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प्रथम शैलप्रिया स्मृति सम्मान निर्मला पुतुल को

प्रथम शैलप्रिया स्मृति सम्मान प्रसिद्ध कवयित्री निर्मला पुतुल को दी जाने की घोषणा की गई है. उनको बधाई- जानकी पुल.
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शैलप्रिया स्मृति न्यास की ओर से प्रथम शैलप्रिया स्मृति सम्मान झारखंड की सुख्यात कवयित्री निर्मला पुतुल को देने की घोषणा की गई है। इस सम्मान के निर्णायक मंडल में सर्वश्री रविभूषण, महादेव टोप्पो और प्रियदर्शन शामिल हैं। निर्णायक मंडल ने सम्मान पर एक राय से फ़ैसला किया है। निर्णायक मंडल की ओर से कहा गया है, ‘निर्मला पुतुल की कविता में आदिवासी समाज की वेदना और वैभव दोनों बहुत मार्मिकता के साथ व्यक्त हुए हैं। उनकी कविता में झारखंड के सांस्कृतिक-सामाजिक जीवन की धड़कनें बोलती हैं, उन्होंने शोषण और विस्थापन की ऐतिहासिक पीड़ा और विडंबना को शब्द दिए हैं। उनकी कविता झारखंड के सांस्कृतिक और समकालीन जीवन के प्रामाणिक पाठ और साक्ष्य की तरह आती है जिसका एक उपपाठ स्त्री संवेदना और संघर्ष के विस्तार के रूप में दिखाई पड़ता है। झारखंड को अपनी इस कवयित्री पर गर्व है और वे प्रथम शैलप्रिया सम्मान की उचित अधिकारी हैं।
निर्मला पुतुल को यह सम्मान रांची में 15 दिसंबर 2013 को आयोजित एक कार्यक्रम में दिया जाएगा। सम्मान में 15,000 रुपये की राशि, एक मानपत्र, और शॉल प्रदान किए जाएंगे।

शैलप्रिया स्मृति न्यास की ओर से विद्याभूषण
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निर्मला पुतुल की दो कविताएँ 

1.
आदिवासी स्त्रियाँ

उनकी आँखों की पहुँच तक ही
सीमित होती उनकी दुनिया
उनकी दुनिया जैसी कई-कई दुनियाएँ
शामिल हैं इस दुनिया में / नहीं जानतीं वे

वे नहीं जानतीं कि
कैसे पहुँच जाती हैं उनकी चीज़ें दिल्ली
जबकि राजमार्ग तक पहुँचने से पहले ही
दम तोड़ देतीं उनकी दुनिया की पगडण्डियाँ

नहीं जानतीं कि कैसे सूख जाती हैं
उनकी दुनिया तक आते-आते नदियाँ
तस्वीरें कैसे पहुँच जातीं हैं उनकी महानगर
नहीं जानती वे ! नहीं जानतीं ! !

2.
चुड़का सोरेन से 

मैंने देखा था चुड़का सोरेन !
तुम्हारे पिता को अकसर हंड़िया पीकर
पिछवाड़े बँसबिट्टी के पास ओघड़ाए हुए
कठुवाई अँगुलियों से दोना-पत्तल-चटाई बुन
बाज़ार ले जाकर बेचते हुए तुम्हारी माँ को भी
हज़ार-हज़ार कामुक आँखों और सिपाहियों के पंजे झेलती

चिलचिलाती धूप में
ईंट पाथते, पत्थर तोड़ते, मिट्टी काटते हुए भी
किसी बाज के चंगुल में चिड़ियों की तरह
फड़फड़ाते हुए एक बार देखा था उसे

तुम्हारे पिता ने कितनी शराब पी यह तो मैं नहीं जानती
पर शराब उसे पी गई यह जानता है सारा गाँव
इससे बचो चुड़का सोरेन !
बचाओ इसमें डूबने से अपनी बस्तियों को
देखो तुम्हारे ही आँगन में बैठ
तुम्हारे हाथों बना हंड़िया तुम्हें पिला-पिलाकर
कोई कर रहा है तुम्हारी बहनों से ठिठोली
बीड़ी सुलगाने के बहाने बार-बार उठकर रसोई में जाते
उस आदमी की मंशा पहचानो चुड़का सोरेन
जो तुम्हारी औरत से गुपचुप बतियाते बात-बात में दाँत निपोर रहा है
वह कौन-सा जंगली जानवर था चुड़का सोरेन
जो जंगल लकड़ी बीनने गई तुम्हारी बहन मँगली को
उठाकर ले भागा ?

तुम्हारी भाषा में बोलता वह कौन है
जो तुम्हारे भीतर बैठा कुतर रहा है
तुम्हारे विश्वास की जड़ें ?
दिल्ली की गणतन्त्र झाँकियों में
अपनी टोली के साथ नुमाइश बनकर कई-कई बार
पेश किए गए तुम
पर गणतन्त्र नाम की कोई चिड़िया
कभी आकर बैठी तुम्हारे घर की मुँडेर पर ?

क्या तुम जानते हो
पेरिस के भारतीय दूतावास से भागी ललिता उराँवके बारे में ?
जानते हो महानगरों से पनपे
आया बनानेवाली फैक्टरियों का गणित
और घरेलू कामगार महिला संगठन का इतिहास ?
बाँदों की दीपा मुर्मूकी आत्मा आज भी भटक रही है
इन्साफ की गुहार लगाते तुम्हारी बस्तियों में
उसे सुनो चुड़का सोरेन !
उसे गुनो !

कैसा बिकाऊ है तुम्हारी बस्ती का प्रधान
जो सिर्फ़ एक बोतल विदेशी दारू में रख देता है
पूरे गाँव को गिरवी
और ले जाता है कोई लकड़ियों के गट्ठर की तरह
लादकर अपनी गाड़ियों में तुम्हारी बेटियों को
हज़ार-पाँच-सौ हथेलियों पर रखकर
पिछले साल
धनकटनी में खाली पेट बंगाल गयी पड़ोस की बुधनी
किसका पेट सजाकर लौटी है गाँव ?

कहाँ गया वह परदेसी जो शादी का ढोंग रचाकर
तुम्हारे ही घर में तुम्हारी बहन के साथ
साल-दो-साल रहकर अचानक गायब हो गया ?
उस दिलावर सिंह को मिलकर ढूँढ़ों चुड़का सोरेन
जो तुम्हारी ही बस्ती की रीता कुजूर को
पढ़ाने-लिखाने का सपना दिखाकर दिल्ली ले भागा
और आनन्द-भोगियों के हाथ बेच दिया

और हाँ पहचानो !
अपने ही बीच की उस कई-कई ऊँची सैण्डिल वाली
स्टेला कुजूर को भी
जो तुम्हारी भोली-भोली बहनों की आँखों में
सुनहरी ज़िन्दगी का ख़्वाब दिखाकर
दिल्ली की आया बनानेवाली फैक्टरियों में
कर रही है कच्चे माल की तरह सप्लाई
उन सपनों की हक़ीक़त जानो चुड़का सोरेन
जिसकी लिजलिजी दीवारों पर पाँव रखकर
वे भागती हैं बेतहाशा पश्चिम की ओर !

बचाओ अपनी बहनों को
कुँवारी माँ बनी पड़ोस की उस शिलवन्ती के मोहजाल से
पूरी बस्ती को रिझाती जो
बैग लटकाए जाती है बाज़ार
और देर रात गए लौटती है
खुद को बेचकर बाज़ार के हाथों

किसके शिकार में रोज़ जाते हो जंगल ?
किसके ?
शाम घिरते ही अपनी बस्तियों में उतर आए
उन ख़तरनाक शहरी-जानवरों को पहचानो चुड़का सोरेन
पहचानो
पाँव पसारे जो तुम्हारे ही घर में घुसकर बैठे हैं !!
तुम्हारे भोलेपन की ओट में
इस पेचदार दुनिया में रहते
तुम इतने सीधे क्यों हो चुड़का सोरेन ??

 
      

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One comment

  1. putul ji ne manusy aur manusyata ko pahchana, tabhi itni sajag hain aur hame bhi sajag kar rahi hain, dhanyabad ya sadhuvad apke liye yahi hai ki hum sochne ko vivash ho rahe hain…………

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