Home / ब्लॉग / मुझे पागल तो नहीं कहोगी न?

मुझे पागल तो नहीं कहोगी न?

आज लाल्टू की कविताएँ. वे हमारे दौर के ऐसे कवि हैं जो बेहद ख़ामोशी से सृजनरत रहते हैं. प्रतिबद्ध हैं लेकिन अपनी प्रतिबद्धता का नगाड़ा नहीं पीटते. एक विनम्र कवि की कुछ चुनी हुई कविताएँ आज आपके लिए- जानकी पुल.
======= 
क कथा
क कवित्त 
क कुत्ता 
 कंकड़ 
क कुकुरमुत्ता. 

कल भी क था 
क कल होगा.

क क्या था 
क क्या होगा.

कोमल ? कर्कश ?

(पश्यन्ती – 2003 )
ख खेलें
खराब ख
ख खुले
खेले राजा
खाएँ खाजा.

खराब ख
की खटिया खड़ी
खिटपिट हर ओर
खड़िया की चाक
खेमे रही बाँट.

खैर खैर
दिन खैर
शब ब खैर.

(पश्यन्ती – 2003)


मैं तुमसे क्या ले सकता हूँ?
मैं तुमसे क्या ले सकता हूँ?
अगर ऐसा पूछो तो मैं क्या कहूँगा.
बीता हुआ वक्त तुमसे ले सकता हूँ क्या?
शायद ढलती शाम तुम्हारे साथ बैठने का सुख ले सकता हूँ.
या जब थका हुआ हूँ, तुम्हारा कहना,
तुम तो बिल्कुल थके नहीं हो, मुझे मिल सकता है.

तुम्हें मुझसे क्या मिल सकता है?
मेरी दाढ़ी किसी काम की नहीं.
तुम इससे आतंकित होती हो.
शायद असहाय लोगों के साथ जब तुम खड़ी होती हो, साथ में मेरा साथ तुम्हें मिल सकता है.
बाकी बस हँसीमज़ाक, कभीकभी थोड़ा उजड्डपना, यह सब ऊपरी.

यह जो पत्तों की सरसराहट आ रही है, मुझे किसी की पदचाप लगती है,
मुझे पागल तो नहीं कहोगी न?

(2005) 

छुट्टी का दिन
गर्म दाल चावल खाने की प्रबल इच्छा उँगलियों से चलकर होंठों से होती हुई शरीर के सभी तंत्रों में फैलती है।
यह उसकी मौत का दिन है।
एक साधारण दिन
जब खिड़की से कहीं बाल्टी में पानी भरे जाने की आवाज आ रही है।
सड़क पर गाड़ियों की तादाद और दिनों से कम है
कि याद आ जाए यह छुट्टी का दिन है।
(रविवार डॉट कॉम : 2010)

अखबार नहीं पढ़ा

अखबार नहीं पढ़ा तो लगता है
कल प्रधान मंत्री ने हड़ताल की होगी
जीवन और मृत्यु के बारे में सोचते हैं जैसे हम
क्या प्रधानमंत्री को इस तरह सोचने की छूट है
क्या वह भी ढूँढ सकता है बरगद की छाँह
बच्चों की किलकारियाँ
एक औरत की छुअन
अगर सचमुच कल वह हड़ताल पर था
तो क्या किया उसने दिनभर
ढाबे में चल कर चाय कचौड़ी ली
या धक्कमधक्का करते हुए सामने की सीट पर बैठ
लेटेस्ट रीलीज़ हुई फिल्म देखी
वैसे उम्र ज्यादा होने से संभव है कि ऐसा कुछ भी नहीं किया
घर पर ही बैठा होगा या सैर भी की हो तो कहीं बगीचे में
बहुत संभव है कि
उसने कविताएँ पढ़ीं हों
कल दिन भर प्रधान मंत्री ने कविताएँ पढ़ीं होंगी।
(शब्द संगत : 2009)

मैं किस को क्या सलाह दूँ

मैं किस को क्या सलाह दूँ
कि समस्याएँ सुलझती कैसे हैं
मैं खुद को ही नहीं समझा पाया
कि आदमी को आदमी कहलाने के लिए
चढ़ना पड़ता है पहाड़ अक्सर
ऊँचाई से कुछ न कहने
पर भी लोग सुन लेते हैं
क्योंकि दिख जाती है आवाज।
नीचे रहकर इंतज़ार करना पड़ता है
कि भट्ठियों की दीवारें फट जाएँ
विस्फोट की लपटें दिखती हैं तब
आदमी की आवाज के साथ
मैं ज़मीं पर खड़ा आदमी
आदमी को पहचानने की मुहिम में
सबको शामिल करने निकला हूँ
खुली ट्रेन चलती चली
धीरे से या छलाँग लगाकर तरीके हैं कई
चढ़ने के
मैं तो फिलहाल कविताएँ लिखता हूँ।
(2006)


आखिरी धूप
अब थोड़ी देर धूप रहेगी।
बातचीत का यह आखिरी दौर है। कुछ लोग चले गए हैं। खाली कुर्सियों पर थोड़ी देर पहले तक बैठे उनके विचार अब धूप की रोशनी में हैं।
जब रोशनी न होगी तब वे अँधेरे में होंगे। ये कुर्सियाँ होंगीं, कुर्सियों पर वे विचार होंगे। हर शरीर को सोचने के लिए एक विचार सोचना होगा।
आखिरी दौर में आखिरी धूप है।
                                                                                                          
जिज्ञासु
बहुत सारे खयाल एक साथ ज़ेहन में आते हैं
बहुत सारे न्यायअन्याय एक साथ पेश होते हैं
बहुत सारे लोग हैं बहुत सारी नाराज़गियाँ जताते
बहुत सारी बातें हैं जो लिखी जानी हैं पर लिखी नहीं जातीं
आतंकित नहीं महज जिज्ञासु हूँ
कि जानने को निकला है जो
क्या वह मैं ही हूँ
जो जानना चाहता हूँ
क्या वो मेरे सवाल हैं
जैसे घबराता हूँ
भीड़ गंदगी से
क्या यह घबराहट मेरी है
क्या मैं भीड़ से घबराता हूँ
भीड़ जो
अनंत पीड़ाएँ अनदेखा करते हुए
उदासीन दोलती है।
बहुतायत की खासियत यह है कि
और बहुत सारी बातें छूट जाती हैं
तेज गति से एंट्रापी बढ़ती है
 
      

About Prabhat Ranjan

Check Also

तन्हाई का अंधा शिगाफ़ : भाग-10 अंतिम

आप पढ़ रहे हैं तन्हाई का अंधा शिगाफ़। मीना कुमारी की ज़िंदगी, काम और हादसात …

3 comments

  1. Bahut shaandaar Laaltoo jee. Abhaar Prabhaat jee.'

  2. गहरी संवेदना की बेजोड़ कवितायेँ ,स्वयं को कहीं गहरे से जोड़ देतीं हैं ….लाल्टू की इन कविताओं के लिए आभार प्रभात जी ।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *