कुछ अर्सा पहले मैत्रेयी पुष्प जी ने युवा लेखिकाओं के ऊपर एक टिप्पणी जनसत्ता में की थी। उसकी आग अभी तक ठंडी नहीं पड़ी है। अभी लखनऊ कथाक्रम में गीताश्री ने एक जोरदार भाषण दिया। फिलहाल पेश है वंदना राग का लेख—- जानकी पुल-
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कितना विचित्र समय है। हिन्दी साहित्य की शेषनागी शय्या हिल रही है, विष्णु डगमगा रहे हैं, ब्रह्मा गड़बड़ा रहे हैं और शिव को ताँडव करने से रोकने के लिए धतूरा खिला दिया गया है।(आस्थावादी इस उपमा के लिए मुझे क्षमा करें)
दरअसल शुद्धतावादी, श्रेष्ठतावादी आग्रहों की वजह से संस्था, समूह और व्यक्ति महंतवादी और वर्चस्वादी हो जाते हैं। फासिस्टों की तरह। यहाँ उम्र की पाबंदी नहीं। जेण्डर की भी पाबंदी नहीं। ऐसे लोग, घोर अहंकारी, आत्मकेन्द्रित, आत्मुग्ध और असहिष्णु हो जाते हैं। सही और गलत का फर्क सापेक्ष न होकर, अहं की लड़ाई में बदल जाता है। मैं ही सही हूँ। मैं ही श्रेष्ठ हूँ। चारों ओर इसी तर्ज की तूती बजने लगती है। तूती में हवा भरने वाले खुद या खुद के फौलोवर्स होते हैं। सोशल नेटवर्किंग साईट्स जैसे फेसबुक इस परंपरा का खूब पोषण करते हैं। इसी के साथ,परंपरागत ढंग के समीकरण भी होड़ में आ जाते हैं और हासिल होता है, (जो हो रहा है) परले दर्जे का विभ्रम तथा संशय।
जो, अपने को विक्टिम के बतौर प्रस्तुत करता है (गौर करें, होता नहीं है, प्रस्तुत करता है) वही अंदर से उत्पीड़क होने की क्षमता भी गाहे-बगाहे प्रदर्शित करता है। हम सब हालिया, साहित्यिक गतिविधियों से बावस्ता हैं। अर्थात जिसको जब मौका मिलता है अपने सामर्थ्य और बल का प्रयोग कर मनोवांछित रोल में ढल जाता है और ढलता जा रहा है। फेक फ़ोलोवार्स और समर्थन करने वालों की भीड़ अपरम्पार है। चारों ओर छद्म का ऐसा मकड़जाल बिछ चुका है, कि मित्रों पर भी लोग शंका करने लगे हैं। जो कल तक मित्र थे, यदि आज असहमत होने की हिमाकत करते हैं तो उन्हें अफवाहों के टूल से शत्रु की दायराबंदी में घेर कर, अपमान का बदला लिया जा रहा है, और यह आप मानें न मानें, यह हममें से बहुतों की साहित्यिक प्रवृत्ति बनती जा रही है। अब व्यक्तिगत लड़ाइयाँ, व्यक्तिगत न होकर सार्वजनिक मंचों से लड़ी जा रही हैं, और विचार और चिंतन से असंपृक्त नॉन इश्यू को इश्यू बनाकर खम ठोका जा रहा है कि ‘बताओ कितने ज्वलंत मुद्दे चल रहे हैं, हिन्दी साहित्य में’ पुरस्कारों को लेकर फर्जी लड़ाइयाँ, कपड़ों और लाईफस्टाईल पर फब्तियाँ और नैतिकतावादी उपदेश और फतवे। किस तरह के साहित्यिक लोकतंत्र में जी रहे हैं हम? किन युवा स्त्री लेखकों के बारे में इशारे हो रहे हैं? क्या अपवादों की वजह से, एक खास पीढ़ी के बाद आई सारी लेखिकाओं पर जजमेंट पास किए जाएँगें? मैत्रेयी जी ने अपने आलेख में जो बातें कही हैं क्या वे आम स्त्री लेखकों की प्रवृत्तियाँ हैं? क्या राजधानी में बैठे-बैठे ही, उनकी दृष्टि, हर उस महंत की तरह पुरस्कार, नकार, शाबासी की घोषणा, अपने आस-पास के पात्रों से होगी, जो न सिर्फ लगातार अपनी उपस्थिति बनाए रखते हैं, बल्कि अपनी उपस्थिति को स्वीकारे जाने की जी तोड़ कवायद में लगे रहते हैं?
अब युवा बने रहने की इच्छा पर दो बातें भी करनी ही होंगी, क्योंकि इन आरोपों को युवा होने के नाते झेलना अब असंभव हो गया है। एक फ्रायडीयन सच, यह है, कि युवा बने रहने की इच्छा एक प्राकृतिक, जैविक तथा सार्विक इच्छा है। इसमें जेण्डर की भूमिका नगण्य है। यह भी एक खरा सच है कि युवा होना एक प्राकृतिक नियम है। इसका सुख सबको प्राप्त हो चुका है, हो रहा है या होने वाला है। यह भी सच है कुछ लोग वर्षों तक युवा बने रहते हैं, और इसमें हर्ज भी कुछ नहीं सबको अधिकार है। लेकिन युवा होने का लाभ कितने लोग उठाते हैं, उसे अपने व्यक्तिगत लाभों के लिए कितने लोग इस्तेमाल करते हैं, यह दीगर बात है और यह कोई छिपी बात भी नहीं। यह एक लोकतांत्रिक परिपाटी में चलने वाली इक्कीसवीं सदी है, अपने सारे गुण दोषों समेत, यहाँ लाभ लेने वाले भी हैं, और न लाभ लेने वाले भी, इसीलिए मैत्रेयी जी, यह महत्वपूर्ण है कि आप अपनी बातों में और स्पष्टता लाएँ। जो दूर बैठे बातों की अनूगूँजित मार सहते हैं, उनके लिए यह न सिर्फ रोष का विषय हो जाता है, बल्कि निराशा का भी। यदि अपवादों को छोड़ दिया जाए तो मैं सारी युवा पीढ़ी के लिए एक बात रखती हूँ, सारे के सारे लेखकों के संघर्ष में एक ही बात मूल रूप से रहती है कि वे अच्छा लिख सकें और बतौर लेखक पाठकों द्वारा स्वीकृत किए जाएँ। यहाँ भी जेण्डर विलीन हो जाता है। आप आज की पीढ़ी के पुरूष लेखकों से भी बात कर, हम सबका लिखा पढ़, अपनी न्यायपूर्ण राय तो बनाइए। क्या यह बहुत कठिन और कठोर मानदंड रख दिया मैंने हम सबके आकलन का? यदि अपने साथ की स्त्रियों की महत्वपूर्ण कहानियों का जि़क्र करने लगूँ तो पन्ने भर जाएगें।
और तो और स्त्री विमर्श की नई भाषा में, सिर्फ स्त्री की तरह पहचाने जाने की बेचैनी नहीं है। स्त्री को इस समाज से एक लेखक बतौर सम्मान और पहचान चाहिए। आप और आपके जैसे अन्य श्रद्धेय लोगों से निवेदन है कि अपनी दृष्टि को सीमित और संकुचित न करें। हमारी दुनिया के संघर्ष अलग हैं, उन्हें पुराने नज़रिए से न देखें। हमारे बीच से बहुतों ने बहुत मानीखेज सोशल कमेंटरी वाली कहानियाँ कही हैं। हमारे पास राजनैतिक दृष्टि संपन्न कहानियाँ भी हैं। अफवाहों, भ्रमों और अहं वाले इस संसार में, ज़रूरत बारीक तथा गंभीर शिनाख्त और विष्लेषण की है। यही हमारी परंपरागत जिम्मेवारी भी रही है। क्यों न उसे सहजता तथा पूर्वाग्रहों से रहित हो निभाया जाए? अब मेरा एक खुला सवाल सभी लेखकों से ‘हिन्दी साहित्य की क्या वाकई एक खास पीढ़ी के बाद हत्या हो गई है?’ कोई कुछ बोलता क्यों नहीं?
इतनी चुप्पी क्यों है भाई?
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काफ़ी वास्तव परक बातें कही गई है जिससे असहमत क्यूँ कर हो ?
समय बदला है, समस्याओं के स्वरूप भी बदले हैं और उनसे जूझने
के नीति नियमों में भी समय के मुताबिक ही बदलाव आए हैं जो
वर्तमान सहमति भी बनाए हुए हैं । नयी लेखिकाओं की कहानियां
पढ़ते हैं। दंग भी रह जाते हैं और कहानियों में मिलती मुक्तकामी
जीवटता से भी तहे दिल से इत्तेफ़ाक़ रखते हैं। होठों पर सेलोटेप लगाकर
जो महिमा-गरिमा नारी की की जाती रही थी अब तक, पर अब उस
घुटन को हमारे समय की लेखिकाओं महिलाओं ने झेला-समझा और
महसूस किया है। वे उस महिमा गान के भ्रम को भी तोड़ रही है।
दमख़म और आत्मविश्वास है उनकी आवाज़ और अभिव्यक्ति में और
है एक मुक्त सच्चाई स्त्री-पुरुष के हर उस जीवन पहलू की जो अब तक
दमित और एकांगी पुरुष पक्षीय रहा है… फिर जवाबदेही भी यहाँ
बेदखल नहीं । हाँ,जवाबदेही का पाखंड नहीं है यहाँ इन कहानियों में।
उनकी हर साम्प्रत जीवन जीने की भावनाएं स्त्री पॉइंट ऑफ़ व्यू से जीवन
के बहुत क़रीब-क़रीब की है और जो जीवन जीने की गलत पाबंदियाँ को
ख़ारिज कर उनका पर्दाफ़ाश भी करती है और साथ ही स्त्री के पक्ष की
सापेक्ष संभावनाएं भी उजागर करती है। ये स्थापनाएं वे रिस्क लेकर भी
करती है । स्त्री-पुरुष के जीवन यापन की भेदभाव पूर्ण असमानताएं, स्त्री
का अपमान, स्त्री की निजी भावनाओं की अवहेलनाएँ इत्यादि जिसने
पल-पल देखि हो सही हो वही अपने पक्ष में हो रहे अन्याय की बात कर सके।
इन्हीं सारी सच्चाइयों को 'नारी विमर्श' के परिप्रेक्ष्य में देख-परख कर
उनके सही, निर्णायक और न्यायसंगत होने की पड़ताल भी हो सके ।
मैत्रेयी पुष्पा जी से भी ये सारी सच्चाईयां छिपी तो नहीं है फिर
उन्हें क्यों कटघरे में खड़ा होना पड़ रहा है ।
हिंदी साहित्य में जो पीढ़ी अपना दबदबा बनाए रखने की जीतोड़ कोशिश कर रही है, उसे नई पीढ़ी के साथ वह सब कुछ टूटता बिखरता सा लग रहा है, जो उनकी नजर में पवित्र पवित्र सा और सनातन था और जिसके भरोसे वे अपने को भी साहित्य गढ़ में अमर मान बैठे थे. वे सब मठ, गढ़ और उनके भ्रम टूटने का समय है यह. इस टूटने से जिसको चोट लगती है, जल्द ही उनको परे हटना पड़ेगा. नई भाषा, नए कथ्य के सैलाब को जबर्दस्ती रोके रखना कठिन है. मैं इस बात को लेकर आश्वस्त हूं.
हिंदी साहित्य में जो पीढ़ी अपना दबदबा बनाए रखने की जीतोड़ कोशिश कर रही है, उसे नई पीढ़ी के साथ वह सब कुछ टूटता बिखरता सा लग रहा है, जो उनकी नजर में पवित्र पवित्र सा और सनातन था और जिसके भरोसे वे अपने को भी साहित्य गढ़ में अमर मान बैठे थे. वे सब मठ, गढ़ और उनके भ्रम टूटने का समय है यह. इस टूटने से जिसको चोट लगती है, जल्द ही उनको परे हटना पड़ेगा. नई भाषा, नए कथ्य के सैलाब को जबर्दस्ती रोके रखना कठिन है. मैं इस बात को लेकर आश्वस्त हूं.
बड़ा सन्तुलित लेख है । उपयुक्त प़श्न उठाये गये हैं ।