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निलय उपाध्याय की कहानी ‘खटमल’

निलय उपाध्याय को हम सब एक बेहतरीन कवि के रूप में जानते हैं, लेकिन वे एक शानदार गद्यकार हैं. औपन्यासिक संवेदना के लेखक, जिनके पास अनुभव की अकूत सम्पदा है. आज उनकी एक ताजा कहानी आपके लिए- जानकी पुल.
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सुबह सुबह मनबोध बाबू को लगा जैसे उनकी देह पर हजारो हजार चीटियां रेंग रही है और  न दिखने वाली उनके पावों की सूईयां उनकी चमडी पर चुभ रही है।हडबडा कर बिस्तर से उठे, देखा तो देह पर कहीं कुछ नहीं था। हाथ से सहला कर टटोला , कहीं कुछ नहीं मिला मगर हल्की चुभन अब भी महसूस हो रही थी। इसका मतलब क्या हो सकता है। चींटियां जरूर उनकी चमडी के भीतर समा गई है जिसे महसूस तो किया जा सकता है,देखा नहीं जा सकता।
इसकी शुरूआत कई साल पहले हुई थी जब वे बस से यात्रा कर रहे थे। उनकी बस एक टोल नाके पर रूकी। खलासी ने डेढ सौ रूपए दिए,रसीद ली तब बस आगे बढी। यह देख मनबोध बाबू के मुंह से अनायास ही निकल गया-बाप रे, बस वाले का सारा पैसा तो टोल नाके वाले ले लेंगे।
बगल में बैठे आदमी ने कहा-बस वाले का क्या जाता है. पैसा तो हमारा है ना। सरकार और बस वाले मिलकर हमें ही लूट रहे है।
मनबोध बाबू सब कुछ समझ गए। मन ही मन हिसाब लगाया। अभी पचास लोग थे बस में, यानी उन डेढ सौ रूपयों मे तीन रूपया उनका भी है।
यह सोंच कर उनका मन रूंआसा हो गया।
उसके बाद पूरी राह में जितने टोल नाके आए मनबोध बाबू को लगता कि खलासी के दिए जा रहे उन रूपयो में उनका भी रूपया शामिल है और ठ्गा सा महसूस करते। पहली बार वहीं पर देखा कि एक चींटी उनकी देह पर रेंग रही है। थोडी देर बाद वह चीटी जाने कहां गायब हो गई और उन्हे लगा जैसे अपना पांव चुभाते हुए चमडी के भीतर कही चल रही है। तब से घर बाजार दफ़्तर और जाने कितनी जगहों पर ,जाने कितनी बार वे अपने शरीर पर जाने कितनी चीटियों के पांव की चुभन महसूस कर चुके है।
कहा जाता है कि चींटियों में कुछ ग्रंथियाँ होती हैं जिनसे रसायन निकलते हैं. इन्हीं के ज़रिए वो एक दूसरे के संपर्क में रहती हैं.रानी चींटी भोजन की तलाश में निकलती है तो रसायन छोड़ती जाती है. दूसरी चीटियाँ अपने ऐंटिना से उसे सूंघती हुई रानी चींटी के पीछे-पीछे चली जाती हैं. मनबोध बाबू को संदेह था कि बस यात्रा के दौरान जो चींटी उनकी देह पर दिखी थी वह रानी चीटी थी जो निरंतर रसायन छोड रही है और बाकी दूसरी चीटियां उसका रसायन सूंघ कर उनकी चमडी के भीतर पीछे चली आई हैं.
चींटियो के बारे में बचपन में उनका बहुत नेक खयाल था ।
चींटियां ब्राहमण होती है। आटा में चीनी मिलाकर उन्हे हर शनिवार को खिलाया जाय तो मंगल जैसे खतरनाक ग्रह का कोप मिट जाता है। उनकी यह धारणा पहली बार तब टूटी थी जब उन्होने देखा कि उनके किचन से चीटियां मांस का बहुत बडा टुकडा लिए जा रही है। गांव के कामता सिंह का हाथी मरा था तो बताया गया कि चीटियो ने उसके कान के भीतर घुस कर काट लिया था। तब से चींटियो के बारे में उनकी धारणा एकदम बदल गई थी और डर लगने लगा था। चीटियों के रेंगने और उनके पांवो के चुभने की यह घटना आज इतनी तीब्रता से हुई थी कि मनबोध बाबू को लग रहा था कि अब उनका कुछ न कुछ इलाज करना ही होगा।
आंख मलने,पानी पीने और चार कदम टहलने के बाद सब कुछ सहज हो गया और मनबोध बाबू भूल गए कि उनके साथ ऎसा कुछ हुआ था । नित्यक्रिया से निपट कर जब चाय पीने बैठे तो शरीर कुछ हल्का लगा, सिर में हल्का चक्कर भी आ रहा था और कमजोरी महसूस हो रही थी।
चाय का कप ले जाने उनकी पत्नी आई तो उनका मन हुआ कि सारा वाकया विस्तार के साथ बताए पर जिस तरह वे जवानी के दिनों में बताया करते थे मगर पत्नी बहुत जल्दी में थी,हिम्मत नही हुई। सोचा कि किसी डाक्टर को चल कर दिखा लें मगर जब तक उनको इस बात पक्का यकीन नहीं हो जाता कि वे चीटियां ही है जो उनके भीतर समा गई है तब तक किसी से कुछ नहीं कहेंगे।पत्नी से भी नहीं, बच्चों से भी नहीं।जो गलती पिछली बार हुई थी उसे फ़िर नहीं दुहराऎगे।
कुछ दिन पहले राह मेंचलते हुए किसी पत्थर से उनको चोट लग गई थी और पैर की उंगली से खून रिसने लगा था। मनबोध बाबू को तो आरंभ से रास्ता देख कर, फ़ूंक फ़ूंक कर चलने की आदत थी और वे तो लगातार देखते हुए भी जा रहे थे। इतना बडा पत्थर था आज उनको कैसे दिखाई नहीं पडा। पहली बार उनके मन में यह सवाल आया कि क्या उनको कम दिखाई दे रहा है ?
इसी तरह एक दिन कहीं जाना था और उनका पर्स कहीं दिखाई नहीं दे रहा था और वे परेशान होकर अपनी पत्नी को लगातार आवाज दे रहे थे। थोडी देर बाद झल्लाई सी पत्नी आई,टेबल पर से उठा हाथ में पर्स थमाते हुए कहा- अंधे हो गए है। सामने पडी चीज दिखाई नहीं देती | इस तरह एक एक कर जब कई घटनाए सामने आ गई तोउन्होंने महसूस किया कि बहुत सारी चीजे उन्हे दिखाई नहीं देती। इसका मतलब अब उम्र असर दिखा रही है। सचमुच उनको कम दिखाई दे रहा है। बहुत विचार करने के बाद यह बात उन्होने अपनी पत्नी से बताई। उनकी पत्नी सुन कर परेशान हो गई कि उनको कम दिखाई दे रहा है।शाम के समय दोनों बेटे जब अपने अपने काम पर से लौट कर घर आए तो उनकी पत्नी ने गम्भीरता से बच्चो को बताया-
पता है,पापा को कम दिखाई दे रहा है?
बच्चे अपने जिस काम में लगे थे पापा को न दिखाई देने से ज्यादा जरूरी थे।सबने सुन लिया और अपने अपने कमरे में चले गए।
उनके बडे बेटे का मानना था कि पापा को बहुत पहले से बहुत कम दिखाई पड रहा है। अगर पापा को आने वाला समय दिखाई पडा होता तो कम से बच्चो के लिए यहां एक फ़्लैट तो ले लिया होता। कितना सस्ता था उस समय। आज कितने सुखी होते वे।पापा ने जीवन भर श्रम किया मगर जब पापा की ख्याति बढने लगी जब असल पैसा कमाने का समय आया सब कुछ छोड दिया। मगर किसी ने कुछ नहीं कहा।
कुछ न कुछ कह कर उनके बच्चों ने जब टालने की कोशिश की,यह बात उनकी पत्नी समझ गई और उसे यह बुरा भी लगा। उनकी पत्नी यह भी जानती थी कि बच्चेइसलिए नहीं टाल रहे कि वे उसे टालना चाहते थे या पापा से प्रेम कम था बलिक इसलिए कि जिस काम में वे इस वक्त लगे थे वे पापा की आंख से ज्यादा जरूरी थे। मगर उनकी पत्नी अच्छी तरह यह भी जानती थी कि अगर मनबोध बाबू को सचमुच कम दिखाई देने लगा तो उनकी मुसीबत कितनी बढ जाएगी। अब उनका भी सारा काम उनको ही करना पडेगा। इसके अलावे वे यह भी कहना शुरू करेंगे कि मोटा मोटा उपन्यास पढ कर सुनाओ। मैं बोलता हूं तुम लिखो।
 रविवार के दिन इतमिनान से बच्चों को उन्होने याद दिलायादेखो ,बचपन में जब तुम लोगों को जरा सी छींक भी आ जाती थी तो पापा शहर के सबसे अच्छे चिकित्सक के पास ले जाते थे और तुम्हारे ठीक होने तक छुट्टी ले लेते थे।तुम लोगों को उनकी बातो पर गौर करना चाहिए।
पता नहीं मम्मी की बातोंका भावनात्मक असर था या मम्मी के रोज की बकबक सुनने से बचने के लिए बडे बेटे ने एक हजार का नोट निकाल कर दिया और कहाहम डाक्टर तो है नहीं, तुम जाकर उनकी जांच करा दो और अगर डाक्टर कहे तो चश्मा खरीदवा देना।
एक हजार का हरा नोट हाथ में आते ही पत्नी खुश हो गई और मनबोध बाबू को ताना देते हुए कहाजवानी के दिनों में जहां तहां नजरे लडाते रहे थे उसी का फ़ल आज मिल रहा है। कराना तो नहीं चाहिए लेकिनचलिए जांच करा देते हैऔर दया भाव से मनबोध बाबू को आटो रिक्शा में बिठाकर शहर के सबसे बडे अस्पताल में ले गई।
अस्पताल में डाक्टर ने जांच के बहाने वहां बहुत कोशिश की कि मनबोध बाबू की आंख में कुछ तो दोष निकल आए ताकि फ़ीस के बाद मंहगे दाम चुका कर लाईसेंस ली गई उसकीनई दुकान का एक चश्मा भी बिक सकेमगर कोई दोष ही नहीं निकला।डाक्टर ने समझाया-
अभी तो आपका सब कुछ ठीक है मगर उम्र बढ रही है आपको एक चश्मा जरूर ले लेना चाहिए ताकि आंखो में जितनी रोशनी है उतनी बनी रहे।
हाथ में पैसा था ही, डाक्टर की बात सुन मनबोध बाबू की पत्नी तैयार हो गई –ठीक है डाक्टर साहब, ले लेते है।
मगर मनबोध बाबू ने इसे स्वीकार नही किया और सख्ती से डाक्टर से कहा  आप इलाज करते है या जीवन बीमा । ऎसे तो जीवन बीमा वाले भय दिखा कर रोजगार करते है। जब आंख की रोशनी कम नहीं हुई है तो चश्मा क्यो?
मनबोध बाबू ने छोटे से भाषण में अपने जीवन के अनुभव का हवाला देकर डाक्टर को समझाया कि संभावित खतरे की आशंका से वे कभी नही डरे और उसके लिए कभी कोई प्रयत्न नहीं किया। उनके सामने जब कोई समस्या आई तब उन्होने डट कर बहादुरी से उसका सामना किया है।
डाक्टर भौचक सा उनका मुंह देखता रह गया।
मनबोध बाबू की पत्नी यह कहते हुए उन्हे घर लेकर आ गई कि डाक्टर साहब , तीस साल का अनुभव है मेरा ,बात में इनसे कोई नहीं जीत सकता।
मनबोध बाबूने एक दिन दोनों बेटों और पत्नी हंस हंस कर बात करते सुना। पापा को जांच करवाने का शौक लग गया है।इलाज के लिए जाने के पहले उन्होने सूई में तागा लगाया था। मनबोध बाबू की पत्नी कहने लगी कि मुंह बिचका बिचका कर नर्सों से बात कर रहे थे।क्या नाम है आपका? अरे इलाज करवाने गए है कि नाम पूछने। मैं उनकी नस पहचानती हूं, वे तो बस ।
मनबोध बाबू को यह सब सुनकर सचमुच बहुत बुरा लगा और उन्होंने तय कर लिया कि अब उनको जब भी कुछ होगा, पहले वे रूक कर,कुछ दिन इंतजार कर वाकई यह समझ लेंगे कि उन्हे कुछ हुआ है तब किसी को बताऎंगे और अगर बहुत ही जरूरी हुआ, तब जांच या इलाज करवाने जाऎगे।
जब तक वे कमाते थे तब तक उनकी पत्नी उनके लिए रोज सुवह एक सेव देती थी। एक दिन एक सेव सडा निकल गया। उनकी पत्नी दुकान दार को देर तक गालियां देती रही और इस तरह सेव बन्द कर दिया,गोया दुकानदार को सजा दे रही हो। अब मनबोध बाबू को अपना ख्याल खुद रखना होगा।कई महीनों से टहलना और प्राणायाम भी छूट गया है कल से वह भी आरम्भ करेंगे और किसी भी डाक्टर के पास जाने से पहले पता करेंगे कि क्या सचमुच वे चिटियां ही है।
अगले दिन सुबह जब मनबोध बाबू की नींद खुली तो विलकुल वैसा ही हुआ जैसा कल सुवह हुआ था। वहीं शरीर पर चीटियो के रेगने सा अहसास और वहीं उनके पांवों की चुभन। चाय पीने बैठे तो फ़िर शरीर में कुछ और कम लगा खून। उनकी चिन्ता बढ गई लेकिन उन्होंने किसी से कुछ नहीं कहा।
तीसरे दिन चौथे दिन और लगातार एक सप्ताह तक जब यूं ही होता रहा तो मनबोध बाबू को लगा कि अब कुछ करना चाहिए और जब उसके लिए कुछ नहीं किया तोअन्दर अन्दर तनाव बढता चला गया ।न तो टहलने के लिए जा सके और न ही प्राणायाम किया। आठवें दिन चाय पीने के बाद जब आईने के सामने बैठ कर खुद को निहारा तो चेहरे का रंग पीला और आंखो के नीचे काला धब्बा सा नजर आया।
यह खून कम होने के कारण तो नही ।
इस बार वे अपने पर नियंत्रण नही रख सके। उन्होने अपनी पत्नी को वहीं से चिल्लाकर बुलाया-सुनती हो
सुवह में आठ बजे तक का समय उनकी पत्नी के लिए बहुत कठिन होते थे।मनबोध बाबू जानते थे कि जब तक बच्चे नाश्ता कर टिफ़िन लेकर काम पर निकल नहीं जाते तब तक पत्नी को बुलाना डांट सुनने की तरह था । मगर उनके भीतर तनाव इस कदर बढ गया था कि बुलाने के अलावे उनके पास कोई चारा न था। उन्हे यकीन था कि उनकी पत्नी आकर जरूर बता देगी कि यह काला धब्बा डिहाईड्रेसन के कारण है या खून की कमी के कारण।
कभी समय था कि उनकी पत्नी उनके शरीर के एक एक अंग का इस तरह ख्याल रखती थी और उसका अपना शरीर हो। वह प्यार से मनबोध बाबू को कोमल बाबू कहती थी। दरअसल मनबोध बाबू की चमडी इतनी कोमल थी कि जरा सी चोट लगने पर वहां का रंग काला हो जाता था और कई दिनो तक काला बना रहता था। जवानी के दिनों में एक बार कहा था मन करता है कि तुम्हे काट कर खा जाऊंऔर सचमुच जोर से काट लिया था। महीनो तक वहां काला धब्बा बना रहा था और पछताते हुए उसकी सेकाई भी करती रही थी। उसके बाद उनके शरीर को जब भी छूती बडे प्यार से जैसे शीशे का बर्तन हो और जरा भी असावधानी पर गिर कर टूट जाने का डर हो।
मनबोध बाबू पत्नी आई तो हडबडी में थी और बडबडा रही थी कि आप दूसरे का कष्ट नहीं समझते। उनके हाथ में आटा लगा था जिसे अभी गूंथना बाकी था। बच्चे जाने के लिए तैयार हो रहे थे।पास आने पर मनबोध बाबू ने जब पत्नी से अपनी आंख के नीचे के काले धब्बे और पीले रंग के बारे में पूछा तो नाराज हो गई जैसे यह गैर जरूरी बात हो। कहा-इसी के लिए बुलाया था। गौर से देखा भी नहीं और कह दिया कि इसे मै कई साल से देख रही हूं यह ऎसा ही था।
कह कर जैसे आई थी चली गई।
मनबोध बाबू ने सुन तो लिया मगर उनको पत्नी की बात पर यकीन नहीं हुआ। पहले की तरह आखों के नीचे के भाग को छूती, थोडा फ़ैला कर देखती और यही बात वैसे कहती जैसे पहले कहती थी तो उनको भरोसा हो जाता। मगर पत्नी को अब फ़ुरसत कहां है उनके लिए। अब तो बेटे और बेटी ही उनके लिए सब कुछ है।मनबोध बाबू को अपना खयाल खुद ही रखना ही पडेगा।
आंखो के नीचे काला पडने का मतलब क्या खून की कमी है?
मनुष्य के शरीर में खून की कमी हो जाने पर कमजोरी, थकावट, शक्तिहीनता और चक्कर आने लगते है। कई बार चमडी पर समय पूर्व  झुर्रियां पड जाती है ,याददाश्त की कमीमामूली काम करने या चलने पर सांस फ़ूल जाना, ,सिर दर्द होना और दिल की धडकन  बढ जाना ये लक्षण भी रक्त की कमी के रोगी में अक्सर देखने को मिलते हैं। कभी किसी ने खून की कमी के कारण आंखो के नीचे काला होने का जिक्र नहीं किया इसलिए सहज हो गए मगर न जाने क्यों मन में यह अहसास बना रहा कि उनके शरीर में खून कम हो गया है।
एकाएक मनबोध बाबू को खयाल आया कि एक सप्ताह पहले उनकी साली आई थी। उसका लडका कुछ स्केच बना कर मनबोध बाबू को दिखाना चाहता था । उसके पास कागज था पेन्सिल थी मगर छिलने वाला कटर छूट गया था । मनबोध बाबू को याद आया कि वे तो बचपन में ब्लेड से पेन्सिल छीलते थे। वे तुरत उठे और दाढी बनाने वाले बैग से ब्लेड निकाल उसकी पेंसिल छीलने लगे। पेन्सिल छीलते समय उनकी उंगली कट गई थी और बहुत खून गिरा था । हो सकता है कि उसकेकारण लग रहा हो कि शरीर में खून बहुत कम है। इसका मतलब कि खाना पीना ठीक रहा तो दो चार दिन में सब कुछ ठीक हो जाएगा।
मगर ऎसा नहीं हो सका।
बल्कि उसके बाद तो जैसे यह नियमित क्रम बन गया। एक माह तक सुवह नींद खुलने के बाद मनबोध बाबू को देह में रोज ही कुछ कम लगता खून। अब  कमजोरी के लक्षण साफ़ सामने आने लगे।
एक दिन जब सुवह मनबोध बाबू की नींद खुली तो हद हो गई। वहीं चिटियों का रेगना और वहीं उनके पावों की चुभन मगर तेज बहुत तेज चुभन ।लाख चाहने और प्रयास करने के बाद भी उनकी आंख खुल ही नही रही थी । हिलाने के बाद भी हिल ही नहीं रहे थे उनके हाथ । और पांव तो जैसे बिस्तर पर जड हो गए थे। करवट बदलना चाहा तो नहीं बदल पाए। खुद को इतना अशक्त , इतना कमजोर कभी महसूस नही किया था मनबोध बाबू ने। लगा जैसे आज आखिरी दिन हो उनका।काफ़ी मशक्क्त के बाद जैसे तैसे उनकी आंख खुली तो तेज चक्कर आ रहा था। लग रहा था जैसेउनके चारो ओर आसमान घूम रहा हो। किसी तरह अपनी ताकत समेट उठे और घडी देखा तो पता चला कि रोज के वजाय कुछ जल्दी जाग गए थे आज। नित्य क्रिया से निपटते निपटते सब कुछ सहज हो गया था मगर मनबोध बाबू असहज हो गए थे।
उनके भीतर यह यकीन बैठ गया कि कि जरूर कोई हॆचीटियो या दीमक की तरह जो समा गया है मेरे भीतर और सुवह तीन से चार बजे के बीच निश्चित समय पर रेंगता हॆ और उन्हें बेचैन कर देता है।मगर  सवाल बना रहा कि आखिर कौन है यह ?क्या चीटियां या कोई और?
कई साल पहले एक बार पिताजी के साथ गांव का सकुचहा नाला पार करते हुए मनबोध बाबू के पांव से एक जोंक चिपट गया था और उन्हें पता भी नहीं चला।कमाल यह था कि जोंक उनके पैर से सटा उनके साथ घर तक चला आया था और उन्हे इसका अहसास तक नहीं हुआ। घर आने के बाद खाना देते हुए मां ने उसे देखा और कहा- अरे ये जोंक कब से तुम्हारा खून चूस रहा है।
मनबोध बाबू ने उस जोंक देखा तो डर गए।
मांस का घिनौना सा एक लाल लोथडा उनके पैरों से सटा लटका हुआ था,मनबोध बाबू ने उसे नोच कर फ़ेंकना चाहा तो मां ने रोका और किचन से लाकर उस पर नमक गिरा दिया। नमक गिरते ही जोंक ने उनका पैर छोड दिया। यही नहीं जितना उनका खून चूसा था सब आंगन में उगल दिया और मर गया।
मां देर तक देखती रही और अंत में कहा-जब कभी तुम इस तरह की जगहो से गुजरो साथ में नमक रखा करो
मनबोध बाबू ने पूछा-नमक, क्यों?
इस धरती पर नमक ही वह चीज है जो किसी को स्वाद से अधिक बर्दास्त नहीं होती.आदमी को भी नही,जोको को तो एकदम नही।मनबोध बाबू भौचक होकर मां की ओर देखने लगे।
मां अपनी रौ में कहे जा रही थी-बीस साल के थे तभी तुम्हारी नौकरी लग गई। अब तक तुमने जो भी कमाया अपने पिताजी को दिया। पिताजी ने तुम्हारे पैसो से सारे भाई बहनो की शादी की और घर बनवाया। अब पैतिस साल की उम्र हुई तुम्हारी।बडा बेटा नवी में है। बेटियां भी सयानी होंगी। अब तुम अपनी पत्नी का कहना मानो और अपने बच्चों पर ध्यान दो। उन्हें लेकर शहर चले जाओ। इसके बाद मनबोध बाबू ने अपने पिताजी से साफ़ साफ़ कह दिया कि अब मै आपको पैसा देने के बजाय अपनी पत्नी और अपने बच्चो पर ध्यान दूंगा जिसे उनके पिताजी ने बडी कठिनाई से स्वीकार किया।
 
      

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13 comments

  1. निलय जी, जानकीपुल पर आई आपकी कहानी 'खटमल' पढ़ी। यह एक प्रयोगात्मक और अच्छी कहानी है। खासतौर से इस कहानी का अंत, जहाँ पर अपनी मिट्टी से जा मिलने की बात की गयी है ….अच्छा बन पड़ा है। किसी भी कहानी में अंत का खास महत्व होता है। इस बात को अक्सर आलोचक डॉ० चन्द्रभूषण तिवारी भी कहा करते थे। मिट्टी से मिलने वाली बात सकारात्मक है आज के दौर में। शहरी और तथाकथित आधुनिक सभ्यता जब डूब रही होगी तो गाँव की मिट्टी में ही पनाह पाना चाहेंगे लोग।एक अच्छी कहानी के लिए बधाई!

  2. behtarin….

  3. interesting, unusual… reality with fantasy

  4. निलय की कहानी पहली बार पढी।

    पूंजी और बाज़ार के दबाव से दरकते परिवार की कहानी भीतर तक कचोटती है।

    बेहतरीन कहानी

  5. bahot hi achhi kahaani….

  6. dear nilay ji, its a wonderful story, narrated with an excellent craftsmanship.
    Since you are poet also, you can possibly understand and make others understand, prose in general,
    and stories in particular devours much space to convey a situation as compared to poetry.
    and may our stories be free of "madhay vargeey maansikataa" which was started by Prem Chand and evolved by Mohan Rakesh, Mannu Bhandari and Kamalesh Yadav of course with their out standing contribution to Hindi literature.
    Congratulations, you, too belong to that club of giants
    arvind kumar purohit

  7. निलय जी, बहुत अच्छी कहानी है। मनबोध बाबू के पीछे लगे रहिए, देखिए कहां उनको मिलती है अपनी मिट्टी। मुझे याद आता है,पहले भी आपकी कविता में मनबोध बाबू आए हैं।

  8. bahot dinon ke baad aisi koi kahaani padhne ko mili jo baazaar vaad se seedhe muthbhed karati dikhi… manbodh baabu ki bechaini aaj ke aam aadmi ki bechaini hai… jo na to is baazaaru vyavastha ke saath jud paa raha hai na alag ho paa raha hai… aam aadmi ke roop mein cheetiyon ka aur baazaar ki taakat ke roop mein khatamalom ka behtareen pratikaatmak istemaal hua hai……

  9. बहुत अच्छी कहानी.

  10. dhanyvad ramaji bhai

  11. This comment has been removed by the author.

  12. रामजी भाई की राय में अपनी बात जोड़ता हूँ …बेहतरीन कहानी है … , भाषा , शिल्प , लोक कथा का उपयोग , इतना बेहतरीन कथ्य , और एक सार्थक अंत । आज का दिन सार्थक हुआ ..इस कहानी को पढ़कर …। शुक्रिया जानकी पुल …और बधाई निलय सर को …।

  13. एक अर्थगर्भित और समकालीन कहानी के लिए बधाई ! इसमें इतने मेटाफर हैं कि इस पूरी कहानी को बाज़ार , बाजारवाद , आम आदमी , सत्ता-तंत्र और आज की सांस्कृतिक-व्यवस्था की एक तंत्रकथा की तरह भी ईसे पढ़ा जा सकता है । यथार्थ और आकांक्षाओं के बीच मनुष्य का क्रियाशीलता से अलगाव और सोच में जीवन-विरोधी स्थितियों का निषेध तथा वैचारिक संघर्षों का अकेलापन इस कहानी को एक ट्रेजिक आख्यान की तरह हमारे सामने लाते हैं जो साधारण बुद्धि और विवेक की असहायता का एक बेहतर संकेत है । मनबोध बाबू एक पिछड़े पूंजीवादी और साम्राज्यवाद के जूनियर पार्टनर मुल्क के लाखों साधारण लोगों का प्रतिनिधि है जो यथार्थ के बरक्स सोचते हैं और स्वप्न में लड़ते रहने के हालात में हैं !

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