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विभा रानी की कविताएँ

प्रसिद्ध रंगकर्मी, लेखिका विभा रानी कभी-कभी कवितायेँ भी लिखती हैं. और खूब लिखती हैं. आज उनकी नई कविताओं की सौगात जानकी पुल को मिली. जानकी पुल आपसे साझा कर रहा है- जानकी पुल.
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प्रतीक्षा !
मेरे सूखे पपड़ाए होठों पर पड़ते ही
तुम्‍हारे होठों की नम ओस
पूरी देह बारिश बन बरस गई
झम-झमा-झम-झम!
आंगन तो था नहीं, मुलाकत हुई
फ्लैट की खिड़की की सोंधी गंध से
खिड़की से बाहर दिखते
बादल ने
बजाई दुंदुंभी, झपताल, तबला, खरताल
मन बन गया चौपाई
घन घमंड नभ गरजत घोरा
प्रियाहीन डरपत मन मोरा।
आंखें झपक-झपक झहराने लगी पदावली –
के पतिया लए जाओत रे मोरा प्रियतम पास
कान बन गए घुंघरू, बजने लगे छम-छम
हे री मैं तो प्रेम दीवानी, म्‍हारो दर्द ना जाणे कोय।
यह आज जो तुमने दी है देह की भीगी नमी,
दे देते तीस बरस पहले, तो
गा लेती तभी यह अभित राग
नहीं फूटता विरहा बनकर जीवन से गांठ
कि न सुलझाते बने
न उलझाते बने
न खोलते और न गाते
कागा सब तन खाइयो, चुन-चुन खैयो मांस
आ दौउ नैना मति खाइयो, जिन्ह पिया मिलन की आस.” ####
उम्र नींबू सी
कभी हवा तो कभी आसमान
कभी नौका तो कभी पतवार
भी दूब तो कभी घास
कभी प्रीत तो कभी प्‍यास
कभी दिवस तो कभी सप्‍ताह
कभी पल तो कभी मास
कभी आग तो कभी ताप
कभी राग तो कभी पाप
कभी फूल तो कभी पराग
कभी चंदन तो कभी आग
कितने-कितने रूपों में
तुम आते रहे मेरे पास
मैं ही थी अजानी, भोली,
मूरख, नासमझ
न सुन पाई तुम्‍हारी सांस
न परछ पाई तुम्‍हारी परस
न कर पाई तुम्‍हारे दरस
उम्र नींबू सी पीली पड़ती-पड़ती
हो गई खट्टा-चूक!
ट् ट् टा् ट् …. क् क् क् क् क् !! ट् ट् ट् टा!
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सीप में बंद
यह मैं ही हूं
अपनी मादक गन्‍ध
और सुरभित हवा के संग
अपनी बातों के खटमिठ रस
और तरंगित देह-लय के संग
यह मैं ही हूं
फैले आसमान की चौड़ी बांहों की तरह
यह मैं ही हूं
कभी हरी तो कभी दरकी धरती की
भूरी माटी की तरह।
समय ने छेड़ी है एक नई तान
देह मे दिये हैं अनगिन विरहा गान
मन की सीप में बंद हैं
कई बून्‍द- स्वाति के!
सबको समेटने और सहेजने को आतुर,
व्‍याकुल, उत्‍सुक
यह मैं ही हूं ना!
—-

जलती रहेगी आग
रबड़ की तरह खिंच जाती है दुनिया
निश्चित और अनिश्चित के बीच!
मैं कभी इतनी नहीं थी उदास
घड़ी के पेंडुलम की तरह नहीं रही डोलती
किए समझौते-ताकि हरी-भरी बनी रहे
मेरे आस-पास की धरती!
रोई नहीं कि बचा रहे जीवन जल
बुझ सके प्‍यास जीवन की
इसी जल से!
अभी भी चाहती हूं रोना
एक बार जार-जार
फूट-फूटकर
बिलख-बिलखकर
मां आती है ऐसे में याद
ले जाती है सपनों की
गंदुमी चादर तले
और खिसका देती है परे
बिना मुझे अपनी गोद दिए
मां!
तुम इतनी निर्मम तो थी नहीं!
और मैं तो हूं तुम्‍हारी –कोर पोछू
फिर ऐसा क्या किया मैंने, ओ मेरी प्यारी-प्यारी मां!
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गुलदस्ता!
मुझे अभी भी नहीं रोना है
बचाकर रखना है हर कोना,
धूप का, मिट्टी का, गन्‍ध का, परस का!
हर कोई है अभिनय में रत-जीवन का
सभी दिख रहे हैं मजबूत अभिनय-जीवन में अभिनय।
क्‍या एक बार नहीं हो सकता ऐसा
कि चारो कोने सिमट आएं एक
गोलाकार में
और इतना बरसें, इतना तरसें
इतना हरसें
कि खिल-खिल उठें वहीं
गेंदे, गुलाब, अड़हुल, जुही।
####

चोरी-चोरी, चुपके-छुपके!
मेरे जीवन के टुकड़े भी
चलते हैं, मुझसे छुप-छुपकर
बचते हैं मुझसे रह-रहकर!
आज भी हो जाएगा
एक टुकड़ा अलग
जीवन से,
कुछ होगा खाली
कुछ भरेगा भीतर
जलती रहेगी आग
बनकर समन्‍दर!
####

समन्‍दर से प्‍यासे-प्‍यासे
पैदा होती रही हूं
इसी जनम में – बार-बार!
इच्‍छाओं के फूल टंगे रहे हैं
शाख दर शाख
कजरी, चैती, फगुआ, झूमर
घूमर पाड़ते रहे हैं
राग दर राग!
बोलने पर भी न बूझने का
अभिनय या कलाबाजी –
होती रहती है पल दर पल
मन की बातें पूरी होती हैं
देह के वितान पर भर-भर मन!
खुश्‍क देह की खुश्‍क नमी
आंखों में डोलती-बोलती रही हैं
हम फिर-फिर भरे समन्‍दर से
प्‍यासे-प्‍यासे निकलते रहे हैं

 
      

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10 comments

  1. बहुत सुंदर कविताएं हैं। प्रेम से भरी हुई स्‍त्री का मन।

  2. Thank you Farah.

  3. Can only regret that I do not understand Hindi very well, or read it at all, because I have no doubt that these poems are beautiful. I did, however, have the opportunity of seeing the talented Vibha Rani in action at the Bangalore Literature Festival. Congratulations, Vibha!

  4. धन्यवाद नीहारिका जी.

  5. ' यह मैं ही हूं
    कभी हरी तो कभी दरकी धरती की
    भूरी माटी की तरह।'….महीन प्रसंग बुनते हुई आपकी सहज काव्यात्मकता अभिनन्दनीय है विभा जी !

  6. धन्यवाद प्रभात जी. धन्यवाद जानकीपुल. जानकीपुल के असंख्य पाठकों से उम्मीद रहेगी कि वे इस पर अपनी निष्पक्ष राय/टीका?टिप्पणी/ दें. पोस्टमार्टम भी कर सकते हैं.

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