कवि-लेखक प्रेमचंद गाँधी ने अपने इस लेख में यह सवाल उठाया है कि लेखिकाएं साहित्य में अपने प्रेम साहित्य के आलंबन का नाम क्यों नहीं लेती हैं? एक विचारोत्तेजक लेख- जानकी पुल.
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मीरा ने जब पांच शताब्दी पहले अपने प्रेमी यानी कृष्ण का नाम पुकारा था तो वह संभवत: भारत की पहली कवयित्री थी, जिसने ढोल बजाकर अपने प्रेमी के नाम की घोषणा की, उसके साथ ब्याह रचाने की बात कही, फिर वह प्रेमी चाहे भगवान ही क्यों न हो। एक स्त्री अपने समय के सत्ता केंद्रों से टकराती है और कविता में खुद के साथ अपने प्रिय को अमरता का ऐसा वरदान दे जाती है कि तमाम धर्मग्रंथ उसके सामने बौने लगते हैं। यह है एक स्त्री की और उसकी कविता की ताकत, कि जब भी कृष्ण का नाम आएगा तो मीरा को भी याद किया जाएगा। जमाना बदला, सदियां बीतीं, स्वाधीनता और स्त्रीमुक्ति के आंदोलन चले, लेखिकाओं की कई पीढि़यां आगे आईं, लेकिन कविता या साहित्य में अपने प्रिय का नाम लेने की जब भी बात आई तो राधा, कृष्ण और देवी-देवता तो आए लेकिन उस वास्तविक इंसान का नाम कभी सामने नहीं आया, जिसके लिए या कि जिसे संबोधित कर कविता लिखी गई। उर्दू शायरी में उसे महबूबा, जानेजां और महबूब कहा गया तो हिंदी साहित्य में प्रिय, सखा, प्रिये, सखी और प्रियतम कहकर काम चलाया गया।
भक्ति और अर्चना में अपने पूज्य देवी-देवताओं को संबोधित कर यूं तो विपुल साहित्य रचा गया है, लेकिन आधुनिक साहित्य में और खास तौर पर कविता में अपने प्रिय का ऐसा स्मरण कम से कम हिंदी या भारतीय साहित्य में दुर्लभ है। कहानी और उपन्यास में ऐसे प्रिय पात्रों को आधार बनाकर तो गल्प रचा गया है, लेकिन उसे महज कल्पना और संयोग कहकर भी काम चलाया जा सकता है। महिलाओं से इतर पुरुषों में कुछ कवियों ने ज़रूर अपनी प्रेरणा, प्रेमिका या महिला मित्र को संबोधित कर कविताएं लिखीं और ऐसी कविताएं बहुत मकबूल भी हुईं। बांग्ला के प्रसिद्ध कवि जीवनानंद दास ने आजादी से पहले अपनी एक कविता में ‘वनलता सेन’ के रूप में एक ऐसी शांतिदायिनी युवती को रचा है जो कवि को कहीं मिली थी। ‘चारों ओर बिछा जीवन के ही समुद्र का फेन / शांति किसी ने दी तो वह थी वनलता सेन।‘ यही वनलता सेन आगे चलकर आलोक श्रीवास्तव से लेकर अनेक कवियों के यहां विचरण करती नज़र आती है। चर्चित कवि सुधीर सक्सेना के यहां तो एक पूरा संग्रह ‘किताबें दीवार नहीं होतीं’ विभिन्न व्यक्तियों पर लिखी कविताओं का है, जिनमें परिजन और पुरुष-महिला मित्रों पर भी अच्छी संख्या में कविताएं मौजूद हैं। इसी प्रकार सवाई सिंह शेखावत के यहां भी ‘मुश्किल दिनों में अच्छी कविताएं’ संग्रह में अनेक मित्रों को लेकर कविताएं हैं।
ओडिया की मशहूर कथाकार सरोजिनी साहू के अनुसार ओडि़या साहित्य में अलका सान्याल नाम की मशहूर पात्र है जिसे सबसे पहले शची राउतराय ने रचा और बाद में गुरु प्रसाद ने अपनी कविताओं में उसे अमर कर दिया। हिंदी में अपनी किस्म के अनूठे कवि ज्ञानेंद्रपति की कविता में चेतना पारीक अपने समूचे व्यक्तित्व के साथ ऐसे उभरकर आती है कि वह हिंदी की सबसे प्रसिद्ध काव्यनायिका मानी जा सकती है। ‘चेतना पारीक कैसी हो? / पहले जैसी हो ?/ कुछ-कुछ खुश / कुछ-कुछ उदास / कभी देखती तारे/ कभी देखती घास / चेतना पारीक, कैसी दिखती हो ?/ अब भी कविता लिखती हो?’ हिंदी में ही कुमार विकल के यहां जीती-जागती निरुपमा दत्त हैं, जो कवि की मित्र और प्रखर लेखक-पत्रकार के रूप में आज पूरे हिंदी संसार में पहचानी जाती हैं। कुमार विकल के यहां तो एक संग्रह ही है ‘निरुपमा दत्त मैं बहुत उदास हूं।‘
रूसी साहित्य में ऐसी ही महान कवयित्री हुईं मारीना त्स्वेतायेवा, जिन्होंने अपने समकालीन और वरिष्ठ कवि अलेक्सांद्र ब्लोक को संबोधित कर विश्व साहित्य की महानतम कविताएं रचीं। मारीना ने लिखा, ‘तुम्हारा नाम… उफ क्या कहूं / जैसे चुंबन कोमल कोहरे का / सहमी आंखों और पलकों पर।‘ वैसे मारीना ने अपने पति सेर्गेई एफ्रोन, युवा कवि ग्रोन्सकी और बोरिस पास्तरनाक को भी संबोधित कर कविताएं लिखीं, लेकिन ब्लोक के लिए लिखी कविताएं बेहद चर्चित हुईं।
लेकिन हमारे यहां भारतीय साहित्य में ऐसे दो उदाहरण हैं। एक हैं मलयाली में कमला दास, जिनकी 1975 में प्रकाशित हुई आत्मकथा ‘माय स्टोरी’, जिसमें परिवार से बाहर एक विवाहित स्त्री अपने मन का प्रेम खोजने निकलती है। यह अपने समय की बेहद साहसिक पुस्तक थी। उधर पंजाबी में अकेली अमृता प्रीतम हैं, जिन्होंने साहिर लुधियानवी को अपनी आत्मकथा और कविताओं में बड़ी शिद्दत से याद किया है। अमृता प्रीतम ने तो अपने पूर्वज वारिस शाह को भी जब याद किया तो वह पंजाबी ही नहीं भारतीय साहित्य की अमर कविता हो गई। इसके अलावा उनके आजीवन मित्र इमरोज तो उनकी कविता में हैं ही अपनी पूरी गरिमा के साथ। पंजाबी में ही बड़े कवि सतिंदर नूर की कविताओं में लाहौर की शाइस्ता आती है, एक अच्छी काव्यप्रेमी दोस्त की तरह। हिंदी और पंजाबी की युवा कवयित्री हरप्रीत कौर सतिंदर नूर को संबोधित कर कविता लिखती है। यूं पंजाबी और हिंदी में भगत सिंह और पाश को संबोधित कविताएं तो बहुत लिखी गई हैं, लेकिन वे सब एक प्रेरक व्यक्तित्व के प्रति श्रद्धा अर्पित करने या प्रेरणा ग्रहण करने के लिए हैं।
यूं मैत्रेयी पुष्पा, कृष्णा अग्निहोत्री और कई वरिष्ठ लेखिकाओं की ऐसी आत्मकथात्मक कृतियां हैं, जिनमें इस किस्म की साहसिकता देखने को मिलती है। इधर पिछले कुछ सालों में महिला रचनाकारों की बहुत तेज़ी से साहित्य में आमद हुई है और पत्र-पत्रिकाओं के साथ ब्लॉग-फेसबुक और वेब पत्रिकाओं ने स्त्री रचनाशीलता को बेहद मुखर भी किया है। कविता का सनातन विषय ‘प्रेम’ अपने विविध रूपों में इस नए जमाने की महिलाओं की रचनाओं में नित नूतन तरीकों में अभिव्यक्त हो रहा है तो अब तक वर्जित समझे जाने वाले अनेक विषयों पर भी कविताएं लिखी जाने लगी हैं। लेकिन सारी आधुनिकता और बिंदासपन के बावजूद मीरा जैसा दुस्साहसी जयघोष तो छोडि़ए अपने मित्र, प्रेमी या कि प्रेरक का नाम तक नहीं मिलता। हमारे यहां जिस तरह की पितृसत्तात्मक सामाजिक और मानसिक संरचना है, वह महिलाओं को ही नहीं पुरुषों को भी अपने प्रिय पात्र का नाम रचनाओं में लेने से रोकती है। इस पर मराठी लेखिका शशि डम्भारे कहती हैं कि बदनामी और परिवार टूटने का भय महिलाओं को ऐसा साहस नहीं करने देता। हिंदी की प्रसिद्ध कथाकार मनीषा कुलश्रेष्ठ कहती हैं कि अब कवयित्रियों के यहां भी तुम की जगह नामों को स्वीकृति मिले तो हवा बदले। … और जिस तरह से नई पीढ़ी की लेखिकाएं बिंदास अंदाज में तमाम विषयों पर कलम चला रही हैं, उससे उम्मीद जागती है कि जल्द ही मीरा की परंपरा में सब एक साथ कह सकेंगी कि ‘लियो री बजंता ढोल।‘
‘बिंदिया’ से साभार
…बहुत अच्छा लेख। बधाई ।
जब एक प्रेम कविता पाठकों तक पहुंचती है तब प्रिय पात्र का नाम विशेष गौण होता है. कविता में व्यक्त भाव जिसके साथ सब जुड सके तभी कविता मन्में बसती है. कवियत्रिके प्रिय पात्र से कविता एक दायरे में बंद -कैद हो जायेगी..जिसमें पाठक को कोइ रुचि नही होगी. जैसे शादी के आल्बम में लोगों को कोइ दिलचस्पी नही होती .. सिवाय कुछ तसवीरें जिसमें देखनेवाले खुद हो..
मीरा का कृष्ण के नाम अपनी रचनामें ढोल बजाना भी पसंद इस्लिये किया गया की यह एक प्रतीक है मीरा की अपनी खोज का.. अपने स्वैर विहारका .. कृष्ण जो आत्मा का, अध्यात्म का प्रतीक माना गया है..
गांधी जी सवाल तो वाज़िब है और आपका तार्किक आकलन भी महत्त्वपूर्ण है लेकिन हमारा भारतीय लेखकीय समाज जिस पारिवारिक संरचना से आता है उसे देखते हुए यह दूर की कौड़ी लगती है क्योंकि आपने सही कहा,’हमारे यहां जिस तरह की पितृसत्तात्मक सामाजिक और मानसिक संरचना है, वह महिलाओं को ही नहीं पुरुषों को भी अपने प्रिय पात्र का नाम रचनाओं में लेने से रोकती है।’ यह हौसले और वास्तविकता में वृहत सोच की बात है जो तमाम आधुनिक औज़ारों के बावजूद अभी भी परंपराओं और रुढियों के मकड़जाल में जकड़ी है और लेखक/लेखिका भी उससे अछूते नहीं। हमारे यहां तो कुछ न होने पर भी बहुत कुछ गढ लिया जाता है…
सवाल वाजिब भी है और जरूरी भी । संबोधित प्रिय-पात्र का अमूर्तिकरण एक ऎसी चोरी है जो कहीं न कहीं कविता को भी कमजोर करती है और यह इधर आई कविताओं में साफ़ दिखाई भी देता है । इस तरह की साहसहीनता अन्य विषयों के चयन और उन पर लिखी कविताओं में भी घुसपैठ कर सकती है । ……बहुत अच्छा लेख। प्रेम जी को बधाई ।