आज शाम सात बजे दिल्ली के हैबिटेट सेंटर में ‘कवि के साथ’ कार्यक्रम में तीन कवियों को एक साथ सुनने का मौका है. कल हमने प्रियदर्शन की कविताएं पढ़ी थीं, आज पढ़िए वरिष्ठ कवि विमल कुमार और युवा कवि अच्युतानंद मिश्र की कविताएं एक साथ. शाम में मिलने के वादे के साथ- प्रभात रंजन.
किस तरह के दुख हैं तुम्हारे जीवन में
विमल कुमार
उफ़!
कितना दुख हैं तुम्हारे जीवन में
आयरा!
एक भँवर से निकलती हो
फिर दूसरे में जाती हो
फंस“`
एक काँटा निकालती हो अपने पांव से
फिर दूसरा जाता हैं चुभ
तुम्हारी एड़ी में
गंगा नदी की लहरों से निकलती हो तैरकर
फिर यमुना में डूब जाती हो
कितने तरह के दुख हैं तुम्हारे जीवन में
आयरा!
जो खींचते रहते हैं मुझे
बार-बार तुम्हारी तरफ
तारे निकलते हैं तुम्हारे आँगन में
फिर दूर जाते हैं थोड़ी देर में
फूल खिलते हैं तुम्हारे जूड़े में
पर वो जाते हैं मुरझा फौरन
तुम जिस कलम से लिखती हो
उसमें तुम्हारे दर्द की ही रोशनाई है भरी हुई
तुम्हारी चादर की सलबटों में भी
दुख का है कोई कोना मुड़ा हुआ
तकिए में भरी है जैसे
दुख की कोई रूई
दुख का एक बादल बैठा है
कहीं कजरे में तुम्हारें
फिर भी तुम लड़ती रहती हो
अपनी तकलीफों से
गलत बातों पर झगड़ती रहती हो!
आगे बढ़ती रहती हो
जलती रहती हो
एक मोमबत्ती की तरह दिन रात
रोशन करती हुई
अपने घर को हर बार
जीती हो
अपनी जिन्दगी
बचाकर अपनी ईमानदारी,
……… थोड़ी सी दुनियादारी
देखती हो एक सपना
अपने बच्चों के लिए
चाहती हो कुछ करना अच्छा
भाइयो के लिए
बदलना चाहती हो
इस दुनिया को अपनी तरह से
दूसरों के लिए
पर मैं तो बनना चाहता हूँ
तुम्हारी परछाई “`
दुख की इस घड़ी में
तुम्हारा साथ देने के लिए
एक बार फिर तुम हँस सको
जिस तरह खिल-खिलाते हुए
मिली थी तुम मुझसे पहली बार
एक गाना गुनगुनाते हुए
जिसका नामचीन गायक भी मर गया
पिछले साल इस बुढ़ापे में
लेकिन तुम्हें पता नहीं
तुम अपना दुख झेलकर
देती रही हो कितनी ताकत
कितने लोगों को
कितनी उम्मीदें जगायी है
तुमने मेरी भीतर
जाने-अनजाने
मुझे अपनी जिन्दगी जीने के लिए
आयरा!
इन उम्मीदों का कर्ज
नहीं लौटाया जा सकता है कभी जीवन में
सोचता हूँ
कहीं से ला सकूँ
कोई सुख तुम्हारे लिए
ताकि मैं भी हो सकूं
मुक्त इस कर्ज से
दे सकूं तुम्हें धन्यवाद हृदय से
कि तुम जितनी बार मिली मुझसे
उसमें मैं अपनी पूरी उम्र
जी गया था थोड़ी देर के लिए
18 मार्च विमल कुमार
कितने सालों से इन्तजार करता रहा
इस डायरी में
तुम्हारी इस तारीख का
अपने घर के कैलेंडर में भी
देखता रहा
इस तारीख को
कोई खुश्बू मेरे भीतर
फैल जाती रही हमेशा
कोई रंग बिखर जाता रहा
मेरी दीवारों पर इस तरह
झाँकने लगता है
तुम्हारा चेहरा कभी डायरी में
कभी कैलेंडर में
तुम्हारी आवाज भी देती है
सुनाई कागज के भीतर से
तुम्हारी हँसी भी देती है
दिखाई
कई दिनों से
कई महीनों से करता हूं
इन्तजार इस तारीख का
क्या करती हो तुम आज के दिन
सुबह देर से उठती हो
रात में देर तक जागती हो
कहीं जाती हो बच्चों के साथ
घर में गुमसुम बैठी रहती हो
याद करती हो अपने बीते हुए दिन
इस बार फिर तुम्हारी यह तारीख आएगी
मेरे कैलेंडर में
एक बार तुम फिर मुस्कराओगी
मेरी डायरी में
तुम एक बार फिर खिल खिलाओगी
पर मैं इस बार भी
तुमसे मिलकर
तुम्हें जीवन की
शुभकामनाएं नहीं दे पाऊँगा
हर साल की तरह
पर मुझे हमेशा याद रहेगी
मेरे जीवन के टूटे-फूटे इतिहास में
यह तारीख
जो मेरे लिए बहुत मायने रखती है
आज भी
तुम्हें भले ही मेरी तारीख
याद न हो
पर तुम्हारी तारीख से
तुम्हारा दर्द जुड़ा है
जिसे मैं कभी नहीं भूल पाऊँगा
अपने चेहरे
और अपने नाम की तरह
मृत्यु एक बड़ी चीज़ है
-अच्युतानंद मिश्र
मृत्यु एक बड़ी चीज़ है
लेकिन जीवन
जीवन के इस विशाल भट्ठे में
धूप धुंध ओस की बूंदें नहीं
जलते हैं रक्त के कण
शुद्ध रक्त के कण
लोहे और जीवन से भरपूर
विशाल शिराओं में दौड़ते हुए
उन पुष्ट भुजाओं के भीतर
महज़ घडी की टिक-टिक नहीं
नहीं एक उदास चुप्पी नहीं
नहीं कंक्रीट की खामोश सड़क नहीं
सही नमक वाला रक्त
हाँ वही लाल रंग
दौड़ता है
जलता है जिन्दगी की इस विशाल भट्ठी में
एक अदृश्य भाप उठता है
एक अभेद्य रौशनी होती है
एक अबूझ मौन टूटता है
एक गुलाब खिलता है
भोर होती है
मृत्यु एक बड़ी चीज़ है
लेकिन जीवन
सुंदर पृथ्वी के जबड़े में अट्टहास करती
फैलती है उनकी हंसी
सम्पन्नहीनता के वैभव में हँसते
वे दुःख के गाल पर तमाचा जड़ते हैं
वे हंसते हैं और पृथ्वी डोलती है
समंदर हिलोरे लेता है
और हैरान लोग
परेशान आत्माएं
और चील और गिद्ध
और लकड़बग्घे
विलाप करते हैं
मृत्यु एक बड़ी चीज़ है
लेकिन जीवन
तार-तार हो जाते हैं स्वप्न के परदे
इतनी कम रौशनी और इतनी उज्जवल ऑंखें
इतनी बदबूदार हवा
और इतने मजबूत फेफड़े
और ऐसी छतें
और ऐसी खिड़कियाँ
और लकड़ी के बगैर दरवाजे
अनंत उन घरों में
उन घरों में मगरमच्छ के दांत नहीं
मोर-पंख नहीं उन घरों में
दीवारों पर बाघ के चमड़े नहीं
नहीं बारहसिंघे के सिंह से
सुसज्जित दरवाजे
एक खाली कटोरी
मिटटी से उठती भभक
और हिलती- डुलती
ठिठोली करती
धक्का- मुक्की करती
दोहरी होती औरतें
और उनके पैरों से
उनके स्तनों से उनके पेट से
और उनकी साँस से
चिपके अनंत बच्चे
और उन बच्चों के लिए
एक टिन का डिब्बा
एक टूटा साईकल –रिक्शा
एक सुअर का बच्चा
एक तोतली आवाज़
और सर करने को यह दुनिया
मृत्यु एक बड़ी चीज़ है
लेकिन जीवन
झूठें हैं कवि
सारे अख़बार झूठ कहतें हैं
सारे नेतागण
सारी व्यवस्थाएं
सड़े हुए अदरक की गंध वाले अफसर
मोटे झुमके और हरी ब्लाउज से
झांकती देह वाली औरतें
और बत्तख
और आंख मिचकाती लडकियाँ
सब झूठ
कौन सी गरीबी रेखा
कैसा प्रमाण –पत्र
कैसा देश
नहीं मृत्यु देश
नहीं रुदन
नहीं चीत्कार
नहीं बलात्कार
नहीं भूख
नहीं गरीबी
नहीं आह
नहीं ओह
नहीं कालाहांडी
नहीं विदर्भ
नहीं कोडायकोनाल
नहीं पोस्को
नहीं वेदांता
नहीं छत्तीसगढ़
नहीं लालगढ़
भोले लोग फूंकते
नेताओं के पुतले
नेताओं की मृत आत्मा
देती क्षमा दान
दोनो रचनाकारों की रचनायें मन को छूती हैं।