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ओमप्रकाश वाल्मीकि ने हिंदी की चौहद्दी का विस्तार किया

ओमप्रकाश वाल्मीकि जी के प्रति एक छोटी सी श्रद्धांजलि ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ में प्रकाशित हुई. मैंने ही लिखी है- प्रभात रंजन 
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ओमप्रकाश वाल्मीकि की एक कविता ‘शब्द झूठ नहीं बोलते’ की पंक्तियाँ हैं- मेरा विश्वास है/तुम्हारी तमाम कोशिशों के बाद भी/शब्द ज़िन्दा रहेंगे/समय की सीढ़ियों पर/अपने पाँव के निशान/गोदने के लिए/बदल देने के लिए/हवाओं का रुख…’ सचमुच उन्होंने शब्दों के माध्यम से शोषण, अपमान, उत्पीड़न, बहिष्करण के एक ऐसे समाज लोमहर्षक कथा कही जो स्वाधीन देश में भी पराधीनों सा जीवन जीने को विवश हैं. ओमप्रकाश वाल्मीकि ने कविताएँ लिखी. उनके तीन कविता संग्रह प्रकाशित हैं- ‘सदियों का संताप’, ‘बस! बहुत हो चुका’ और ‘अब और नहीं’. आलोचकों का यह मानना है कि उनकी कविताओं ने हिंदी कविता की देह में जिस संवेदना का परकाया प्रवेश करवाया उसका हिंदी कविता में अपना अलग मुकाम बना. उन्होंने कहानियां भी लिखी और उनकी कहानियों के दो संग्रह प्रकाशित हुए- ‘सलाम’ और ‘घुसपैठिये’. अपनी कहानियों के माध्यम से वे उस जनतन्त्र पर सवाल उठाते हैं जिसमें कुछ लोग लोकतांत्रिक अधिकारों का लाभ उठाते हैं और बाकी लोग उनसे महरूम पारम्परिक सामाजिक कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए जीवन बिता देते हैं. उनकी एक कहानी ‘बंधुआ लोकतंत्र’ का उदाहरण इस सन्दर्भ में दिया जा सकता है. जिसमें लोकतंत्र रूपचंद को गाँव का सरपंच तो बना देता है, लेकिन वह कागजों में ही सरपंच बनकर रह जाता है. गाँव के चौधरी उसे गाँव के पंचायत भवन में घुसने भी नहीं देते. उनकी कहानियों में, कहीं कहीं उनकी कविताओं में रूपचंद जैसे सदियों से वंचित समाज के पात्र आकर अपने अपने ढंग से उस स्वराज का मतलब पूछते हैं जो उनके लिए कहीं अटका रह गया.
 
ओमप्रकाश वाल्मीकि की असल  ख्याति का कारण उनकी आत्मकथात्मक कृति ‘जूठन’ है. आजादी के पचास साला जलसे के साल 1997 प्रकाशित इस पुस्तक से पहले वे हिंदी भाषा के लेखक थे, लेकिन ‘जूठन’ के प्रकाशन के बाद वे हिंदी में दलित साहित्य के आरंभिक पुरस्कर्ताओं में शुमार किये जाने लगे. ‘जूठन’ का अंग्रेजी अनुवाद करने वाली विदुषी अरुणप्रभा मुखर्जी इस कृति के बारे में उचित ही लक्षित किया है कि यह पुस्तक आजादी के बाद के लगभग पचास सालों की ‘एक दुनिया समानान्तर’ का जीवंत दस्तावेज है, जो आजादी एक पचास साला जश्न के साल आजाद भारत हुक्मरानों से यह सवाल करता प्रतीत होता है- हमारी आजादी कहाँ रह गई? ये वे लोग हैं जो और कुछ मांगने से पहले समाज में अपने लिए उचित सम्मान की मांग कर कर रहे हैं.
 
ईमानदारी और साहस के साथ उन्होंने उत्तर भारत के समाज की मानसिकता को उघाड़ कर रख दिया है. जिसके कारण आज भी समाज में जाति की गहरी खाइयाँ बनी हुई हैं, दमन का अनवरत सिलसिला कायम है, अपमान की चुभती सुइयां हैं. अकारण नहीं है कि प्रकाशन के कुछ सालों के भीतर ही उसका अनुवाद अंग्रेजी समेत अनेक भाषाओं में हुआ और कनाडा से लेकर दिल्ली विश्वविद्यालय तक न जाने कितने शिक्षा संस्थानों में उसे पाठ्यक्रम का हिस्सा बना दिया गया. उस लेखक की कृति को जिसके लिए लिखना उस गहरी यातना को दुबारा जीने की तरह था जो समाज ने दी थी. लेकिन न जाने कितने लोगों ने उसे प्रेरणा-पुस्तक के रूप में पढ़ा. संघर्ष और मुक्ति के सच्चे पाठ की तरह.
 
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने सदियों से बहिष्कृत समाज को हिंदी साहित्य के विशाल समाज के अनिवार्य सदस्यों के तौर पर स्थापित कर दिया. हिंदी की चौहद्दी का विस्तार किया. आज अगर दलित साहित्य पाठ्यक्रमों का जरुरी हिस्सा बन गया है तो उसकी नींव पुख्ता करने का काम वाल्मीकि जी ने अपनी रचनाओं के माध्यम से किया. उनका रचनात्मक योगदान समाज की उस गैर-बराबरी की बराबर याद दिलाता रहेगा जिसके सच्चे अर्थों में जनतांत्रिक बनाने की कामना उनके लेखन में दिखाई देती है. 
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