मोहसिन हामिद समकालीन पाकिस्तानी अंग्रेजी लेखन का जाना-माना नाम है. अभी उनके मशहूर उपन्यास ‘रिलक्टेंट फण्डामेंटलिस्ट’ पर फिल्म भी आई थी. उनके पहले उपन्यास ‘मोथ स्मोक’ का अनुवाद पेंगुइन से प्रकाशित हुआ है ‘जल चुके परवाने कई’ नाम से. अनुवाद मैंने किया है. कई अर्थों में यह उपन्यास समकालीन पाकिस्तानी समाज को समझने के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है. उपन्यास का एक अंश- प्रभात रंजन.
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बड़ा आदमी
मुराद बादशाह, एमए, रिक्शे के जखीरे का मालिक, जमीन कब्जा करने वाला, आपकी सेवा में हाजिर है. मुझे इजाजत दीजिए कि मैं बाहर से शुरु करके अंदर आऊँ.
भारी-भरकम(बहुत बड़ा, दानव जैसा) मेरा अच्छी तरह तारुफ करवाता है. मुझे कभी-कभार ही मोटा कहा जाता है. शायद आपको यह सोचकर हँसी आए लेकिन मैं ठीक-ठाक कद-काठी वालों के मन में एक तरह की चेतावनी भर देता हूँ? आपको इस मामले में थोड़ी इज्जत के साथ काम लेना चाहिए, मैं आपको इसके लिए एक सबूत देता हूँ.
मोटा क्या होता है?
‘मोटा’ एक छोटा सा शब्द है जो कमर के घेरे से अपना आकार बनाता है. इसका मतलब होता है एक खास तरह का बेढंगापन, कुछ कमी, न चलने-फिरने का एक भाव, काम की कमी, बेरंग, बदसूरत, नाखुशी जैसा एक भाव, ऐसा जिसको पचपन की उम्र में दिल का दौरा पड़ जाता हो. काम लफ्जों में कहें तो बहुत सारी चीजों की कमी जिनको आम तौर पर अच्छा कहा जाता हो.
जब ‘मोटा’ शब्द का जिक्र होता है तो लोग बेहत ताकतवर गैंडा के बारे में नहीं सोचते, बेहत हुनरमंद और शानदार व्हेल के बारे में नहीं सोचते या उत्तर अमेरिका के उस खतरनाक भालू के बारे में. वे यह नहीं कहते, “खूब खाए-पिए शेर की तरह मोटा.” नहीं वे कहते हैं सूअर की तरह मोटा, एक ऐसा जानवर जो अपनी ही गंदगी को खाता है और हमारे साहित्य में जिसका कभी इज्जत के साथ जिक्र नहीं किया गया है.
बहुत अच्छे, फिर. सामूहिक चेतना ने मोटा को एक मानी दिया है, और मैं वही जुबान बोलता हूँ इसलिए मुझे उसका वही मानी मान लेना चाहिए. मोटा बुरा है.
इसलिए मुझे पक्का यकीन है कि आप भी इस बात से कतई इत्तेफाक नहीं रखेंगे कि मेरे बारे में इस लफ्ज का इस्तेमाल किया जा सकता है. मेरा वजन ज्यादा है, ठीक है, लेकिन मैं अपने वजन को बहुत अच्छी तरह से संभाल कर रखता हूँ. मैं तेज हूँ, अपने पैरों पर हलका हूँ, और जहीन भी. मेरी एक अदा है, मेरे हर कदम से एक तरह की नफासत झलकती है. मेरी उँगलियों में फुर्ती है, और मेरे हाथों में हुनर. यह कुछ छुपी हुई बात नहीं हैकि मैं बहुत अच्छी तरह डांस करता हूँ और आगे बढ़-बढ़ कर. इससे भी बढ़कर, मुझमें वे सारे गुण हैं जिनकी कमी से कोई आदमी मोटा कहलाता है: मेहनती, कर गुजरने का माद्दा, कुशल, चालाक. मैं इतने सारे बिन मोटे गुणों की खान हूँ कि उनकी गिनती अपने आप में बहुत बड़ा प्रोजेक्ट होगा.
अगर ए में कुछ ऐसे बुनियादी गुण हैं जिनकी कमी से ही बी बनता है तो बिना गलत हुए यह नहीं कहा जा सकता कि ए जो है वह भी है.
इसलिए, मैं मोटा नहीं हूँ.
लेकिन मैं हकलाता हूँ, यह सच है.
आप ऐसे मत करिये जैसे आप इस आखिरी बात का मतलब नहीं समझ पा रहे हैं कि इसका पिछली बात से क्या ताल्लुक है? अरे छोडिये. आपको इतना विनम्र होने की जरुरत नहीं है. हकलाहट को भी, मोटापे की ही तरह बुरी चीज समझा जाता है, एक नुक्स. आपने शायद इस बात के ऊपर ध्यान दिया हो कि मेरा दिमाग कितनी तेजी से काम करता है?(मुझे उम्मीद है कि आप विनम्रता के बारे में मेरी भावना को समझेंगे). बचपन में, मेरी जीभ को मेरे दिमाग के साथ तालमेल बिठा पाने में मुश्किल होती थी, और यह संघर्ष इतना असमान होता था कि मेरी जीभ ऐसे थम जाती थी जैसे चक्करदार रास्तों में अंधा ऊँट थम जाता है. मुझे इस बात को समझने में कई साल लग गए कि बोलने का राज धीरे-धीरे बोलने में है, मैंने दुलकी चाल से चलने वाली अपनी जीभ को इसके लिए प्रशिक्षित किया कि वह मेरे तेजरफ्तार दिमाग के पीछे न दौड़े.
इसलिए जाहिर है मैं अक्सर नहीं हकलाता हूँ, लेकिन मैं हकलाता हूँ. और सुनने में बड़ी अजीब बात लगे, मुझे अपनी हकलाहट पर फख्र है, उसी तरह जिस तरह से कोई सुंदर औरत अपने चेहरे के उस काले धब्बे के ऊपर नाज करती है जिसे ख़ूबसूरती का निशान कहा जाता है.
अब ये छोटी-छोटी बातें बहुत हो गईं. मैं आपको बताता हूँ कि मैं दाराशिकोह शहजाद से कैसे मिला.
मेरे अब्बा एक जौहरी थे, पता नहीं कितनी पीढ़ियों से यह पेशा चला आ रहा था मेरे खानदान में. वे मेरे पैदा होने से पहले ही गुजर गए, असावधानी से एक दुर्घटना हुई जिसमें सिगरेट और बैलून बेचने वाले के गैस सिलेंडर का खुला वाल्व शामिल थे. मेरी माँ साधारण परिवार से आई थी और उनके शौहर के परिवार में उनको कोई भी प्यार नहीं करता था, जिनको मेरे अब्बा को दफनाने तक इस बात का इल्म नहीं था कि मैं आने वाला हूँ. हम उनके भाई के साथ रहने लगे, मेरे मामू, जो ब्रिटिश काउन्सिल लाइब्रेरी में काम करते थे.
उसके कारण हर तरह की किताबों तक मेरी पहुँच हो सहती थी और मुझे उन लोगों से अंग्रेजी सीखने का मुका मिल सकता था, जो और कुछ नहीं तो एक काम बहुत बेहतर तरीके से करते थे: अंग्रेजी बोलना.
मैंने करीब बीसेक साल बाद अंग्रेजी में एम. ए. किया और जाहिर है किसी तरह का काम ढूंड पाने में नाकाम रहा. आगे जो हुआ वह मैं संक्षेप में बताता हूँ: मैं अपने अब्बा के बड़े भाई से मिलने गया, जिनसे पहले मैं कभी नहीं मिला था, महज पांच मिनट की बातचीत में मुझे इतना पैसा उनसे मिल गया(इस वादे के साथ कि मैं आगे से उनकी दुकान में अपनी शक्ल न दिखाऊं) कि उससे मैंने एक रिक्शा खरीदा, कुछ ही सालों में मैंने चार और खरीदे और फिलहाल मैं पांच-पांच रिक्शों का मालिक हूँ.
मेरे रिक्शों का जखीरा इस मामले में विशेषज्ञ है( जितना इस पेशे में मुमकिन हो सकता है) अपने पुराने कॉलेज के विद्यार्थियों और प्रोफेसरों को सेवक मौका दे. बरसात के एक दिन ऐसा हुआ कि कभीकभार मेरे रिक्शे में बैठने वाले प्रोफ़ेसर जूलियस सुपर्ब, अपने साथ अपने एक पसंदीदा विद्यार्थी को लेकर आए और मेरे रिक्शे में बैठ गए. जिन दिनों मैं युनिवर्सिटी में एम. ए. की पढ़ाई कर रहा था उन्हीं दिनों मेरी डाक्टर सुपर्ब से जान-पहचान हुई थी, और उनको जब भी रिक्शे की जरुरत पड़ती तो वे मुझे ढूंडते, उन्होंने मुझे अपने विद्यार्थी से मिलवाया, हमने हाथ मिलाया, मैंने उसकी मजबूत पकड़ को महसूस किया, और जुर्म के बीज उसी दिन पड़ गए. अगली बार जब दाराशिकोह को सवारी की जरुरत पड़ी तो उसने मुझे तलाश किया.
दराशिकोह एक पहले जैसा इंसान था, मैं उसके बारे में था का प्रयोग कर रहा हूँ इसके लिए माफ कीजियेगा, लेकिन मैं उसके बारे में ऐसा ही सोचता हूँ. वह देखने में अच्छा और खूबसूरत था(जैसा कि उसके बारे में कहते हैं), लेकिन बेहद ठंढा था, वह आंखों में बिना किसी तरह के भाव के देखता था और उसकी जुबान गन्दी थी. अच्छा मुक्केबाज था और दिमाग का बहुत तेज था. मुझे वह अच्छा लगने लगा, और उसे भी मैं अच्छा लगने लगा, और हम दोस्त बन गए.
सामाजिक तौर पर हम समाज के अलग-अलग हिस्सों में गुजरते थे, हालांकि मैं कहना चाहूँगा कि उसके दोस्त लोग बहुत इज्ज्जत करने वाले थे. मंगलवार के दिन हम चाय पीने और बातें करने के लिए मिलते थे, जिसके बाद उसे जहां जाना होता मैं अपने रिक्शे पर बिठाकर ले जाता. हमारी बातचीत अर्थशास्त्र से लेकर गाड़ियों की देखभाल तक होती थी, टूटी हुई नाक से लेकर अरेथा फ्रेंकलिन तक.(इस आखिरी के बारे में एक शब्द: एक विदेशी पर्यटक रिक्शे की सीट पर एक कैसेट छोड़ गया, और जब घर ले जाकर मैंने उसे बजाय तो पाया कि वह ‘क्वीन ऑफ सोल’ था. जिंदगी उसके बाद वही नहीं रही. पहले जब लोग कहा करते थे कि अमेरिका ने हमें कुछ नहीं दिया तो आम तौर पर इस बात को मैं मान जाता था. अब मैं कहता हूँ, “हाम अमेरिका ने हमें अरेथा फ्रेंकलिन दिया और दिया क्वीन ऑफ सोल, और वे मुझे अजीब ढंग से देखते हैं. मैंने इससे आगे इस मसले पर कुछ नहीं बोला है: अरेथा फ्रेंकलिन को कोई समझा नहीं सकता है; या तो आप समझते हैं या नहीं. मैं इस मसले को इस तरह से देखते हैं.)
जबसे लाहौर में पीली टैक्सी आई है रिक्शे के धंधे की बुरी हालत हो गई है. मुनाफा धीरे-धीरे कम होता गया. धंधा मुश्किल धंधा है, वे कहते हैं, और जब इसको मिलाने का मौका आता है तो इस मामले में मैं काफी तेज हूँ. एम.ए. के बाद के दिनों में मुझे तीन बार चली, दो बार लगी(पेट में और जांघ में), और अफ़सोस की बात है कि मैंने एक बार एक आदमी को छीन कर गोली मार दी. मैं कुछ समय से पिस्तौल लेकर चलने लगा था, और यह अपने आपको लाहौर की भीड़ भाड़ वाली सड़कों पर बचाने की दिशा में एक छोटा सा कदम था, मैं इस बात को समझ गया था आने वाले दौर में डकैती की लहर आएगी. लूटमार करने वाली पीली टैक्सियों ने रिक्शा के धंधे को बर्बाद कर दिया, इसलिए मैंने अपनी संपत्ति का अपने आपमें थोड़ा सा बंटवारा किया. पीली टैक्सी के ड्राइवर जब सोये होते थे तो मैं उनको लूटने लगा और इससे मेरे माली हालत ठीक हो गई.
लेकिन यह अधिक दिन तक चला नहीं. किसी की नक़ल करना उसकी खुशामद करने का सबसे अच्छा तरीका है, जैसा की कहा जाता है, मेरी खुशामद इस हद तक की गई कि पीली टैक्सी के ड्राइवरों को मजबूर होकर अपनी रक्षा के लिए ऐसी जगहों पर पनाह लेना पड़ा जो मेरे लिहाज से असहज होने लगा, वे कम पैसे लेकर चलने लगे, और इसी तरह की तमाम बातें. लूटपाट कम होने लगी और मुनाफा कम होने लगा.
करीब इसी वक्त की बात है जब दाराशिकोह के हालात बुरे होने लगे: वह कर्जे में डूबा हुआ था, उसके पास कोई काम नहीं था, और वह इज्जत और खुद के छलावे से इस कदर दबा हुआ था कि मैंने शायद ही किसी आदमी इतने बोझ तले देखा हो. मैंने उसके ऊपर भरोसा किया, मैं जानता था कि वह तेज था, बेदर्द था, लायक था, और वह मेरे मजाक को बर्दाश्त कर सकता था. और इसलिए मैंने उसको बुटीक में लूटपाट करने की अपनी योजना का हिस्सा बनाया, और हम दोनों एक ऐसा दल बना सकते हैं जो हर जगह फैशन वाले कपड़े रखने वालों के दिलों में खौफ भर दे.
वह गर्मियों का ऐसा मौसम था जब धरती के पेट में खूब गडगडाहट हो रही थी, एटमी धमाके इलाके की राजनीति की अपच, धार्मिक गडबडियों से त्रस्त भूखी धरती का अमहद्वीप उपमहाद्वीप. जहां एटमी परीक्षण हुए थे वहां के गैस की गर्मी ने रिक्टर स्केल पर भूचाल ला दिया.
लाहौर में सब कुछ सामान्य नहीं था, और इम्मोडियम की कमी हो गई थी.
मुझे लगा यही अच्छा मौका है अपनी योजना को अंजाम देने का.
यहां मुझे इसका मौका दें कि मैं विषय को थोड़ा सा बदलूं. हालांकि मैं फख्र के साथ इस बात को मानता हूँ कि मैं एक डाकू हूँ(यह भी जोड़ दूँ कि ऐसा कहने में मुझे थोड़ा गर्व महसूस होता है), लेकिन यहां मैं साफ़ कर देना चाहता हूँ, इतना साफ़ कि किसी तरह से शुभे की गुंजाइश न रहे, कि मैं खूनी नहीं हूँ. वैसे तो यह बात सही है कि दोनों विभागों के मुजरिम को अराजकता के विभाग में ही पढ़ाई की लेकिन नैतिक रूप से वे वैसे ही अलग हैं जैसे बी.ए. और बी.एससी. को सिलेबस अलग करता है.
आपको बताऊँ, कि मैं इस बात में बड़ी शिद्दत से यकीन रखता हूँ कि संपत्ति का अधिकार अधिक से अधिक सम्भावना भर होती है. जब खाई बहुत बढ़ जाती है, तब एक बड़ा अधिकार, जीने का अधिकार संपत्ति के ऊपर भारी पड़ जाता है. इसलिए, जो बहुत गरीब होते हैं उनको बेहद अमीरों से चुराने का हक होता है. बल्कि मैं तो यहां तक कहना चाहता हूँ कि ऐसा करना गरीबों का कर्त्तव्य होता है, इतिहास यह बताता है कि कमजोर तबका जब कुछ नहीं करता तो वह गुलाम बन जाता है.
अब चूंकि मैं जीने के अधिकार की बुनियादी बात में यकीन रखता हूँ, इसलिए मैं इस बात को भी मानता हूँ कि किसी को मारना तब तक गलत है जब तक कि वह अपने बचाव में न किया गया हो. हालांकि मेरे कई हलके दोस्त और जानने वाले मेरे ऊपर इस बात का आरोप लगाते हैं कि मैं अपना वजन कम करने के लिए डायटिंग करता हूँ, जबकि सचाई यह है कि मैं मांस नहीं खाता क्योंकि मैं मारे जाने के सख्त खिलाफ हूँ, और चूंकि मेरी अंदर सहिष्णुता की भावना इस कदर भरी हुई है कि कि यह इंसानी जीवन से भी आगे जाता है.
जो पेशेवर खूनी हैं और जिनको मैं जानता हूँ वे इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते. उनकी बातें कुछ इस तरह की होती हैं.
“मुराद, पुराने दोस्त”, वे कहते हैं. “तुम्हारी नैतिकता की बातें तो सब ठीक हैं लेकिन जब सचमुच मारने की बात आती है तो यह कहने के लिए माफ करना, लेकिन तुम सचमुच अपना लक्ष्य चूक जाते हो. जब कोई चिड़िया उड़ान पर होती है और तुम अपनी बन्दूक अपने कंधे पर लाकर जब निशाना साधते हो तो उसको लगने वाली गोली से उसको बेहद तकलीफ होती है. तुम नैतिक मसले की बात करते हो? खेल? इस कायनात की क्रूरता का एक निशान या जीवन की सार्थकता या निरर्थकता का एक सार? बिलकुल नहीं. एक स्वादिष्ट निवाला तुम्हारा इंतज़ार कर रहा है जो तुम्हारे सामने गाजर के साथ परोसा जाने वाला है.
“जो एक बार आजाद पंछी होता है, खुशी से इधर उधर फुदकता हुआ, अपने दोस्तों के साथ खेलता, गर्दन के एक झटके से जमीन के अंदर से कीड़ा निकाल कर मानो यह कह रहा हो, ‘यही जीवन है’, अब वह तुम्हारे दांतों के बीच कुछ इस तरह से फंसा हुआ है कि उसे निकालने के लिए जिस टूथ पिक का आपने इस्तेमाल किया वह भी अपने पत्ते छोड़ने लगा है और आपके दांतों में वैसे ही मीठा मीठा दर्द हो रहा है जो आपको उन पुराने दिनों की याद दिला रहा हो जब आप अपने हिलते हुए दूध के दांतों हिलाते हुए बिताए थे.
“लेकिन आप हमेशा जानवरों को मारने को इस आधार पर सही ठहरा सकते हैं कि आप उसको खाना चाहते हैं, पहनना चाहते हैं, या यह कि उनसे बड़ी खराब बदबू आती है, वे अजीब से लगते हैं, आपको परेशान करते हैं, आपके लिए खतरा बन जाते हैं, और उनकी किस्मत खराब होती है जो वे आपके रास्ते में आ गए. इंसानों को मारने के बारे में आपका क्या ख़याल है? सिवाय कुछ गहरे तौर पर व्यक्तिवादियों को छोड़ कर आजकल इस बात को लेकर आम राय जैस बनी हुई है कि दूसरे लोगों को खाना और पहनना शुरु हो चुका है. एक ऐसा सूट पहनना जिसकी कीमत इतनी हो जितनी कि एक किसान अपने जीवन भर में कमा पायेगा और इस बात को सभी सही मानते हैं,
“उन्होंने कहा, किसी को ऊपर बताये गए कारणों(गंध, चाल-ढाल, खतरा या बुरी किस्मत) के अलावा किसी और करण से मानना जायज है. आपको डियोड्रेंट चाहिए, जबकि ६.८७ मिलियन लोगों में एक की मौत खतरनाक तरह की एलर्जी की वजह से मर जाते हैं, आप उसे अपनी बगलों में लगाते हैं, और किसी गरीब को अपनी बगलों में ऐसा दर्द होता है कि वह मर जाता है, और यह सब जायज है. आप कार चलाते हैं, यह जानते हुए कि आप शायद किसी को मार डालेंगे या मारे जायेंगे, लेकिन जल्दी करो मुझे थ्रेडिंग करवाने में देर हो रही है, और आप जल्दी से निकलने लगते हैं. कोई परवाह पशेमानी नहीं. या कोई आदमी जो कभी आपके खेतों में नहीं गया हो न ही उसने आपकी लड़की के गालों में पड़ने वाले उन गड्ढों को देखा हो जो उसके मुस्कुराते वक्त उसके गालों में पड़ने लगे हैं उअर आप यह फैसला करते हैं कि किसी कागज पर लिखी एक लाइन चोरी के बराबर है, और खुदा के नाम पर यह सब सही है, लड़ाकों के लिए: मारो! मारो! मारो! बिना किसी वजह के, लेकिन तब आपको बहुत दर्द होता है जब एक बारूदी सुरंग आपके पैर को उड़ा देता है.
“इसलिए मुराद, मेरे पुराने दोस्त, लोग हमेशा से दूसरे लोगों को मारते रहे हैं, और अक्सर थोड़ी-बहुत ग़लतफ़हमी की बिना पर भी. यहां कोई नैतिकता का मसला नहीं होता है. बेहतर यह है कि जो तुमको नहीं समझ में आता है उसको हँसी में उड़ा दें बजाय इसके कि आप उसे गंभीरता से लें और जेल रोड में एक एक सेल में पागलों की तरह हँसते हुए बिताएं.
अब, मैं एक बा
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