेक्शन और इश्क़ दोनों में कामयाब नहीं होता और मेरी नज़र में नाकाम होना ही इश्क़ की कामयाबी है। इसीलिए अगर आपने कॉलेज/ज़िंदगी में कभी रोमांस किया हो या न किया हो, तो यह कहानी पढ़ने के बाद आपके दिल के किसी हिस्से में किसी न किसी के लिए रोमांस का तूफ़ान ज़रूर मचलने लगेगा। दिल की दहलीज़ पर क़दम रखने से कतराता हुआ कोई रिश्ता आपकी आगोश में अंगड़ाई लेने लगेगा। आपका दर्द पायल बनकर नाच उठेगा। और बीते हुए दिन कुछ इस तरह आँखों के सामने पसर जाएँगे जैसे किसी तवायफ़ के सूने पाँव की पाज़ेब से ताज़ा-ताज़ा टूटे हुए घुँधरू हों। ये कहानियाँ एक नए क्षितिज को जन्म देती हैं, जहाँ ज़मीन और आसमान के दो नहीं रह जाने का गुमान होता है। जहाँ, ‘याद शहर’ और ‘आज शहर’ एक-सा हो जाता है। जहाँ, याद अपने आज पर इतना हावी हो जाता है कि उन्हें समेटने के लिए हमारी आँखों का रेगिस्तान भी कम लगने लगता है।
कहा जा सकता है कि मुश्किल-सी बातों को बड़ी आसानी से कह देने वाले नीलेश एक ऐसी स्थिति से गुज़र रहे हैं, जहाँ उन्हें कहानी गढ़ते हुए न सिर्फ़ रेडियो के श्रोताओं का खयाल है, बल्कि अपने चारों तरफ़ के बदलते माहौल और भाषा का भी ध्यान है। वो हवा में उड़ती ख़ुश्बू को माचिस की डिब्बी में समेटना भी चाहते हैं और चाँद से ख़ुशबू निचोड़ने का हुनर भी रखते हैं। उनके ज़ेहन में जो कुछ भी आता है, वो बयान करते हैं। वो बड़े शहरों में पिसते हुए रिश्तों को भी महसूस करते हैं और छोटे शहरों में फैली हुई माज़ी की ज़ड़ों को भी तलाशते हैं। नीलेश की नज़र बार-बार मुड़ती है, फिसलती है, टूटती है और टूट कर कुछ नया लिखने पर मजबूर करती है। यादों के दरख़्तों से टूटते अक्षर जमा होते-होते एक सैलाब में बदल जाते हैं और सैलाब कहानी की शक्ल इख़्तियार करने लगता है। आख़िर में—“दफ़्फ़तन पूछता हूँ मौत क्यूँ नहीं आती / दिल ये कहता है कोई ‘याद शहर’ बाक़ी है।”
याद शहर- 1&2
लेखक- नीलेश मिश्रा
प्रकाशक- वैस्टलैंड/यात्रा बुक्स
क़ीमत-175 रु.
लेखक- नीलेश मिश्रा
प्रकाशक- वैस्टलैंड/यात्रा बुक्स
क़ीमत-175 रु.
मेरे ख़याल से कुछ किताबें ऐसी भी होती हैं, जो इन श्रेणियों में नहीं समातीं। कुछ किताबें सीने से लगाने के लिए भी होती हैं। ऐसी ही एक किताब हाल में प्रकाशित हुई है।…..मैंने किताब को नहीं पढ़ा पर त्रिपुरारी की समीक्षा इतनी रोचक बन पड़ी है कि पढने की उत्सुकता बढ़ गयी है….साधुवाद