ओमा शर्मा ऐसे लेखकों में हैं जिनके लिए लिखना जीवन-जगत के गहरे सवालों से दो-चार होना है. इस लेख में भी वह दिखाई देता है- जानकी पुल.
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‘आप कैसी कहानियां लिखते हैं’?
परिचय की परिधि पर मिलने वालों की तरफ से मेरी तरफ जब मौका मिलते ही यह सवाल उछाल दिया जाता है तो मैं थोड़ा सहम जाता हूं क्योंकि इस ‘कैसी’ का कोई उत्तर मेरे पास होता ही नहीं है। जाहिर है यहां अभिप्राय कहानी के अच्छी अथवा बेकार होने से नहीं बल्कि उस मिजाज या सरोकारों से होता है जिसे लेखक ने कहानी पिरोने का जरिया चुना है। इस मकाम पर कहानी को ‘सामाजिक’ कह देना अक्सर संतोषप्रद समाधान बन पड़ता है।कोई यदि उससे भी संतुष्ट नहीं हो या और अधिक रूचि दिखाए तो लगभग पीछा छुड़ाने की नीति के तहत मैं उससे ‘मनोवैज्ञानिक’ का खासा अहमन्यपूर्ण तमगा और लगा देता हूं जो एक मासूम सवाल की चुभन से निरापद सा कर देता है। जो भी हो एक बात तय है कि ‘सामाजिक’ कहानियों का लेखक होने भर से सामने वाले की नजर में एक अनजाने सम्मान की कोंध आ धमकती है। मानो समाज–इंगित कहानी सृजन अपने आप में एक पर्याप्त उदात्त कार्य है जिसकी आंख मूंदकर अनुशंसा की जा सकती है। ‘मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है’ और ‘साहित्य समाज का दर्पण है’ जैसी उक्तियों का मिलान करके देखें तो यहीं–कहीं से मनुष्य और साहित्य दोनों को आंकने-तोलने की नपनी सी बरामद होते दिखती है… अपने लिए तो सभी जीव जीते हैं, दूसरों यानी समाज के लिए जीने का जज्बा केवल मनुष्य में होता है। इस लिहाज से असल या बेहतर साहित्य वही होता है जिसमें वृहत्तर समाज की चिन्ताएं और बेहतरी शामिल हों…।
साहित्य को इस तरह जांचने–परखने के नजरिए में गड़बड़ है तो बस यही कि यह साहित्य को नीति–शास्त्र में रिड्यूस कर देता है। अच्छाई और बुराई की लड़ाई में जीत अन्तत: अच्छाई की होनी चाहिए, सत्य हमेशा जीतता है, पाप का फल दुखदाई होता है जैसे तयशुदा आदि मानदंडों की श्रंखला खुद–ब–खुद अवतरित होने लगती है। साहित्य के समाजोन्मुख होने से, जैसे प्रश्न में प्रछन्न है, मानो समाज या उसकी वास्तविकता बदल जाएगी!कहानी उपन्यास में आवश्यक तौर पर न्याय की जीत या हर किस्म का जरूरी आंदोलन दिखाने भर से क्या वह एक व्यापक यथार्थ बन जाएगी? क्या साहित्य इस हार-जीत के फेर से परे उस प्रक्रिया और संघर्ष के उद्घाटन का माध्यम नहीं है जिसमें न्याय–अन्याय की गुत्थम–गुत्था हो रही होती है? या फिर क्या साहित्य का सृजन अपने आप में सामाजिक सरोकारों की खातिर नहीं होता है? एक लेखक जब किसी कविता,कहानी या उपन्यास के माध्यम से अपनी सोच, संवेदना और निरीक्षण को चयनित विधा में प्रस्तुत करता है तो उस बिंदु पर ही क्या वह सामाजिकता और सरोकारों के दायरे में कदम नहीं रख चुका होता है?
लेकिन जब साहित्य के सरोकारों की बात की जाती है तो शायद अभिप्राय समाज की कुरीतियों और चुनौतियों पर साहित्य के जरिये प्रहार करने से होता है जिनसे भारतीय समाज दुर्भाग्यवश अरसे से ही आपाद–मस्तक लिथड़ा पड़ा है। हिंसा, अपराध, ठगी, बलात्कार, अत्याचार और घपलों के उत्तरोत्तर भयावह निकलते संस्करणों की खबरें रोज इतनी परोसी जा रही हैं कि पत्रकारिता अपराध–कथाओं की खबरी बनकर रह गई है। खुदपरस्ती, चालाकी- मक्कारी औरआपाधापी ने आमजन की मानसिकता में इस कदर घर कर लिया है कि कुछ हलकों को अपेक्षा रहती है कि साहित्य ही वह चारागर हो सकता है, या होना चाहिए, जो समाज में गहरे पैबस्त इन अनेक मर्जों से निजात मुहैया कराये। अपेक्षा पालने वाले निश्चय ही स्वयं साहित्य से समबद्ध होंगे क्योंकि समाज के दूसरे तमाम ऐसा कोई मुगालता शायद ही कोई पालते हों। साहित्य की यह अपेक्षित भूमिका गैर सरकारी संस्थाओं (एनजीओ) की तर्ज पर उसके एक किस्म के एक्टिविस्ट होने से ताल्लुक रखती है। सिर्फ माध्यम और उसके औजारों में ही फर्क होता है। अंतिम लक्ष्य दोनों का वही है: समाज का उद्धार। यानीसाहित्य को अपने देश–काल की चुनौतियों को स्वीकारते हुए एक ऐसे डिटर्जेन्ट में तब्दील हो जाना चाहिए जो समाज में पक चुकी बीमारियों के लिए अक्सीर का काम करते हुए स्वयं अपनी सार्थकता हासिल कर ले। क्या साहित्य के हाथ में वाकई समाज की वह नब्ज होती है जिससे मर्ज की शिनाख्त करके उसका समुचित इलाज किया जा सके? क्या साहित्य ने अतीत में अपने यहां या अन्यत्र कहीं ऐसा कुछ करतब किया है जिसकी बिना पर उससे यह अपेक्षा पाली जा रही है? अमेरिकी गृह युद्ध की शुरूआत के लिए अब्राहम लिंकन ने जरूर हैरिएट बीचर स्टो की ‘अंकल टॉम्स केबिन’ की सेहराबंदी कर दी थी मगर अश्वेतों की अन्ततः मुक्ति के लिए चला लंबा संघर्ष उस पुस्तक से कहीं परे की चीज रहा है। अब कोई यह कैसे बताए कि उस महान कृति की लेखकीय प्रेरणा किसी सामाजिक क्रांति या परिवर्तन का स्वप्न नहीं बल्कि हैजे के कारण अपने सबसे छोटे पुत्र की अकाल मृत्यु का निजी दुख था जिससे उबरने के लिए वह पुस्तक लेखिका का संबल बनी थी। हमारे कई अग्रज लेखकों ने साहित्य की तुलना उस मशाल से की है जो सामाजिक परिवर्तन का रास्ता प्रशस्त करती है। यह दर्शन साहित्य के सृजन का अनधिकृत और कमजोर औचित्य भर है। लगभग सौ वर्ष तक चले भारतीय स्वाधीनता संघर्ष का रास्ता कौन सी मशाल प्रशस्त कर रही थी? पचास-सौ वर्ष पहले के समय में सामाजिक परिवर्तन और साहित्य के बीच एक परोक्ष तारतम्य तलाशा भी जा सकता हो (प्रेमचंद की कुछ रचनाओं ने जनसामान्य के बीच अंग्रेजी शासन की पोल खोलकर उनके खिलाफ माहौल बनाने में भूमिका अदा की थी) या कम से कम उनमें उस समय–समाज की आहटों को तो महसूस किया ही जा सकता है मगर आज हो रहे परिवर्तनों को साहित्य संचालित करने की तो कौन कहे, संतोषजनक ढंग से दर्ज भी कर पा रहा है?
मैं सोचता हूं कि बड़ा सच यही है कि हमेशा से समाज को संचालित और प्रभावित करने वाली शक्तियां साहित्तेतर रही हैं। उन शक्तियों के प्रोत्साहन, पोषण और उनकी संभावना तराशने में साहित्य की थोड़ी–बहुत भूमिका होती रही हो मगर साहित्य की शक्ति को समाज की बरक्स आंकते-जांचते हुए उसकी पहुंच और प्रभाव के प्रति अति–उत्साहित होने से बचना होगा। यहां यह उल्लेख करना दिलचस्प होगा कि संगीत, चित्रकारी या दूसरी किसी अन्य कला–विधा से उसके सामाजिक सरोकारों की बात शायद ही इस अधिकार से उठाई जाती हो जैसी साहित्य के बरक्स। फिल्मों को लेकर जब-तब जरूर ऐसा हुआ है मगर वास्तव में वह निर्देशक के सामाजिक सरोकारों के कारण ज्यादा हुआ है न कि उस विधा के कारण। साहित्य से इस अपेक्षा का अतिरिक्त कारण शायद यह होता हो कि लंबे समय तक साहित्य और साहित्यकारों की जनसमुदाय के बीच एक साख रही है और अपने समय–समाज के भीतर पनपती व्याधियों से मुकाबिल होने की ऊर्जा समाज को वहां से मिलती रही है। इसे संयोग भी कह सकते हैं कि कालांतर में मनुष्य के अकेलेपन, संताप और अन्तरद्वंद्वों (जिनकी उपस्थिति साहित्य की व्यापकता का बड़ा कारक थी) में उसका साथ और समाधान करने दूसरे ऐसे विकल्प आ गये जिन्होंने साहित्य को कमोबेश परे खिसका डाला।
अपने यथार्थ को जानने समझने के लिए ही नहीं बल्कि उस यथार्थ के विस्तार और आंकलन के लिए साहित्य अन्तर–दृष्टि देता है। एक बड़ी रचना पाठक की चेतना को आध्यात्मिक स्तर तक समृद्ध करती है इसलिए जब समकालीन रचनाएं न पढ़े जाने के संकट से ग्रस्त चल रही हैं, अतीत की वे रचनाएं जिनमें मनुष्य की पीड़ा-यातना, जिजीविषा, आस्था, संघर्ष, रागद्वेश और मूलभूत स्वतंत्रता स्वतः स्फूर्त आवेग से प्रकट हुई हैं, आज भी पढ़े जाने को आकर्षित और उद्वेलित करती दिखती हैं। इसका अभिप्राय यह नहीं कि लेखक के सामाजिक सरोकारों में फर्क आया है; इसका अभिप्राय यही है कि इधर की रचनाओं के लेखकीय सरोकारों में फर्क आया है। एक वास्तविक लेखक के लिए यह गौण रहेगा कि उसकी रचना किस तरह सामाजिक सरोकारों की आपूर्ति करती है। कोई भी साहित्यिक रचना समाज की आवश्यकता पूर्ति के लिए नहीं होती है हालांकि वह उसे किसी न किसी रूप में प्रभावित अवश्य करती है। एक कलाकृति की नैतिकता, जैसा निर्मल वर्मा ने कहा है, उसके होने में है… जैसे वृक्ष पर फल का लगना। वृक्ष का धर्म फल देना है,लोगों की क्षुधा मिटाना नहीं।
लेकिन कोई कृति समाज को कैसे और कितना प्रभावित करेगी और कर सकती है यह सदियों से अनुत्तरित जटिल प्रश्न है। माना जा सकता है कि लेखक जिस सामाजिक दायरे में सांस लेता है, जिस आबोहवा से अपनी रचनाओं का खाद-पानी जुटाता है, उसमें उसके सामाजिक सरोकार सहज रूप से अवस्थित रहेंगे ही। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि साहित्य में कल्पना का बड़ा और जरूरी स्पेस आरक्षित रहता है जिसके कारण एक रचना का सत्य उसके सृजन में पैबस्त यथार्थ से बेशक अलहदा हो सकता है। एक कलाकृति विचार और अनुभव के बेहद व्यक्तिवादी और विशिष्ट संदर्भों से उपजती है और उसकी बुनियाद में एक अपरिभाषेय स्वेच्छाचारी किस्म की स्वायत्तता जड़ी मिलती है। इसलिए विशुद्ध कल्पना के सहारे लिखी गई कोई कहानी कभी एकदम सच्ची प्रतीत होती है तो कभी वास्तविक घटना का कहानीकरण अविश्वसनीय लगने लगता है। किसी ने कहा भी है कि उपन्यासकार वह