पेशे से प्राध्यापिका सुनीता एक संवेदनशील कवयित्री हैं. कुछ सोचती हुई, कुछ कहती हुई उनकी कविताओं का अपना मिजाज है. उनकी कुछ चुनी हुई कवितायेँ- जानकी पुल.
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जेहन
जेहन के जहान में
खोने-पाने के अतिरिक्त ‘दौलत की डिबिया’ जैसा कुछ है!
हाँ, उत्तर–दक्खिन
और
पूरब–पश्चिम जैसा कुछ नहीं है।
खोने-पाने के अतिरिक्त ‘दौलत की डिबिया’ जैसा कुछ है!
हाँ, उत्तर–दक्खिन
और
पूरब–पश्चिम जैसा कुछ नहीं है।
अगर कुछ है भी,
तो उजाले का गीत,
अँधेरे से लड़ाई,
असमानता से भिडंत,
और समय से सीधे-तीखे होड़!
तो उजाले का गीत,
अँधेरे से लड़ाई,
असमानता से भिडंत,
और समय से सीधे-तीखे होड़!
सजग
एक दुर्दांत शिखर पर
बतौर प्रहरी देखती हूँ—
(कई सारे काम के बीच
समय निकालकर
नीदों को तजकर)
बतौर प्रहरी देखती हूँ—
(कई सारे काम के बीच
समय निकालकर
नीदों को तजकर)
मिट्टी की खुशबू
फूलों की महक
महल-दो-महल के माहौल
ख्यालों में गूँजते गोलियों की धुन
फूलों की महक
महल-दो-महल के माहौल
ख्यालों में गूँजते गोलियों की धुन
देखते-देखते दरख़्त में तब्दील होते इंसान
मासूमियत को शर्मसार करते कृत्य
कलह के बीज बोये भौरें-से बंदूकें
बरबस बेदम करते कानून की पेचीदगियाँ
मासूमियत को शर्मसार करते कृत्य
कलह के बीज बोये भौरें-से बंदूकें
बरबस बेदम करते कानून की पेचीदगियाँ
समस्त सम्प्रदाओं के सम्मोहन में लिप्त
नरसंहार के कुचक्र रचते सकुनी से साये
शौक़ से जुल्म के दरिया में कूदते कारिंदे
कौशल के दम्भ में दबी बर्फीली घाटियाँ
नरसंहार के कुचक्र रचते सकुनी से साये
शौक़ से जुल्म के दरिया में कूदते कारिंदे
कौशल के दम्भ में दबी बर्फीली घाटियाँ
मुठभेड़ करते नन्हें परिन्दे
पंख फैलाए इच्छाओं के बादल
कहर बरसाते कलकल की नदियाँ
मगर बिन सजग निगाहों की कुछ नहीं बचता
पल में लूट लेते हैं
दहशत, वैशियत और बामूरवत्त के लोग
लोभ के कारण…!
पंख फैलाए इच्छाओं के बादल
कहर बरसाते कलकल की नदियाँ
मगर बिन सजग निगाहों की कुछ नहीं बचता
पल में लूट लेते हैं
दहशत, वैशियत और बामूरवत्त के लोग
लोभ के कारण…!
आ गए
कितने बदल गए हैं हम!!
अब पर्णकुटी जैसा कुछ नहीं रहा
उसके स्थान पर आ गए हैं
कई सारे झोपड़े-से महल
जहां इंसान कम कारोबारी अधिक रहते हैं।
उसके स्थान पर आ गए हैं
कई सारे झोपड़े-से महल
जहां इंसान कम कारोबारी अधिक रहते हैं।
उसमें सारे धंधे फल-फूल रहे
शरीर के अंगों का आदान-प्रदान
और खरीद-फरोख्त के नंगे नृत्य
मांस-मदिरा के छलकते प्याले
आँतों-अंतडियों, आँखों, किडनियों सहित खून के छींटे बेचे जा रहे हैं।
शरीर के अंगों का आदान-प्रदान
और खरीद-फरोख्त के नंगे नृत्य
मांस-मदिरा के छलकते प्याले
आँतों-अंतडियों, आँखों, किडनियों सहित खून के छींटे बेचे जा रहे हैं।
यहाँ कुछ भी प्रथम नहीं,
सब द्वितीयक है
सारे के सारे लोग
श्रम में व्यस्त हैं
संत-गांठ में मस्त
निर्वाक तरीके से लगे पड़े हैं
सब द्वितीयक है
सारे के सारे लोग
श्रम में व्यस्त हैं
संत-गांठ में मस्त
निर्वाक तरीके से लगे पड़े हैं
उन्हें कुछ भी निरापद नहीं लगता
निर्दय मन से कहते हैं—
उनके अँगुलियों और गदोरियों के लकीरों में
भाग्य की रेखाएं प्रबल तौर पर काम कर रहीं हैं
इसी ने हौसले दिए
निर्दय मन से कहते हैं—
उनके अँगुलियों और गदोरियों के लकीरों में
भाग्य की रेखाएं प्रबल तौर पर काम कर रहीं हैं
इसी ने हौसले दिए
कुकृत्य का एक धुंधला काम
निर्भीक तरीके से गुपचुप चल रहा दृश्य
कुछ को खटकने लगा
निरामिष जन भी अब उसके जद में अनजाने ही आ गए।
निर्भीक तरीके से गुपचुप चल रहा दृश्य
कुछ को खटकने लगा
निरामिष जन भी अब उसके जद में अनजाने ही आ गए।
चिंता
आज भौतिक युग में टिकट की विकट स्थिति है
उस दुर्गम पहाड़ी के रास्ते की तरह
जहां से वाहन तो क्या क़दम भी लड़खड़ाते हुए
बढ़ने से डरते हैं।
उस दुर्गम पहाड़ी के रास्ते की तरह
जहां से वाहन तो क्या क़दम भी लड़खड़ाते हुए
बढ़ने से डरते हैं।
वैसे ही व्याकुल भोर से रात तक
लम्बी लाइन में खड़े होने के बावजूद भी
हाथ कुछ नहीं लगता
बल्कि मुफ्त में दर्द, खीझ
और कडुवाहट घूल जाते हैं जिह्वा पर।
लम्बी लाइन में खड़े होने के बावजूद भी
हाथ कुछ नहीं लगता
बल्कि मुफ्त में दर्द, खीझ
और कडुवाहट घूल जाते हैं जिह्वा पर।
जैसे कोई कसैला पान दातों तले आ गया हो
उसकी पीक असहनीय हो रही हो
झट से उगल दिया हो
किसी पीकदान की प्रतीक्षा किए बिन
पास से सटे दीवार पर।
उसकी पीक असहनीय हो रही हो
झट से उगल दिया हो
किसी पीकदान की प्रतीक्षा किए बिन
पास से सटे दीवार पर।
वह लालिमा अनायास ही अकार ले ले
सूरज का या किसी खास तरह के चलचित्र या फिर छायाचित्र का
यह सब निर्भर करता है
आँखों में तैरते गोल-गोल पुतलियों की नज़र पर।
सूरज का या किसी खास तरह के चलचित्र या फिर छायाचित्र का
यह सब निर्भर करता है
आँखों में तैरते गोल-गोल पुतलियों की नज़र पर।
पृथ्वी की तरह घूमते हुए
चारों योजन के चक्कर काट आए
फिर भी हाथ क्या आए
कुछ काग़ज़ के टुकड़े
पसीने से भींगते हुए लुगदी में परिवर्तित होते चिंता की तरह।
चारों योजन के चक्कर काट आए
फिर भी हाथ क्या आए
कुछ काग़ज़ के टुकड़े
पसीने से भींगते हुए लुगदी में परिवर्तित होते चिंता की तरह।
फिर भी हाथ क्या आए
कुछ काग़ज़ के टुकड़े
पसीने से भींगते हुए लुगदी में परिवर्तित होते चिंता की तरह।
अच्छी कविताऎ
sundar kavitaye,,,badhai sunita
अच्छी कविताएं हैं, बधाई।
संभावनाशील
सुन्दर!
यहाँ कुछ भी प्रथम नहीं,
सब द्वितीयक है
……….
बहुत अच्छी कविताएं ..