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मैत्रेयी पुष्पा के शीघ्र प्रकाश्य उपन्यास ‘फ़रिश्ते निकले’ का एक रोचक अंश

मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यासों ‘इदन्न मम्’, ‘चाक’ का हिंदी में अपना मुकाम है. उनके शीघ्र प्रकाश्य उपन्यास ‘फ़रिश्ते निकले’ का एक अंश आपके लिए- जानकी पुल.
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पहाड़पुर। हम जल्दी आ गए।

हम एक लिपे-पुते बड़े से घरके सामने थे। इस गाँव की शुरुआत में ही हमें तालाब मिला। भरा हुआ तालाब। आगे चलकर एक पक्की इमारत वाला स्कूल था। उसके पास ही एक सफेद रंग का मन्दिर, जिसपर लाल पताका फहरा रही थी। ये सब घर के आस-पास ही थे। इनके नजदीक ही नीम और इमली के वृक्ष अपनी घनी हरियल छटा से गर्मी को शान्त करने की कोशिश कर रहे हों जैसे।

घर के बड़े अहाते के अन्दर जाते ही लम्बी पौर के बाद धूप और रौशनी से भरा बड़ा सा आँगन जिसमें चारपाई डालो तो पन्द्रह बीस आ जाएँ। बाहर से इस घर की विशाल और विराट छवि का अंदाजा लगाना मुश्किल था।

पौर में दो चारपाइयों पर दरी और फूलदारचादरें बिछी थीं, जिन पर हमें बिठाया गया। बेला बहू ही इधर-उधर जाकर आवाज दे री थीं
अजय सिंह दाऊ जू!
ओ बसन्ती!
अरे जुझार…कितै गए सब के सब?”

बेला बहू फुर्ती से निकलीं और एक बालक को साथ ले आईं, जिसकी उम्र बारह तेरह वर्ष होगी। उससे दरियाफ्त करने लगीं कि जुझारसिंह कहाँ हैं? अजयसिंह दाऊ कहाँ गए हैं? बसन्ती क्या इनमें से किसी के साथ गई है?

फिर अचानक बेलाबहू को बालक के परिचय का ख्याल आया, बोलीं—”देख रही हो बिन्नू, जे बनीसिंह हैं। पाँच कक्षा में पढ़ते हैं।

जाओ बनीसिंह, लिबा तो ले आओ जुझार काका खों। और जल्दी टेर लाओ बसन्ती जिज्जी खों। आटा पिसाने गई होंगी।

लड़का तुरन्त दौड़ गया। बेला बहू खुद ही शक्कर और पानी घोलकर शरबत बना लाईं। तीन पीतल के लम्बे गिलास।
शरबत खत्म ही हुआ था कि एक शख्ससामने आकर खड़ा हो गया।

छोटी-छोटी काली मूँछें। साँवला रंग। लम्बोतरा चेहरा सामान्य आकार के माथे पर दोनों भौएँ जुड़ी हुई। नाक थोड़ी मोटाई लिए हुए वह दरमियाने कद का आदमी।

जुझारसिंह हैं जे।” बेलाबहू ने तुरन्त परिचय कराया।

राम राम!” जुझारसिंह ने मेरा अभिवादन किया।

हम बिन्नू को यहाँ तक ले आए जुझार। लिखती हैं। अपनी सब की कथा लिख देंगी।

जुझार मुस्कराया जैसे बस औपचारिकता के लिए छोटी सी हँसी हँसा हो।

अब तक अजय सिंह भी आ गए।

उनकी खाकी रंग की पेन्ट और कमीज पुलिस वर्दी से मिलती-जुलती लग रही थी। वे खुद भी पुलिस के तुंदियल कर्मचारी जैसे नहीं, सेना के जवान जैसा गठा बँधा शरीर था। आयु का अन्दाजा चेहरा नहीं, सिर के काले सफेद खिचड़ी बाल दे रहे थे कि उम्र कम-से-कम पेंतालीस या अड़तालीस होगी ही। माथे पर गहरा और लम्बा दाग है जो ध्यान खींचता है। मूछें होंगी, मैंने सोचा था, लेकिन नहीं हैं। दाढ़ी का तो सवाल ही नहीं।

बेला बहू ने शिष्टाचारवश परिचय कराया, ”दाऊ, जे बिन्नू।
और बिन्नू, जे दाऊ अजयसिंह।
अजयसिंह ने विनम्रता से हाथ जोड़े और सिर झुका दिया।

ऐसे भी होते हैं डाकू? मेरी कल्पना झूठी पड़ रही थी। बड़ी-बड़ी मूछें, भयानक चेहरा, लाल लाल आँखें झाबे सी दाढ़ी, ऊँचे माथे पर लाल लम्बा तिलक और गले में देवी का ताबीज। कई फिलमों के डाकू याद आने लगे।

तभी बसन्ती आ गई।
बसन्ती, जिसके इतने गोरे रंग की मैंने कल्पना नहीं की थी। जिसकी कमनीयता की भी मुझे उम्मीद नहीं थी। पता नहीं क्यों ऐसी धारणा है कि बीहड़वासियों के चेहरे और शख्सियत भी बीहड़ ही होनी चाहिए।

बसन्ती ने अभिवादन में नमस्ते का प्रयोग किया और जल्दी-से-जल्दी रसोई में चली गई। उसके साथ दो लड़कियाँ और थीं, जिनकी उम्र बारह और चौदह साल रही हो, रसोई में उठा धराई की मदद करा रही थीं।

आँगन में तीन लड़के आ खड़े हुए। एक-दूसरे को रघु, माधव और शंकर नाम से बुला रहे थे। वे आँगन में चारपाइयाँ बिछाने में मशगूल थे, उम्र वही पन्द्रह सोलह रही होगी। गुलाब ने शंकर को साथ लेकर अपनी चारपाई बाहर चबूतरे पर डलवाली। वह जल्दी सोना चाहता था और बेलाबहू के कथा प्रसंग से बचने के तरीके खोज रहा था। वह जानता था कि बेला बहू इस घर के हर आदमी की कहानी दर्ज कराए बिना बिन्नू को छोड़ेंगी नहीं। वे अपने बयान में कह चुकी हैहर आदमी पैदा एक तरह से होता है, मगर वह ढाला जाता है अलग-अलग तरीके से।अब अलग तरीकों को कहाँ तक सुनेगा गुलाब?

एकदम बाजिव बात” जुझार सिंह बेलाबहू का समर्थन करता है।
बेला बहू ने देखा कि अब खाना खाकर सब लोग एक जगह बैठ गए। बातचीत करना चाहते हैं नहीं तो बिन्नू से परिचय कैसे होगा इनके असली रूप का? ऊपर से समय को बरबाद करना बेला बहू को सुहाता नहीं।

जुझारसिंह हैं बिन्नू, जो तुम्हारे सामने बैठे हैं, खटिया पर।” बेलाबहू ने दोबारा बताया।
बताओ तो जुझार।

हम क्या कहें आपसे? बिन्नू ही कहें न?” जुझार ने मुस्कराकर पूछा तो साँवले चेहरे पर उसके होठ खिल गए।

पैट्रोमैक्स की रौशनी थी, अँधेरे की झांई तक नहीं। सब लोग दमक रहे थे।
बिन्नू!” जुझारसिंह ने बताना शुरू किया
जमरोई, मरसूड़ा, नुनवई, डिकौली, गोती से लेकर पारीछा तक और टेरका, पुरा, खलार जैसे गाँव एक ही जाति की बैल्ट माने जाते हैं। इस इलाके को डाकुओं की शरण स्थली माना जाता है। डकैतियाँ भी कम नहीं पड़ती कहाँ।

डकैती!” जुझार ऐसे कह रहा था जैसे परोपकार। लिख लो बिन्नू कि इस हौसलेमन्द काम का नाम इज्जत की दरकार रखता है। जोगी जातियों की साधना धूल चाटती है इसके सामने। डकैत के आगे दानी पानी मरते हैं। यह पुण्य कर्म से ज्यादा बड़ा पुण्य है।

अरे, यह काम आत्मा की पुकार पर अन्जाम पाता है क्योंकि यह ऐसी जंग है जो अमीरों के खिलाफ गरीबों के द्वारा और गरीबों के लिए लड़ी जाती है।

मैंने बेला बहू की ओर देखा, लगा कि हू-ब-हू फूलनदेवी की प्रेत बैठी हों।

बिन्नू!” कहते हुए जुझार के नथुने फड़के। आगे बोला, ”इस काम के लिए कच्चे मन का वह साहस चाहिए जो अपने सपनों के लिए कुछ भी कर गुजरता है। उमर पक जाए, तब कौन बागी बन पाया है?”

मैं ऐसे देख रही थी जैसे गर्दन कमजोरी ने जकड़ ली हो।

प्रौढ़ आदमी, साला पचास तरह के डर लपेट लेता हैसजा, जेल ही नहीं, पाप-पुण्य के बफारे उसे झिंझोड़ डालते हैं। अन्याय और जुल्म को पचाता जाता है। गुलामी को धर्म की तरह निभाता रहता है। ऐसा आदमी रायफल कैसे उठाएगा? मेंढक मिदरा बनकर खुश रहता है। अपने जीवन में धन इक्कट्ठाकरने को कर्त्तव्य मानकर उसे काई की तरह जमाता जाता है। उसी पर सरकता फिसलता रहता है। ऐसा आदमी बागी कैसे हो सकता है

हे बेला बहू मैं यह तुम्हारी कहानी तो नहीं सुन रही और डाकुओं की कहानी लिखने का मेरा कतई इरादा नहीं है। अब इस बीहड़ में मैं कौन से देवता मनाऊँ कि आगे कुछ अनहोनी न हो।
सुन नहीं रहीं आप?” जुझारसिंह ने मुझे चेताया।

अगर मैं उन्नीस साल की अवस्था में अपने घर से न भागता तो आज अपने गाँव के दूसरे किसानों की तरह बारह बीघा खेत का मालिक और पाँच छ: बालकों का बाप होता। उन बालकों में से लड़कों को पढ़ाना-लिखाना चाहता तो अपने गाँव के किसानों की तरह पढ़ाई के लिए साधन न जुटा पाता।

फिर क्या होता? बिना पढ़े लड़के जाहिल आदमी के रूप में पनपकर ब्याह शादी लायक हो जाते, मैं खुश हो रहा होता। और इसके बावजूद अपनी लड़कियों के ब्याह की चिन्ता दीमक की तरह मेरे तन मन में लग जाती।

आगे क्या होता? बताओ आप। आप तो पढ़ी-लिखी हो। कितना जानती हो आदमी के बारे में? अपने देश के बारे में, आजाद मुल्क के बारे में?”

बेलाबहू”…जैसे मेरे अन्दर पुकार उठी हो। मैं यहाँ इस आदमी के सामने कटघरे में बन्द होती जा रही हूँ और यह अपनी दुनिया के नए-से-नए भेद खोलकर मुझसे सवाल कर रहा है! क्या मैं किसी इम्तहान से गुजरने आई थी यहाँ?

बिन्नू”, मान लो। नहीं, मानना पड़ेगा और लिख लो यह बात कि मैं सब के शादी ब्याह करके थोड़ा-बहुत कर्जदार हो जाता और चक्रवर्ती ब्याज पटाते-पटाते बूढ़ा होकर एक दिन मर जाता हूँ…पचानवे फीसदी किसानों की यही कहानी है। समझीं?”

मैं लिखती हूँ चुपचाप।

हमने इसी अभागी किसानी से बगावत की है। यह किसानी आदमी को ऐसा कमजोर करती जाती है कि वह लड़ेगा जूझेगा तो क्या, अपने आपको छिपाता रहता है क्योंकि जब देखो तब लुटना-पिटना और जलील होना उसकी जिन्दगी से चिपट गया है। बस इसी मारे दुख-दर्द से बिलबिलाते आदमी की जिन्दा रहने की कोशिश मरती चली जाती है।

जुझारसिंह ज्यों अपने वजूद से जूझ रहा हो। उसकी साँसों की गति में तेजी आ गई।
आज भी मैं सोचने लगता हूँ कि मैंने किसान होकर हथियार क्यों उठाया? मेरा मकसद तो धरती से, मिट्टी से और किसानी से जुड़ा था, खून से क्यों जुड़ गया? हमें तो जिन्दगी से ज्यादा कुछ प्यारा न था, मौत से आमना-सामना करने की बात कहाँ से आ गई? क्या-क्या याद आता है बिन्नू। बचपन से अनमोल कोई समय नहीं होता और छोटेपन में भाई से प्यारा कोई दोस्त नहीं मिलता। दोनों भाइयों ने मिलकर दीवारों के नीचे लौकी और तोरई के बीज बोए थे। बेल फैली और खपरैल पूरी-की-पूरी रात से भर गई। पीले सफेद फूलों से सज गई।

द्वार पर खड़े नीम के घने वृक्ष के नीचे लकड़ी का मजबूत तख्त पड़ा रहता था। सबेरे जैसे ही सूरज निकलता, नीम की फुनगियाँ और खपरैल पर पड़ी बेलें सुनहरी रंग में बदल जातीं। हम दोनों भाई बनियान और गमछा पहनकर चबूतरे पर दंड बैठक लगाया करते, इस नारे के साथ कि—’पहला सुक्ख निरोगी काया।‘ हम इसी में खुश थे कि बहुत खुश। गाँव में खाना-पीना भी शुद्ध और व्यायाम भी ईमानदार।

इतना कहने के बाद जुझार का चेहरा रंग बदलने लगा। अभी तक की मुद्रा ने करबट ली। वह अब क्या सुनाएगा, उसके पास कितने रहस्य हैं, उसने कितनी हकीकतों को दिल में उतार लिया है…
जैसे आँधी के दिन हर साल एक मौसम में तय होते हैं, उसी तरह जिन्दगी में भी बवंडर अपना वक्त तय करके रखते हैं” कहते-कहते उसका स्वर बुझने लगा। मैंने अपनी कल्पना में पाया जैसे उसकी आँखों में कुछ पिघले हुए चित्र तैरने लगे हैं और वे तस्वीर के हिसाब से निश्चित ही खुशनुमा नहीं हैं।

गाँव में तो यह देखा जाता है कि हमारे पिता ने सरकारी कर्ज लिया था ऐसे ही जैसे किसान लोग लिया करते हैं। महाजन के कर्ज ब्याज से, उसके निर्दयी तकाजों से, उसकी चक्रवर्ती ब्याज से निजात पाने के लिए लिया था सरकारी कर्ज। कितने खुश हुए थे हमारे पिता जब वह सरकारी रकम मिली थी। कितनी रकम मंजूर हुई और कितनी हाथ में आई? यह किस्सा बाद में। मगर हमारी बहन की शादी तो हो ही गई थी।

इसके बाद कर्ज पटाने का समय सामने आ गया।
समय पर नहीं जुटा पाए रकम तो…नोटिस, नोटिस, नोटिस…
फिर भी नहीं हो पाया पूरा पैसा…नालिस, कुर्की।

पिता कराह उठे। महाजन तो तकाजा ही करता था। राह चलते टोकते भी हिचकता था, क्योंकि गाँव का आदमी होता था। इज्जत आबरू पहचानता था। वह ढोर पशु भी खोलता था तो बहाना कुछ और ही होता था चार आदमियों के सामने साबधानी बरतता था क्योंकि गाँव का आदमी होता था।
यहाँ तो कागज आता है, सीधा बसूलियाबी की धौंस देता हुआ…
कागज आता है, गिरफ्तारी का वारंट बनकर…

कागज आता है, बिना गुहार पुकार सुने सीधे कुर्की करने…
कागज आता है, साथ मेंं पुलिस और सरकारी जल्लाद जो महाजन की तरह किसान की इज्जत का लिहाज नहीं करते, बेआबरू चीरफाड़ करने में माहिर होते हैं।

सरकारी कर्ज।
पिता कहते थे, कितने मुलाजिमों ने हिस्सा लिया था अपना। जितना रुपया मंजूर हुआ था, उसका आधा भी नहीं आया था हाथ में। ब्याज पूरी रकम पर लगाई गई। हम दोनों भाई सुनते रहते। एक अठारह का एक सोलह का जुझार और निहार। दोनों के नाम पर लगा था सिंह। मगर जैसे ही सरकारी लोग आते दोनों सिंह डर के मारे मेमने और गीदड़ हो जाते।

 
      

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6 comments

  1. As razões mais comuns para a infidelidade entre casais são a infidelidade e a falta de confiança. Em uma época sem telefones celulares ou internet, questões de desconfiança e deslealdade eram menos problemáticas do que são hoje.

  2. Como recuperar mensagens de texto excluídas do celular? Não há lixeira para mensagens de texto, então como restaurar mensagens de texto após excluí – Las?

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