पिछले कुछ महीनों में ‘बिंदिया’ पत्रिका ने अपनी साहित्यिक प्रस्तुतियों से ध्यान खींचा है. जैसे कि नवम्बर अंक में प्रकाशित परिचर्चा जो कुछ समय पहले वरिष्ठ लेखिका मैत्रेयी पुष्पा द्वारा ‘जनसत्ता’ में लिखे गए उस लेख के सन्दर्भ में है जिसमें उन्होंने समकालीन लेखिकाओं के लेखन को लेकर अपनी असहमतियां-आपत्तियां दर्ज की थी. उनके उस लेख के प्रतिवाद में अनेक लेखिकाओं ने खुलकर अपनी बात रखी है. आज समकालीन कहानी की महत्वपूर्ण हस्ताक्षर प्रत्यक्षा का उस परिचर्चा में शामिल विचारोत्तेजक लेख- जानकी पुल
============
स्त्री विमर्श सबसे ज़्यादा गलत समझा जाने वाला (misconstrued) शब्द है। इसकी आड़ में कई बार स्त्रियों पर आक्षेप स्त्रियाँ ही लगाती हैं । स्त्री क्या बनना चाहती है? वो सिर्फ अपनी एक स्वायत्त पहचान चाहती है, अपने फैसले लेने की अधिकारिणी, अपने तरीके से जीवन जीने की आज़ादी चाहने वाली । वो जीवन गरिमा से जीना चाहती है , दूसरों को कम्पैशन और समझदारी देना चाहती है और उतना ही उनसे लेना चाहती है। वो दिन रात कोई लड़ाई नहीं लड़ना चाहती। न ही दिन रात अपने को साबित करते रहने की जद्दोज़हद में गुज़ारना चाहती। लेकिन अफसोस कि ये सोच भर लेने से सच नहीं हो जाता। सदियों का इतिहास है और सदियों का भविष्य अभी बाकी है और इस मुहिम को चलाये रखने के कायदे और औज़ार भी बदले हैं और बदलेंगे और जब हर औरत अपना स्पेस तय करेगी कोई न कोई पैराडाईम शिफ्ट तो अपने आप होगा। लम्बी लड़ाई है और हर कोई अपने तरीके से करता है।
हमें बहुत से स्टिरियोटाईप्स बदलने होंगे, अपनी मानसिक कंडिशनिंग बदलनी होगी। सबसे पहली सोच तो एक्स्टीरीयर की है , कि हम कैसे दिखते हैं , कैसे कपड़े पहनते हैं , कैसे रहते हैं । जबकि वो सबसे कम महत्त्वपूर्ण बात है। मैं प्रगतिशील कहलाने के लिये पश्चिमी कपड़े पहनूँ , गाड़ी चलाऊँ , सिगरेट शराब पियूँ ,ऐसे स्टीरियोटाइप में नहीं फँसना चाहती । मैं ये करती हूँ या न करती हूँ ये मेरा नितांत व्यक्तिगत मामला है और ये अगर मुद्दा बनता है तो मुझे बेहद हास्यास्पद लगता है, क्योंकि व्यक्तिगत रहन-सहन की बातें बेहद कैज़ुअल चीज़ें हैं , उनके बारे में बात तक करना उन्हें अनड्यू महत्त्व देना। मैं जैसे रहती हूँ वो मेरी पसन्दगी, कम्फर्ट, ज़रूरत और मर्जी में है , सिर्फ किसी और के बनाये ढाँचे में फिट होने या मात्र फॉर द सेक तोड़ फोड़ करने के लिये नहीं। मेरे चुनाव मेरे अपने होंगे किसी और के थोपे हुये नहीं ।
जहाँ तक मेरी और मेरे समकालीनों के लिखाई का प्रश्न है , मुझे लगता है कि हमें समग्र तौर पर पढ़ा ही नहीं गया है। एक स्वीपींन्ग जजमेंट देना बहुत आसान है। हममें से सबने बहुत गंभीर मुद्दों पर लिखा है, बहुत संजीदा हो कर लिखा है, बहुत अपने गहरे भीतर जाकर लिखा है, और अलहदा विषयों पर लिखा है। हमने अपने समय के नब्ज़ को पकड़ने की ईमानदार कोशिश की है। और उससे भी महत्त्वपूर्ण बात ये कि हमारा लिखना अभी खत्म नहीं हुआ है, हम लिख रहे हैं और बहुत लिखना अभी बाकी है। इस बहुत से बाकी में बहुत बहुत और लिखा जायेगा जो लिखे हुये से भी कहीं ज़्यादा होगा। हमारे वरिष्ठ हमें पढ़ें , हमें समूचेपन में पढ़ें और इक्का दुक्का उदाहरण पर पूरी पीढ़ी को खारिज़ न करें। न तो मैं यहाँ कोई नाम गिनाना चाहती हूँ न आक्षेप लगाना लेकिन जैसे हमारे अग्रजों का लिखा हमारे सामने है वैसे ही हम समकालीनों का लिखा भी उनके सामने होना चाहिये और बात हमारे लिखे पर होनी चाहिये , बात रचनात्मक आलोचना की होनी चाहिये, बात विकास और विचलन ( डिपार्चर ) की होनी चाहिये और बात होनी चाहिये कि क्यों हिन्दी साहित्य अब भी हज़ार पाँच हज़ार के पाठक वर्ग में सीमित है और यहाँ बौद्धिक बहस की ज़मीन क्यों नहीं है।
बहुत सही और पारदर्शिता वाली बात कही है आपने|
लेकिन पुरुष कभी स्त्री को स्व्येतता से जीना नहीं देना चाहती| और भी बहुत सी बातें है मन मे कड़वाहट पैदा करती है|
"हमें समूचेपन में पढ़ें और इक्का दुक्का उदाहरण पर पूरी पीढ़ी को खारिज़ न करें।"
अच्छी बात कही है!