प्रसिद्ध आलोचक सुधीश पचौरी ने इस व्यंग्य लेख में हिंदी आलोचना की(जिसे मनोहर श्याम जोशी ने अपने उपन्यास ‘कुरु कुरु स्वाहा’ में खलीक नामक पात्र के मुंह से ‘आलू-चना’ कहलवाया है) अच्छी पोल-पट्टी खोली है. वास्तव में रचनात्मक साहित्य की जमीन इतनी बदल चुकी है कि हिंदी आलोचना की जमीन ही खिसक चुकी है. आलोचक न कुछ नया कहना चाहते हैं न कुछ नया देखना चाहते हैं. कुल मिलाकर अध्यापकों का अध्यापकों के लिए विमर्श बन कर रह गई आलोचना. बहरहाल, जिन्होंने आज ‘दैनिक हिन्दुस्तन’ में सुधीश पचौरी का यह लेख न पढ़ा हो उनके लिए- जानकी पुल.
=====================================
इसे मेरी दुष्ट-बुद्धि की बदमाशी न मानें, बल्कि मेरी पवित्र खोज मानें कि मैंने इस महीने आई हिंदी की तीन लघु लोल पत्रिकाओं में छपी समीक्षाओं में एक शब्द 15 बार ‘रिपीट’ होते देखा। यह परम पद है: ‘टकराना।’ ‘टकराने’ के अनेक संस्करण हैं। कहीं ‘टकराते हैं।’ कहीं ‘टकराती हैं।’ ‘टकराए हैं’ इत्यादि। इस किस्म के प्रयोग से मुझे कुल मिलाकर 11 बार ‘टकराना’ पड़ा।
भाषा के नए पंडित मानते हैं कि अगर किसी रचना में कोई पद बार बार रिपीट हो, तो समझिए कि वह पद उस लेखक के लेखन की कुंजी है। छायावादी कविता में ‘पीड़ा’, ‘दुख’ के साथ ‘मधु’, ‘मधुर’, ‘मदिरा’ जैसे शब्द बार-बार पढ़ने पड़ते थे। बाद की कविता में ‘कलगी’, ‘तुर्रा’, ‘मैं’, ‘तुम’, ‘आम’, ‘आम आदमी’, ‘जन’, ‘जनता’ ‘लोग’, ‘अकेला’, ‘अकेलापन’, ‘कुंठा’ आदि बार-बार पढ़ने को मिलते रहे। इन दिनों ‘टकराना’ मूलक क्रिया पद विविध रूपों में पढ़ने को मिलता है।
जैसे- एक काव्यसंग्रह के समीक्षक ने लिखा: ‘इनकी कविताएं अपने समय और समाज से ‘टकराती’ हैं। वह अपने समय की चुनौतियों से लगातार ‘टकराए’ हैं’। एक दूसरे समीक्षक ने लिखा: ‘उनकी ये कहानियां यथार्थ से ‘टकराती हैं।’हिंदी में ‘टकराने’ की ऐसी ‘प्रीतिकर’ लोकप्रियता को देखकर लगता है कि इन दिनों हमारा साहित्य हर समय हर बात से हर दिशा में टकरा रहा है। साहित्य एक टक्कर है। एक्सीडेंट है।
लेकिन विचित्र किंतु सत्य यह है कि टकराते रहने के बावजूद साहित्य की बॉडी पर एक खरोंच तक नहीं दिखती। टक्कर के कुछ अनिवार्य परिणाम होते हैं। जब दो टकराते हैं, तो चोटिल भी होते हैं। टकराने के बाद पुलिस आती है। केस बनते है। बॉडी ‘रिपेअर’ को जाती हैं। जेबें ढीली होती हैं। टक्कर बीमा होते हैं। यह सब सड़क का यथार्थ है। सड़क साहित्य है। तभी वहां लिखा रहता है कि ‘तीव्रगति से वाहन न चलाएं’, ‘एक घंटे में 40 या 60 किलोमीटर रफ्तार से चलें। ’या कि ‘सावधानी हटी दुर्घटना घटी।’ साहित्य की सड़क पर ऐसा नहीं लिखा रहता। वहां बिना लाइसेंस वाला भी नई गाड़ी को सौ किलोमीटर की रफ्तार से दौड़ाकर दो-चार को कुचलता रहता है। साहित्य की गड्डी अनाड़ी हाथों में पड़कर हमेशा एक्सीडेंटल होती है।
हर टकराने वाले को चोटें लगती हैं। कुछ-न-कुछ टूटता-फूटता है। कार का ही नहीं, कार में बैठे लोगों की बॉडी का भी डेंटिंग-पेंटिंग कराना पड़ता है। सड़क की टक्कर के बाद केस, पुलिस, कोर्ट-कचहरी होने लगती है। साहित्य के ‘टकराने’ से यह पता पता नहीं चलता कि कौन, कब, किससे, क्यों टकराया, क्या टूटा-फूटा? केस क्या बना? क्या स्पीड ज्यादा थी? क्या साहित्य आउट ऑफ कंट्रोल हो गया था? क्या साहित्य के ब्रेक फेल हो गए थे? क्या कुत्ते को बचाते हुए आप फुटपाथ पर चढ़ गए थे? कितनों को कुचला? आप नशे में थे? क्या साहित्य की सेल्फ ड्राइविंग करते थे या आपका ड्राइवर चला रहा था? रात के कितने बजे थे? साहित्य के किस अंधेरिया मोड़ से लौट रहे थे? हिंदी साहित्य में ‘टकराने’ की लोकप्रियता का हमारे जीवन में तरह-तरह की कारों की लोकप्रियता से सीधा संबंध दिखता है। इसे हम साहित्य में ‘मारुति सेंट्रो होंडा’ फैक्टर कह सकते हैं। साहित्य के उदारीकरण की एक रचनात्मक विधा है: एक्सीडेंट!
=============
यूं यह रोचक है और अध्यापकों की कूढ़मगजी का अच्छा मखौल बनाती है लेकिन लिखे जा रहे की प्रवृत्ति और उसकी अंदरूनी बुनावट के हिसाब से एकदम बकवास टिप्पणी है । हर बात का मखौल एक जोकर ही उड़ा सकता है और उसका आनंद तमाशाई ही उठा सकते हैं । ज़रूरत है ऐसी टिप्पणियों की चापलूसात्मक वाहवाही के निषेध की । देखने की बात यह है कि हमारी वर्तमान साहित्यिक पीढ़ी कहाँ से रेगुलेट हो रही है और उसके खतरे क्या हैं । अगर उन चीजों से टकराने की प्रक्रिया में वह थोड़ा-बहुत आपस में भी टकरा रही है तो इसे सकारात्मक ऊर्जा के रूप में देखा जाना चाहिए । यह मुर्दा समाज में संभव नहीं होता ।
यूं यह रोचक है और अध्यापकों की कूढ़मगजी का अच्छा मखौल बनाती है लेकिन लिखे जा रहे की प्रवृत्ति और उसकी अंदरूनी बुनावट के हिसाब से एकदम बकवास टिप्पणी है । हर बात का मखौल एक जोकर ही उड़ा सकता है और उसका आनंद तमाशाई ही उठा सकते हैं । ज़रूरत है ऐसी टिप्पणियों की चापलूसात्मक वाहवाही के निषेध की । देखने की बात यह है कि हमारी वर्तमान साहित्यिक पीढ़ी कहाँ से रेगुलेट हो रही है और उसके खतरे क्या हैं । अगर उन चीजों से टकराने की प्रक्रिया में वह थोड़ा-बहुत आपस में भी टकरा रही है तो इसे सकारात्मक ऊर्जा के रूप में देखा जाना चाहिए । यह मुर्दा समाज में संभव नहीं होता ।
sudhish ji ka takkar behad tagra hota hai. lets see agla takkar kahan dekhne ko milta hai
kaushlendra prapanna
बहुत टकराव है भाई…टकरा टकरा का मारा है….
सुधीश सर आपने बहुत जोर से टक्कर मारी है। बल्लीमारां से दरीबे तलक सब घायल हो गये हैं।
शोभित जायसवाल
kavi samay aur uski prasidhiyan..